शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 5

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और रचनात्मक शिक्षक मंडल के माध्यम से शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

 शिक्षा में बदलाव या बदलाव के लिए शिक्षा

हम एक ऐसे दौर में हैं जबकि शिक्षा, सृजनात्मकता व विवेकशीलता के विकास का मिशन न होकर मुनाफे का धंधा बनते जा रही है। शिक्षा सृजनोन्मुखी न होकर बाजारोन्मुखी हो गई है। कैसे अधिक से अधिक धनोपार्जन किया जा सके? शिक्षा उसका माध्यम बनती जा रही है। शिक्षा को मात्र नौकरी-चाकरी कर सकने की योग्यता से जोड़कर देखा जा रहा है। कैरियर उसके केंद्र में है। ऊँची से ऊँची नौकरी दिला सकने वाली शिक्षा को ही अच्छी शिक्षा माना जा रहा है। बच्चों को संवेदनशील, सभ्य, सुसंस्कृत, सचेत और जिम्मेदार नागरिक बनाना गौण होता जा रहा है। मानवीय मूल्यों की किसी को कोई चिंता नहीं है। नैतिक मूल्यों की बातें केवल कहने मात्र को हैं। संवेदनशील ,स्वतंत्र और पूर्णतर मानव नहीं अर्थ मानव बनाना शिक्षा का परम् लक्ष्य हो गया है। उसे एक संसाधन के रूप मंे विकसित किया जा रहा है। एक ऐसा संसाधन जो बाजार के हित में काम कर सके। काॅरपोरेट घरानों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं में संसाधन के रूप में बच्चे को सजाने-संवारने, ठोकने-पीटने तथा काटने-तराशने की जद्दोजहद चल रही है। इस प्रक्रिया में उसके भीतर क्या-क्या क्षरित हो रहा है, इसकी किसी को कोई परवाह नहीं है। उसकी सृजनशीलता की कोई कद्र नहीं है। उसे उपभोक्ता सामग्री तैयार करने वाले एक साधन मात्र के रूप में तैयार किया जा रहा है। वह बाजार में बिकने वाली वस्तु बन रहा है।


नवउदारवाद के नाम पर सरकारी स्कूल प्रणाली को ध्वस्त करने का षड़यंत्र चल रहा है। लालफीताशाही इस मुहिम को आगे बढ़ाने में जुटी हुई है। ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है कि सरकारी शिक्षा तंत्र को इतना बदनाम कर दिया जाय कि उस पर जनता का रहा-थका विश्वास भी जाता रहे ताकि आने वाले समय में सार्वजनिक शिक्षा को पूरी तरह से निजी या काॅरपोरेट क्षेत्र के हाथों भी सौंप दिया जाय तो जनता की ओर से कोई विरोध न खड़ा हो सके। शिक्षा में निजी-सार्वजनिक भागीदारी और वाउचर प्रणाली इसकी शुरुआत कही जा सकती है।


यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है। 86वें संविधान संशोधन के द्वारा शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा तो प्रदान कर दिया गया है जिसके तहत 6से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की बात कही गई है। लेकिन प्रश्न उठता है यह कैसी शिक्षा का मूल अधिकार है? कौन सी शिक्षा निःशुल्क देने की बात हो रही है?


बाजार में तरह-तरह की गुणवत्ता वाली शिक्षा की दुकानें सजी हैं। एक छोर तमाम संसाधनों से विहीन और बदहाल शिक्षण संस्थाएं हैं, जहाँ शिक्षक भी पर्याप्त नहीं हैं तो दूसरे छोर पर समस्त संसाधनों से लैस, हाइटैक और महंगी शिक्षण संस्थाएं हैं, जिनका अपना अलग माध्यम और पाठ्यक्रम है। केवल सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं को ही लें तो उसमें एक ओर जहाँ वैकल्पिक शिक्षा केंद्र या शिक्षा घर जैसी व्यवस्थाएं हैं तो दूसरी ओर केंद्रीय विद्यालय, जवाहर नवोदय विद्यालय या माॅडल स्कूलों जैसी विशेषकोटि की शिक्षण संस्थाएं हैं। शिक्षा अधिनियम 2009 में ही चार तरह के विद्यालयों की बात की गई है। इस अधिनियम में यह तय कर दिया गया है कि बच्चे को ऐसी ही शिक्षा का मौलिक अधिकार होगा जिसे राज्य कानूनन निर्धारित करेगा।

इस तरह वह शिक्षा शिक्षा घरों या वैकल्पिक शिक्षा केंद्रों में दी जाने वाली शिक्षा भी हो सकती है, जिसमें एक ऐसा पैरा टीचर बच्चों को शिक्षा देता है, जिसके पास न अपेक्षित शैक्षिक योग्यता होती है और न ही प्रशिक्षण योग्यता।
जहाँ तक वाऊचर देने का सवाल है वह भी उतने ही धनराशि का होगा जितना आज की तिथि में सरकार सरकारी स्कूलों में एक वर्ष में एक बच्चे के ऊपर खर्च कर रही है। समझा जा सकता है कि उस वाऊचर से शिक्षा के बाजार में कैसी और कौनसी शिक्षा खरीदी जा सकती है? यह कैसी शिक्षा के चयन की स्वतंत्रता है? यह कैसा मूल अधिकार है जिसके मूल में ही असमानता छुपी हुई है और कैसी निःशुल्क शिक्षा जिसमें निजी विद्यालयों को लूट की पूरी छूट दी गई है। निःशुल्क शिक्षा तो तब मानी जाती जब सरकार अमीर-गरीब सभी बच्चों के लिए समान एवं सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था करती। यहाँ तो अलग-अलग वर्गों तथा अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग गुणवत्ता वाली शिक्षा है। आज शिक्षा केवल दोहरी ही नहीं बल्कि बहुपरती है जो बाजार की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित है।


ऐसी स्थिति में एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है कि शिक्षा में बदलाव हो या बदलाव के लिए शिक्षा हो? बदलाव हो तो क्यों हो? किस के हित में  हो ? शिक्षा में बदलाव की जहाँ तक बात है ,उसके लिए तो ठीक है कुछ नया-नया करते रहिए, उसमें बदलाव दिखाई देता रहेगा। जैसा कि हो भी रहा है। पर जहाँ बदलाव के लिए शिक्षा की बात है, यह एक व्यापक एवं गम्भीर सवाल है। जब हम बदलाव के लिए शिक्षा की बात करते हैं तो कुछ-कुछ नया करते रहने से बात नहीं बनेगी। उसके लिए अपने समय और समाज के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रश्नों पर समग्रता से विचार करना होगा, क्योंकि शिक्षा व्यवस्था इन सबसे अलग नहीं है, उनका ही एक अंग है। इसलिए शिक्षा को इस सबसे काटकर नहीं देखा जा सकता है। यदि ऐसा किया जाएगा तो हासिल कुछ नहीं होगा। यथास्थिति बनी रहेगी। उन तमाम प्रश्नों पर विचार करना होगा जो शिक्षा में आ रहे मौजूदा परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार हैं। उन कारकों को समझना होगा जो पूरी व्यवस्था को संचालित कर रहे हैं। संचालित करने वालों के मंसूबों को समझना होगा। सत्ता और शिक्षा के अंतर्संबंधों की पड़ताल करनी होगी। सत्ता के मूल चरित्र को समझना होगा। वैश्विक राजनीति की गति को पकड़ना पड़ेगा। इन सबको समझे बिना शिक्षा में बदलाव तथा शिक्षा से बदलाव की बात करना बेमानी होगी।


ऐसे में आज शिक्षा पर समग्रता के साथ चिंतन और हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। उसके एक पक्ष विशेष में ध्यान देकर वस्तुस्थिति में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। शिक्षा बदलाव की वाहक तभी बन सकती है, जब शिक्षा के सैद्धांतिक, व्यवहारिक, नीतिगत व क्रियान्वयन के क्षेत्र में एक साथ काम किया जाए। उसके स्थानीय और वैश्विक स्वरूप को समझा जाए।

एक शिक्षक के लिए आज जितनी आवश्यकता कक्षा-कक्ष या स्कूल स्तर पर ईमानदारी से काम करने की उतनी ही आवश्यकता शिक्षा के सैद्धांतिक पक्ष को जानने-समझने और आत्मसात करने की है तथा उतनी ही राज्य की नीतियों को समझने और हस्तक्षेप करने की भी। यदि शिक्षा के सैद्धांतिक पक्ष की समझ गहरी एवं स्पष्ट नहीं होगी तो नीतियां कितनी ही सही हों, उनको कितनी ही ईमानदारी से लागू किया जाय परिणाम अपेक्षानुकूल नहीं प्राप्त हो सकते। इसके विपरीत दूसरी ओर, सैंद्धांतिक समझदारी और कार्य के प्रति ईमानदारी कितनी ही उच्चकोटि हो यदि सरकारी नीतियां या व्यवस्था कार्य करने के अनुकूल न हों तो तब भी इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकते। ऐसा अक्सर देखने में भी आता है कि ऐसे बहुत सारे शिक्षक हैं जिनकी शिक्षा संबंधी सैंद्धान्तिक समझदारी बहुत गहरी रही है तथा अपने दायित्व के प्रति उनकी ईमानदारी और समर्पण भी कहीं से कम नहीं रहा है बावजूद इसके नीतिगत या व्यवस्थागत खामियों के चलते वे बहुत कुछ नहीं कर पाते हैं। अंततः अपनी आशानुकूल न कर पाने के कारण कुंठित एवं निराश हो जाते हैं। उनकी सृजनशीलता धरी की धरी रह जाती है।

ऐसे में बच्चों को कैसे सृजनशील और विवेकशील बनाया जाय?यह शिक्षा से जुड़े हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए एक चुनौती है। शिक्षक उसका एक महत्वपूर्ण घटक है, इसलिए सृजनशीलता के मार्ग में जो बाधाएं हैं,उनको शिक्षकों को न केवल समझना होगा बल्कि संगठित होकर उनके खिलाफ संघर्ष करना होगा। यह भी सृजनशीलता का ही एक अंग है। सृजनात्मकता का प्रस्थान बिंदु है-सम्यक शिक्षा के बारे में समझ में विकसित करना। सरकार अपने लोकतांत्रिक जिम्मेदारी से बच रही है इसलिए शिक्षकों के साथ-साथ समाज के हर व्यक्ति को हस्तक्षेप करने तथा समान शिक्षा के लिए सरकार पर दबाब बनाने की आवश्यकता है। शिक्षा में बदलाव कर ही काम नहीं चलेगा बल्कि शिक्षा को बदलाव का माध्यम बनाना जरूरी है