विलुप्त होती सामूहिकता की मिसाल ” पड़म ” पंरपरा

ललित मोहन गहतोड़ी चम्पावत। पर्वतीय आंचल में इन दिनों घास कटाई का काम शुरू कर दिया गया है। इसी के साथ विलुप्त हो रही परंपरा…

vilupt hoti samuhikta ki misal padam parampara

ललित मोहन गहतोड़ी

चम्पावत। पर्वतीय आंचल में इन दिनों घास कटाई का काम शुरू कर दिया गया है। इसी के साथ विलुप्त हो रही परंपरा पड़म की शुरूआत भी कर दी गई है। आज भी पहाड़ों में हमारी इस परंपरा का निर्वाह करते आपको कुमाऊँ के बहुत सारे गांव मिल जायेंगे।

पड़म परंपरा का निर्वाह करते हुए ग्रामीण महिलाएं एक दूसरे के खेत आदि में सामुहिक रूप से घास कटाई, गुड़ाई और खाद आदि डालने का कार्य करती हैं। इसके लिए कई दिन पहले से स्वयं मिलकर या किसी के हाथ रैबार भेजकर पड़म का दिन नियत किया जाता है। इस तरह से एक के बाद दूसरे ग्रामीणों के काम काज हंसते- गाते हल हो जाते हैं। आज भी सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामुहिकता के रूप में पड़म का खासा महत्व है। पड़म में आपसी सामंजस्य का होना बेहद जरूरी होता है। बिना सामंजस्य के पड़म की सार्थकता अधूरी मानी जाती है।

पड़म में एक साथ सुर से सुर मिलाकर ऋतु गीत गाती महिलाएं आज भी अपनी परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं। घास कटाई के दौरान वहीं खेतों म़े चाय, नाश्ता, पकौड़ी, फल आदि पड़म लगाने वाले घर की तरफ से दिया जाता है। आज भी कुमाऊँ के दूर दराज के गांवों में पड़म लगाकर घास कटाई करती महिलाएं सामुहिक रूप से इकट्ठा होकर हमारी परंपरा पड़म की सार्थकता निभाती देखी जा सकती हैं। कई इलाकों में इसे पल्टी भी कहते है ।