चाहे बल्द बैचे जो, स्याल्दे जरूर जांच छू- आज स्याल्दे—बिखौती (Syalde-Bikhoti)है

Today is Syalde-Bikhoti mela चारु तिवारी सत्तर का दशक। 1974-75 का समय। हम बहुत छोटे थे। द्वाराहाट को जानते ही कितना थे। इतना सा कि…

Today is Syalde-Bikhoti mela

चारु तिवारी

सत्तर का दशक। 1974-75 का समय। हम बहुत छोटे थे। द्वाराहाट को जानते ही कितना थे। इतना सा कि यहां मिशन इंटर काॅलेज के मैदान में डिस्ट्रिक रैली होती थी। (Syalde-Bikhoti)

Syalde-Bikhoti
Syalde-Bikhoti

हमें लगता था ओलंपिंक में आ गये। विशाल मैदान में फहराते कई रंग के झंडे। चूने से लाइन की हुई ट्रैक। कुछ लोगों के नाम जेहन में आज भी हैं। एक चैखुटिया ढौन गांव के अर्जुन सिंह जो बाद तक हमारे साथ बालीवाॅल खेलते रहे। उनकी असमय मौत हो गई थी। दूसरे थे महेश नेगी जो वर्तमान में द्वाराहाट के विधायक हैं (यह पुरानी पोस्ट है तब विधायक महेश नेगी थे)।

ये हमारे सीनियर थे। एक थे बागेशर के टम्टा। अभी नाम याद नहीं आ रहा। उनकी बहन भी थी। ये सब लोग शाॅर्ट रेस वाले थे। अर्जुन को छोड़कर। वे भाला फेंक, चक्का फेंक जैसे खेलों में थे। महेश नेगी जी का रेस में स्र्टाट हमें बहुत पसंद था। बाद में वे स्पोर्टस कालेज चले गये।

बाद में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी जीते। हम लोग वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेते थे। पहली बार जब वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिये मिशन इंटर काॅलेज सभागार में नाम पुकारा तो मंच पर जाते ही बोलने के बजाए रोने लगा था। पहली बार मंच का अनुभव बहुत सिखाने वाला था। मेरे खिलाफ दो बोलने वाले थे। एक थे मनोज जोजफ और एक शायद मनोज जोशी। धाराप्रवाह बोलने वाले इन दोनों का अपनी तरह का आतंक था। मनोज के पिता गांधी आश्रम में नौकरी करते थे। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, ‘बेटा तुम अच्छा बोल सकते हो। बस तुम्हें इतना करना है कि जब मंच में जाओ तो समझो कि सब कुछ तुम ही जानते हो। आगे कौन बैठा है इसकी परवाह मत करना।’ असल में हमारे लिये द्वाराहाट किसी महानगर से कम नहीं था। वहां की नसाफत और शहरी परिवेश हमें हीनभावना से भर देता। मिशन इंटर कालेज के भवन पर लिखा स्थापना वर्ष 1885 हमें पिछड़े होने का भान दिलाता।

खैर, बग्वालीपोखर जैसे ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल से द्वाराहाट आना भी हमारी कम उपलब्धि नहीं थी। जहां न सड़क थी और बिजली। खैर, बिजली तो तब द्वाराहाट में भी सबके पास नहीं थी। एक बड़ा दल हमारे स्कूल से यहां खेलों में भाग लेने आता। बग्वालीपोखर से लगभग बारह किलोमीटर दूर था द्वाराहाट। जिला परिषद की सड़क से हम दो पंक्तियों में स्कूल का झंड़ा लेकर आते थे द्वाराहाट। रास्ते में एक दुकान में बन (डबलरोटी) का नाश्ता होता था। मिशन इंटर काॅलेज में ही कमरों में रहने की व्यवस्था होती थी। पहली बार होटल में खाना भी द्वाराहाट में ही खाया। होटल क्या होता था, एक गोठ जैसा ही हुआ। कुछ कुर्सी-मेज लग गई तो हमारी भी समझ में आ गया होटल इसी को कहते होंगे। होटल मालिक ने डेढ-दो रुपये में भरपेट भोजन देता था। हमारी टीम में ऐसे भी लड़के थे जो चार लोगों के बराबर खाना खा देते। एक दिन होटल मालिक के सब्र का बांध टूट गया। बोला, ‘स्सालो तुम खाना खाते हो या जेब में भरते हो।’ अरे! मैं कहां चला गया। बात द्वाराहाट पर करनी थी स्याल्दे-बिखौती (Syalde-Bikhoti)पर।

द्वाराहाट के बारे में हमारी शुरुआती जानकारी इतनी ही थी। जब हम बड़े होने लगे तो कई तरह से द्वाराहाट से जुड़ाव शुरू हुआ। एक सांस्कृतिक और शैक्षिक शहर के रूप में तो द्वाराहाट है ही राजनीतिक चेतना और आंदोलनों की धरती भी रही। हमारे इलाके में कई जगह उन दिनों भागवत पुराण कथायें हुआ करती थी। व्यास जी बड़े मनोयोग से कहानी सुनाते। पूरा इलाका उमड़ पड़ता व्यासजी को सुनने। व्यास परंपरा की सबसे बड़ी खूबसूरती यह थी बहुत कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद उनकी वकृत्व कला का कोई सानी नहीं था। हम भी सुनने जाते थे भागवत। एक प्रसंग आता था मानसखंड का। हम इसे बहुत ध्यान से सुनते। प्रसंग था द्वाराहाट को द्वारिका बनाने का। मानसखंड में जिक्र आता है कि भगवान द्वाराहाट को द्वारिका बनाना चाहते थे। इसके लिये उन्होंने कोसी और रामगंगा को द्वाराहाट में मिलने को कहा। इस संदेश को दोनों के पास पहुंचाने के जिम्मेदारी गगास नदी के तट पर (छानागोलू) में स्थित गार्गेश्वर के सेमल के पेड़ को सौंपी गई। लेकिन उसे नींद आ गई। जब उसकी नींद खुली तो तब तक रामगंगा गिवाड़ घाटी से आगे निकल चुकी थी। इस प्रकार द्वाराहाट द्वारिका बनने से रह गई। अब द्वाराहाट में मंदिर ही हैं। इसलिये इसे उत्तर द्वारिका कहा गया। यह कहानी कितनी सच है यह कहा नहीं जा सकता क्योंकि द्वाराहाट के मंदिर 10वीं से 13 शताब्दी के बीच बने हैं, जब कत्यूरों को शासन था। दूसरी बात कोसी और रामगंगा को कोई ऐसा रास्ता नहीं बनता कि यह द्वाराहाट में मिल सके। बावजूद इसके समाज इतिहास और मान्यताओं दोनों के साथ चलता है इसलिए इस मिथक का भी अपना मतलब है। हमें यह कहानी इसलिये रुचिकर लगती थी क्योंकि मेरे क्षेत्र में बहने वाली गगास नदी का इसमें जिक्र था। हमें भी लगता था कि हम भी किसी इतिहास के हिस्सा हैं। फिलहाल द्वाराहाट भले ही द्वारिका न बन पाई हो, लेकिन उसने एक ऐसे सांस्कृतिक थाती के रूप में अपने को स्थापित किया है जो आज भी शैक्षिक और राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

द्वाराहाट में लगने वाला स्याल्दे-बिखौती मेला। दूर-दूर से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने वाली खूबियों से भरपूर। कत्यूरों ने यहां एक सुन्दर सरोवर बनाया। बताते हैं कि इसमें कमल खिला करते थे। इसी सरोवर के किनारे ‘शीतला देवी’ और ‘कोट कांगडा देवी’ मंदिर हैं। इसी स्थान पर कत्यूरी राजा ‘ब्रह्मदेव’ और ‘धामदेव’ की पूजा की जाती थी। यही सरोवर बाद में शीतला देवी के नाम पर स्याल्दे पोखर कहा गया। इसी पोखर के किनारे बैशाखी पर ‘स्याल्दे-बिखौती’(Syalde-Bikhoti) मेला भी लगता था। इस मेले में योद्धा अपने युद्ध कौशल का परिचय देते थे। इतिहास बताता है कि तब यह पाषाण युद्ध के रूप में होता था। बाद में यह बंद हो गया। अब यह मेला ‘ओड़ा भेंटने’ का होता है। इसमें तीन आल, नज्यूला और खरक खापें हैं जो नगाड़े-निशाणों के साथ स्याल्दे-बिखौती(Syalde-Bikhoti) मेले की परंपरा को आगे ब़ाते हैं। बिखौती का मेला विमांडेश्वर में रात को होता है। खैर, यह एक संक्षिप्त सी बात है द्वाराहाट के मेले के बारे में इसके विस्तृत इतिहास के बारे में फिर कभी बात होगी। अभी जो महत्वपूर्ण है वह है स्याल्दे मेले की आज की प्रासंगिकता के बारे में।

द्वाराहाट का स्याल्दे-बिखौती(Syalde-Bikhoti) मेले का ऐतिहासिक महत्व जो भी हो इसका सबसे बड़ा महत्व है जनचेतना का। यह जनचेतना निकलती है गांवों से। यह सामाजिक समरसता का प्रतीक तो है ही प्रतिकार की धारा का प्रतिनिधित्व भी करती है। एक बड़ा आकाश है लोक विधाओं का। इसे जितना समेटना चाहेंगे वह बढ़ता ही जायेगा।

गांवों में एक माह पहले से रात को ‘झोड़ों’ की जो गूंज सुनाई देती थी वह चेतना के नए द्वार खोलती थी। हमारे गांव के आसपास के गांवों में भी झोड़ों की धूम रहती। हमारे यहां से रानीखेत 16 किलोमीटर है। उसके पास ही का जंगल है ‘उपट’ का जंगल। हमारे यहां से अगर पैदल रास्ते से जायें तो भी लगभग नौ किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई। हमारी गगास घाटी का जंगल ‘उपट’ ही था जिस पर हमें हक-हकूक मिलते थे। च्याली, भेट, छाना, तमाखानी, मनेला गांवों की महिलायें सुबह ही निकल जाती थी इस चढ़ाई में लकड़ी लेने। एक साथ झोड़े गाती हुई। झोड़ा उनके जीवन का संगीत था।

आगे चलने, संघर्ष करने की प्रेरणा भी। सुबह-सुबह इन झोड़ों को सुनने का भी एक आनंद था। हमारे गांव में झोड़ा, चाचरी, भगनौले नहीं हो सकते थे। ब्राह्मणों का गांव था। ब्राह्मणों को इसमें जाने की मनाही थी। ब्राह्मण कहीं झोड़ा-भगनौला गायेंगे। इसमें तोहीन समझी जाती थी। तभी तो अल्मोड़ा के पहले सांसद देवकीनन्दन पंत को हुड़का बजाने और भगनौल गाने के कारण ही ‘हुड़की बामण’ कहा गया। मैं समझता था इतनी अच्छी विधा से ब्राह्मणें को एतराज क्यों होगा। खैर मैं तो झौड़े-भगनौले गाने लगा। अपने साथियों के साथ। बहुत किरकिरी होती थी मां-बाप की। पूरे खानदान की नाक ही डूब गई भगनौले गाकर। लेकिन आनंद आया। इसी ने हमारी दिशा बदल दी और सामाजिक चेतना की एक बड़ी खिड़की खुल गई। व्यापक सरोकारों का रास्ता भी मिल गया।

जब महिलायें झोड़ा गाती तो उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता। अपने संसार को वह कितनी भली प्रकार जानती हैं यह झोड़ों में प्रतिबिबित होता। कोई गीत ऐसा नहीं था जिसकी अपनी खासियत न हो। झोड़े सामूहिकता की उपज हैं। कोई एक जोड़ बना दे तो उसे दूसरा पूरा कर दे। बन गया झोड़ा और फूट पड़े उसमे से अलग-अलग स्वर। इसमें पौराणिक, धार्मिक, प्रेम प्रसंग, सुख-दुख, सामाजिक विसंगति, समसामयिक विषय होते थे।
इस तरह के झोड़ों की एक बड़ी फेहरिस्त रही है। बड़े मनोयोग से महिलायें इन झोड़ों को गाती रही हंै। ग्रामीण परिवेश में पगी इन रचनाओं में उनके सरोकार भी साफ झलकते हैं। श्रंृगार तो झोड़ों की आत्मा है। आमजन की प्रेम की बातें तो हैं ही जीजा-साली, देवर-भाभी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच संबंधों के जो झोड़े हैं वह ग्रामीण परिवेश में रहने वाली जनता की संवेदनाओं के बहुत मधुर तारों से बुने गये हैं। एक माह तक गांवों में चलने वाले इन झोड़ों का समापन द्वाराहाट के स्याल्दे मेले (Syalde-Bikhoti) में होता है। आइये कुछ झोड़ों का आनंद लेते हैं-

खोल दे माता, खोल भवानी धरम किवाड़ा।
कै ल्ये रेछै भेंट पखोवा कै खोलूं किवाड़ा।।
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सनगाड़ की रुमुली दीदी
बकरा पाठा छान क्या ला

ओह श्याम धुर प्रताप दाज्यू
जाठी ले घुघुर छान क्या ला
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मासी क प्रतापा लौंडा इस्कूला निजान बली, स्कूला नि जान,
चैकोटे की पारवती सुरासा निजान बली, सुरासा न जान।
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गोविंदी तेरो मैत्क जोगी अरौ चिमटा छम्मा छम।
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सरकारी जंगल लछिमा बांजा न कटा लछिमा बांजा न कटा
यूं हमारा धुर जंगोवा नासा न कर लछिमा नासा नि करि
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ओ परु डाखांण (डाकखाना) बते दे छम्म- छम्मा।
तेरी नो (नाम)े की चिठ्ठी लेखुला छम्मा- छम्मा।
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ठुम्मा-ठुम्मा गंग नहै उल हिटे साई म्यार दगडा,
तू छै भिना बड़ बगाड़ा, कसि ऊनू त्यारा दगड़ा।
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गाड़ मधुली राड़ मस्युरा झन टोडीए गियों
भाबरा तेली घाम लागेछे, पहाडा पडो हियो

हिसायी को रेटा, हिसायी को रेटा
आचुयी ले पानी पियो ना भरीना पेट। गाड…..
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महिला ः ओह शिखर डाना घामा आगेछो, छोड़ दे भीना मेरी धमेली।
पुरुष ः घाम छाडी बरखा है जो, कसकी छोडो तेरी धमेली।
महिला ः सास देखली, सौर देखला, छोड़ दे भीना मेरी धमेली।
पुरुष ः को देखला काली पातल, कासी के छोड़ो तेरी धमेली।
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मोहना लौड़ा नौल सिपाही तेरी गाड़ी मा रम बोतल।
मधुली छोरी गंगा पार की चाणा खा जाये मेरा होटल।
तेरी खुटी सलाम मधुली चाणा खा जाये मेरा होटल।
हल्द्वनी का पाल्ला टुका, चाणा खा जाये मेरा होटल।
खोदनी नहर, मोहना तेरी गाड़ी मा रम बोतल।
कि त लाये गैली माया, चाणा खा जाये मेरा होटल।

इन झोड़ों के अलावा सामाजिक विकृतियों और राजनीति पर बहुत सारे झोड़े बने हैं। आजादी के आंदोलन के दौर में में ग्रामीणों ने बहुत सारे झोड़े बनाये। भगत सिंह को फांसी देने के खिलाफ भी ग्रामीणों ने अपने स्वर दिये-

धन्य-धन्य भगत सिंहा, धन्य तुमुहणि।
पाणीं को पिजिया वीरा पांणी को पिजिया,
फांसी हणि गयो बीरा, आजादी लिजिया।

आजादी के बाद भी हर बदलावा के दौर में गांवों से झोड़ों के रूप में प्रतिकार के स्वर फूटे हैं। इंदिरा गांधी के 1975 में आपातकाल लगाने की घोषणा के खिलाफ भी महिलाओं ने झोड़े बनाये-

इंदिरा त्यर चुनाव चिन्हा गौरू दगड़ि बाछ,
इंदिरा त्यर गौरू ब्ये रौ छ, संजया हैरो ग्वाव।

इसी प्रकार जब सत्तर के दशक में सहकारी समितियों के माध्यम से घोटाले हुये तो यह झोड़े की बानगी देखिए-

…………. है रो सटबटुआ, …………………हैरो जालि, (नामों का जिक्र नहीं किया है)
न गाड़ो सौरज्यू समिति रुपैं समिति है रे जालि।

इस झोड़े को तब के जिलाधिकारी मुकुल सनवाल ने प्रथम पुरस्कार दिया था। इसी प्रकार समाजिक सरोकारों से संबंधित कई झोड़े महिलाओं ने बनाये। शराबबदी और जंगल आंदोलन के खिलाफ भी झोड़े बने हैं। आंदोलन का एक झोड़ा-
तू नि मार डाड जैता घर जानू भल है रे ऐये।
घर बजि गो गाड़ जैता घर जानूं भलि है रे ऐये।
बिन्दुखाता अब है गैछै बिडला की जै जात,
बिड़ला की जै जात जैता घर जानूं भलि है रै ऐये।

दो साल पहले जब द्वाराहाट मेले में गया था तो महिलाओं ने झोड़ा लगाया-

चैली लछिमा पौडर न लगा लालि
लौंडा मोहना सेंटर ल्हैगोछ पाली।

इस बार द्वाराहाट Syalde-Bikhotiमेले में नहीं जा पाया। एक किस्सा है द्वाराहाट मेले जाने का- ‘चाहे बल्द बिचै जाओ स्याल्दे कौतिक जरूर जांण छू’ (अर्थांत चाहे बैल भी बेचने पड़े लेकिन द्वाराहाट मेला जरूर जाना है।) सांस्कृतिक चेतना और उन्मुक्त इस आयोजन में प्रेम ही तो सर्वोपरि है। प्रेम बना रहे। हमारी अभिव्यक्ति के वे स्वर हमेशा जिंदा रहें जो ग्रामीण अंचल से फूटकर सत्ताओं को हिलाने का काम करती रही है। उम्मीद की जानी चाहिये कि द्वाराहाट के स्याल्दे-बिखौती से चेतना का नया झोड़ा हमें प्रतिकार के लिये तैयार करेगा।
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लेखक चारू तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं उनकी फेसबुक वाल ‌से साभार