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जब अंग्रेजो पर भारी पड़ गए थे सल्ट के रणबांकुरे।

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पांच सितम्बर, खुमाड, सल्ट के शहीद दिवस पर विशेष।

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मयंक मैनाली, सल्ट (अल्मोडा) ।

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देश की आजादी में सैकडों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। जिसकी बदौलत आज देश स्वतंत्रता की सांसें ले पा रहा है। आजादी की इस लडाई की ज्योति कुमांऊ मंडल के अल्मोडा जनपद में भी अधिक तीव्रता से जल उठी थी। ऐसे में अल्मोडा के प्रमुख और दूरस्थ क्षेत्र सल्ट के खुमाड की क्रांति को और वहां के क्रांतिकारियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। वर्ष 1942 में जब पूरा देश परतंत्रता की बेडियों से आजादी चाह रहा था तो और स्वतंत्रता संग्राम का संघर्ष अपने चरम पर था तो 5 सितम्बर 1942 को सल्ट के खुमाड के खीमानंद उनके भाई गंगाराम, बहादुर सिंह, चूडामणि अंग्रेजी सेना का मुकाबला करते हुए शहीद हो गए थे। इस संघर्ष में कई क्रांतिकारी गंभीर रूप से घायल भी हो गए थे। तभी से इन क्रंातिकारियों के बलिदान एवं संघर्ष की याद में सल्ट के खुमाड में शहीद दिवस का आयोजन किया जाता है। इस दिन यहां शहीदों को श्रद्वांजलि अर्पित की जाती है। लेकिन सल्ट में आजादी की लौ जगाने में स्वर्गीय पुरूषोत्तम उपाध्याय और उनके साथियों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता है।
उस समय कुली बेगार आंदोलन की अपार सफलता से अंग्रेजी सरकार बौखला उठी थी। सल्ट की चार पट्टियों और पौडी गढवाल की गुजडुपट्ी से बेगार वसूली के लिए अंग्रेज सरकार ने एसडीएम रानीखेत हबीबुर रहमान को सल्ट में भेजा। लेकिन एसडीएम के पहुंचने से पूर्व ही प्रमुख क्रांतिकारी हरगोविंद पंत साथियों के साथ सल्ट पहुंच गए। जहां उनकी भेंट सरकारी विद्यालय के अध्यापक पुरूषोत्तम उपाध्याय से हुई। उपाध्याय और उनके मित्र और साथी अध्यापक लक्ष्मण सिंह अधिकारी और एक ठेकेदार पान सिंह पटवाल उनके साथ अंग्रेजी सरकार के कुुशासन के विरूद्व अलख जगाने के सारथी बने। अध्यापक उपाध्याय सल्ट के खुमाड गांव के मूल निवासी थे। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के चलते वर्ष 1927 में उन्होंने सरकारी सेवा त्याग दी। इसके बाद वह महात्मा गांधी के ताडिखेत, रानीखेत आगमन पर पुरूषोत्तम उपाध्याय अपने साथियों के साथ महात्मा से मिले। इसके बाद महात्मा के संपर्क में आने के बाद वर्ष 1927 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पुरूषोत्तम उपाध्याय ने शिरकत की। इसके साथ ही सल्ट पूरे देश में उस समय तेजी से जोर पकड रही स्वतंत्रता की लडाई से सीधे तौर पर जुड गया। वर्ष 1930 में नमक आंदोलन का प्रभाव सल्ट में सीधे तौर पर देखा गया। कहा जाता है कि उस समय सल्ट में चमकना गांव सहित कुछ स्थानों पर नमक बनाया भी गया था। अंग्रेज सरकार अब सल्ट को अपने प्रभाव में लेने के लिए छटपटाने लगी। वर्ष 1930 में ही चले वन आंदोलन में रामनगर की सीमा से लगते मोहान जंगल में भारी संख्या में कं्रातिकारियों की गिरफ्तारियां हुई। तब अंग्रेजों ने क्रंातिकारियों पर लाठीचार्ज करवा दिया। 24 अक्टूबर 1930 को पुरूषोत्तम उपाध्याय अपने साथियों सहित रानीखेत में कुशासन के विरूद्व गिरफ्तारी देने रवाना हुए। उपाध्याय और उनके साथियों की सक्रियता से अब जनता को यह विश्वास जगने लगा कि अंग्रेज सरकार चंद दिनों की मेहमान है। आजादी का जोर अब और तेजी से उभरने लगा। लगातार सक्रियता के चलते वर्ष 1932 में अंग्रेज सरकार ने पुरूषोत्तम उपाध्याय को गिरफ्तार कर लिया। जहां उन्हे बरेली जेल भेज दिया गया। 1932 में उनका जेल में ही निधन हो गया। लेकिन अब तक सल्ट की जनता आंदोलन में सक्रिय हो चुकी थी। 1939 में खुमाड के रघुवर दत्त उपाध्याय, हरिदत्त, लालमणि आदि ने बैठक कर स्वर्गीय पुरूषोत्तम उपाध्याय की जलाई लौ को और तेज करने का निर्णय लिया। इसकी सूचना मिलने पर अंग्रेज सरकार ने रघुवर दत्त उपाध्याय, हरिदत्त, लक्ष्मण सिंह को देवायल और लक्ष्मण सिंह और हरिद्वारी गिरी को क्वैरला से गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पूरे क्षेत्र की जनता में आक्रोश फैल गया। अंग्रेज सरकार अब पूरी तरह दमन पर उतारू हो चुकी थी । 1942 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अंग्रेजों भारत छोडो, करो अथवा मरो आंदोलन का व्यापक प्रभाव यहां भी देखने को मिला। इसी बीच अंग्रेज अधिकारी जानसन ने 1942 में ही देघाट की पटवारी चैकी में प्रदर्शन कर रहे और सक्रिय आंदोलन चला रहे तकरीबन दस आंदोलनकारी बंद कर दिए। यह खबर चारों और फैल गई। स्थानीय जनता ने पटवारी चैकी का घेराव कर दिया। इस पर अंग्रेज अधिकारी जानसन ने गोलियां चलवा दी। जिसमें दो क्रांतिकारी हरिकृष्ण उप्रेती और हीरामणि बडोला शहीद हो गए। जिसके बाद जनता का आक्रोश और भडक उठा। सितम्बर 1942 में आंदोलनकारियों ने पोबरी में एकत्रित होकर सभा करने का निर्णय लिया। इससे अंग्रेज अधिकारी जानसन बौखला गया। वह सैकडों हथियार लिए अपने मातहद सिपाहियों के साथ भिक्यासैंण, चैकोट, देघाट के रास्ते खुमाड के लिए निकला। आखिरकार सल्ट के इतिहास का वह काला दिन आ ही गया। पांच सितम्बर 1942 को जानसन अपनी सेना के साथ शांतिप्रिय तरीके से विरोध प्रदर्शन कर रहे क्रंातिकारियों के दमन के लिए खुमाड पहुंचा। उस समय वहां पर सभा का आयोजन चल रहा था। जिसमे भारी संख्या में ग्रामीण और स्थानीय जनता मौजूद थी। दरअसल लोगों को जानसन के दल बल के साथ आने की खबर मिलते ही पहले से क्रोध से भरी जनता विरोध जताने खुमाड पहुंच चुकी थी। इसी बीच सभा में मौजूद एक क्रांतिकारी नैनमणि ने जानसन का गला पकड कर पिस्तौल छिनने की कोशिश की। इस घटना से बौखलाकर और अपना अपमान समझकर सभा स्थल पर दमन के लिए अंग्रेज अधिकारी ने गोलियां चलवा दी। जिसमें खीमानंद, उनके भाई गंगाराम, की मौके पर ही मृत्यु हो गई। वहीं गोलीकांड में घायल हुए दो क्रांतिकारी बहादुर सिंह, चूडामणि कुछ दिन बाद ही शहीद हो गए। जबकि तकरीबन दर्जनभर क्रंातिकारी घायल हो गए। परंतु इन क्रांतिकारियों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। अंग्रेजी सेना को सल्ट में सफलता नहीं मिल सकी। भारी विरोध और जनाक्रोश के कारण अंततः अंग्रेज अधिकारी जानसन को वापिस लौटना पडा। इसके बाद से ही सल्ट में आजादी के इन रणबांकुरों को याद कर प्रतिवर्ष पांच सितम्बर को उन्हें श्रद्वांजलि अर्पित की जाती है।


कुमांऊ की बारादोली है सल्ट की क्रांति ।

सल्ट। सल्ट की क्रांति और स्वतंत्रता संग्राम को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कुमांऊ की बारादोली की उपाधि दी। कुमाऊँ के इतिहास में सल्ट की क्रांति को महत्वपूर्ण माना गया है। उस समय के सीमांत और दुर्गम बीहड इलाके में इस क्रांति से अंग्रेज सरकार के पैर उखड गए। इसी कारणवश इस क्रांति को कुमाऊँ की बारादोली कहा गया है।