काले कव्वा काले, घुघुती माला खाले।
ले कव्वा बड़, मैंके दिजा सुनौंक घ्वड़।
ले कव्वा ढाल, मैंके दिजा सुनक थाल।
ले कोव्वा पुरी, मैंके दिजा सुनाकि छुरी।
ले कौव्वा तलवार, मैंके दे ठुलो घरबार।
अपना गुलामी से नाम कटा दो बलम,
तुम स्वदेशी नाम लिखा दो बलम।
मैं भी स्वदेशी प्रचार करूंगी,
मोहे परदे से अब तो हटा दो बलम।
यह एक बड़ी चेतना का आगाज था, जिसने बाद में महिलाओं को सामाजिक जीवन में आगे आने का आकाश दिया। बिशनी साह ने कहा- ‘सोने के पिंजरे में रहने से अच्छा, जंगल में रहना है।’ एक गीत बड़ा लोकप्रिय हुआ-
‘घाघरे गुनी, बाजरक र्वट,
सरकारक उजड़न ऐगो,
डबल में पड़गो ट्वट।।
‘उत्तरायणी’ आजादी के बाद भी आंदोलनों में हमारा मार्गदर्शन करती रही है। बागेश्वर के सरयू-गोमती बगड़ में तब से लगातार चेतना के स्वर उठते रहे हैं।