जंगल हमारे, जान देकर भी बुझायेंगे हम

चंद्रशेखर जोशी हल्द्वानी की फेसबुक वाँल से बागेश्वर जिले के जनौटी पालड़ी निवासी बिशन सिंह जंगल में आग बुझाते समय झुलस गए थे। उपचार को…

We will extinguish the forest by giving our lives

चंद्रशेखर जोशी हल्द्वानी की फेसबुक वाँल से

बागेश्वर जिले के जनौटी पालड़ी निवासी बिशन सिंह जंगल में आग बुझाते समय झुलस गए थे। उपचार को ले जाते समय उनकी मौत हो गई। अफसर बैठकों में आग बुझा रहे हैं, नेताओं की आंखों से पानी मर गया पर भाषणों से जंगलों में पानी की फुहारें डाल रहे हैं। गांव के लोग विकट जंगलों में आग से जूझ रहे हैं।

गांव के लोगों का यह पुराना काम है, आदत है, अपनी यह जरूरत भी है। जंगलों से आग नहीं बुझेगी तो गांव भी जल उठेंगे। यहां के लोग प्रकृति से बेहद प्रेम करते हैं। सरकार ने लोगों का जंगलों में जाना बंद कर दिया है। अब यहां जंगलों में जाने की जरूरत भी खास नहीं बची। गांव खाली होते जा रहे हैं। इसके बाद भी आग धधकती देख ग्रामीण जंगलों को निकल पड़ते हैं। आग बुझाने के कोई साधन नहीं, जिंदगी से हर पल खतरा रहता है। इस सबसे बेपरवाह लोग आग बुझाने में जुटे रहते हैं। इन जंगलों में हर पल खतरा रहता है। धुएं से उठते कार्बन  के कणों से आंखें दर्द करती हैं। चीड़ के जलते पेड़ तेज हवा में कहीं को भी गिर सकते हैं। पत्थरों के नीचे छिपे सांप भागते फिरते हैं, गुलदार और सुअर हिंसक हो चुके हैं। इसके बाद भी अल्मोड़ा के पास कयाला के जंगलों में आजकल दर्जनों महिलाएं और पुरुष आग बुझाने में जुटे हैं।

जंगलों में आग बुझाते समय झुलसना यहां आम बात है। हर साल कई लोग घायल होते हैं, कुछों की जान भी चली जाती है। पास के ही जिला मुख्यालयों में डीएम और सीडीओ रोज वन विभाग के अधिकारियों की बैठकें ले रहे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर पार्टी के हर नेता वनाग्नि पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं। इसके लिए करोड़ों का बजट जारी हो चुका है। लेकिन किसी भी जंगल में आग बुझाता कोई विभाग का आदमी नहीं दिखता। साधनों के नाम पर किसी भी गांव में आज तक एक भी यंत्र नहीं दिया गया।

उत्तराखंड के यह जंगल अमेरिका जैसे भी नहीं हैं कि यहां आग बुझाने के लिए हवाई जहाजों का उपयोग करना पड़े। जंगल ज्यादा घने नहीं रह गए हैं। यहां केवल चीड़ ही ऐसा वृक्ष है, जिससे आग तेजी से फैलती है। खास बात ये कि चीड़ के पेड़ को यदि एक बार काट दिया जाए तो यह दुबारा पनपता नहीं है।  यदि किसी पर जान आ भी गई तो वह पेड़ नहीं बनता। उसे गांव की भाषा में बान कहते हैं। अर्थात वह केवल बौने कद का ही रह जाता है। यदि इन जंगलों को बचाना है तो चीड़ के पेड़ों को काट देना चाहिए। इनके स्थान पर चौड़े पत्ते वाले पेड़ लगाने चाहिए।

यदि जंगलों में फलों के पेड़ लगा दिए जाएं तो बंदर, लंगूर और सुअर भी आबादी की ओर नहीं आएंगे। जंगली जानवरों की कुछ प्रजातियां वनों में ही विचरण करेंगी तो जानवरों की अन्य प्रजातियां भी वहीं अपना भोजन वहीं तलाशेंगी। यह कार्य बहुत ज्यादा समय का भी नहीं है। वैज्ञानिकों ने जल्द उगने वाले फल पौधों की प्रजातियां तैयार कर ली हैं। एक बरसात में सारे जंगलों में पौधे लगा दिए जाएं तो तीन या चार साल में पूरे जंगल नई प्रजाति के पेड़ों से भर जाएंगे। खैर सरकार से कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए लोग सदियों से अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए पूरे दिन जंगलों में जुटे हैं।