आज है बिरुड़ा पंचमी,आज भिगोए जाते हैं बिरुड़,अष्टमी तक चलेगा पर्व, वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन रौतेला की फेसबुक वाल से साभार

बिरुड़ भिगाने के साथ ही सातूँ- ऑठूँ की तैयारी शुरु —जगमोहन रौतेला डेस्क— कुमाऊँ पिथौरागढ़ जिले , बागेश्वर जिले के कुछ क्षेत्रों और चम्पावत जिले…

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फोटो—साभार वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन रौतेला की फेसबुक पोस्ट से

बिरुड़ भिगाने के साथ ही सातूँ- ऑठूँ की तैयारी शुरु —जगमोहन रौतेला

डेस्क— कुमाऊँ पिथौरागढ़ जिले , बागेश्वर जिले के कुछ क्षेत्रों और चम्पावत जिले के कुछ क्षेत्रों में सातूँ – आठूँ का पर्व मनाया जाता है । यह पर्व भादो ( भाद्रपद ) महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। अगर चन्द्रमास भादो का शुक्लपक्ष सौरमास के अश्विन महीने में पड़ रहा हो तो तब सातूँ – ऑठूँ का ऑठूँ कृष्ण जमाष्टमी के साथ मनाया जाता है । उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में सौरपक्षीय पंचांग प्रचलन में है। यहॉ सारे पर्व सौरपक्ष के आधार पर मनाए जाते हैं । जिसके लिए पंचमी के दिन से इसकी शुरुआत हो जाती है । आज बिरुड़ पंचमी है । इस दिन तॉबे की छोटी पतीली में पॉच या सात नाज शुद्ध ( साफ ) पानी में भिगाने के लिए रख दिए जाते हैं । उसके लिए पहले तॉबे की पतीली को अच्छी तरह से धोने के बाद उसके चारों और पॉच – सात या नौ जगहों पर गाय के गोबर के साथ हरे दूब की स्थापना की जाती है और उसे पिठ्यॉ – अक्षत भी लगाया जाता है । पतीली के चारों ओर कलावा भी तीन या पॉच बार घुमाकर बॉधा जाता है ।
जो पॉच या सात अन्न बिरूड़ के लिए भिगाए जाते हैं , उनमें चना , गेहूँ , जौ , मटर , सफेद तिल , मॉस ( उड़द ) , पीली सरसों आदि शामिल किए जाते हैं । इसके अलावा एक छोटे से सूती कपड़े में फल , बिरूड़ के लिए भिगाए गए अन्न , एक सिक्का और दूब का एक गुच्छा बॉध लिया जाता है । इसे भी बिरूड़ वाले बर्तन में ही रख दिया जाता है । उसके बाद इसे घर के अन्दर स्थापित द्याप्तों की जगह पर रख दिया जाता है।
सप्तमी ( सातूँ ) के दिन भिगाए बिरुड़ों को धारे , नौले में सामुहिक तौर पर शुद्ध जल से धोया जाता है । सूती कपड़े में अलग से पोटली में बॉधकर भिगाए बिरूड़ ऑठों के दिन गौरा – महेश को चढ़ाए जाते हैं । पतीली में भिगाए गए बिरूड़ों को ऑठूँ की शाम को या फिर नौवें दिन सवेरे भूनकर प्रसाद के तौर पर ग्रहण किया जाता है । बिरूड़ों का प्रसाद आस – पड़ोस व नाते – रिश्तेदारों में भी बॉटा जाता है ।
सातूँ – ऑठूँ का पर्व कैलाश से नाराज होकर अपने मायके आई गौरा ( पार्वती ) को वापस ससुराल ले जाने के लिए आए महेश ( शिव ) की आवभगत का पर्व है । जिसमें धान , मक्का और दूसरी हरी घास से गौरा – महेश की मूर्तियों ( पुतलों ) का निर्माण किया जाता है । दोनों की मूर्तियों को दूल्हन व दूल्हे की तरह की सजाया जाता है । ऑठूँ के दिन गौरा की महेश के साथ विदाई की जाती है । यह बिल्कुल उसी तरह होती है , जैसे शादी के दिन बेटी की विदाई की जाती है । गौरा की महेश के साथ विदाई के पल बहुत ही भावुक कर देने वाले होते हैं । अधिकॉश महिलाएँ गौरा की विदाई के समय भावुक होकर रोने लगती हैं । विदाई के साथ ही महेश से गौरा की अच्छी तरह से देखभाल करने और उसे किसी तरह का कष्ट न देने के गीत भी गाए जाते हैं । साथ ही गौरा को मायके की ओर से यह विश्वास भी दिलाया जाता है कि ससुराल ( कैलाश ) में किसी भी तरह की परेशानी होने पर वह बिना झिझके अपने मायके आ सकती हैं । विवाह हो जाने से उसका मायके से नाता नहीं टूटा है , बल्कि और मजबूत हो गया है। जहॉ – जहॉ सातूँ – ऑठूँ का पर्व मनाया जाता है , वहॉ के लिए महेश ( शिव ) अराध्य नहीं , बल्कि जँवाईं हैं और गौरा ( पार्वती ) एक बेटी ।

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