शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 3

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और रचनात्मक शिक्षक मंडल के माध्यम से शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका एक कविता संग्रह  आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से प्रकाशित हुआ है  । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुकी है।

आज हमारी शिक्षा व्यवस्था और स्कूलों का माहौल जिस तरह का है उस पर प्रसिद्ध शिक्षाविद जाॅन हाल्ट की यह बात यथार्थ प्रतीत होती है ,’’ बच्चा जब स्कूल में पहला कदम रखता है तो वे काफी निडर , चतुर , आत्मविश्वासी , चीजों को समझने वाला ,स्वतंत्र और धैर्यवान होता है पर स्कूल उसमें डर और आतंक पैदा कर देता है। वह उसे बोर कर देता हैै। उसकी सोचने-समझने की क्षमताओं को कुंद कर देता है ।वह बच्चे के साथ क्रूरता के साथ पेश आता है।‘‘ स्कूलों की रही-सही कसर घर मेें अभिभावकों की लैण्टेनियायी महत्वाकांक्षाएं कर देती हैं। बच्चे की माॅसपेशियाॅ में अभी गति एवं नियंत्रण नहीं आया होता है, अभिभावक उसके हाथ में कलम थमाने लग जाते हैं। बच्चा साफ-साफ बोलने नहीं लगता, वे उसे सूचनाएं रटाने लग जाते हैं। वे चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी बच्चा लिखना-पढ़ना सीख ले तथा तथ्यों को रट ले। इसमें भी एक दुःखदायी बात है, उनके लिए लिखना-पढ़ना केवल स्कूली पाठ्यपुस्तकों तक सीमित होता है। यदि कोई बच्चा कहानी-कविता या अपनी रूचि की कोई अन्य किताब पढ़ता है तो अभिभावकों को उससे ऐतराज होता है। उन्हें यह समय की बरबादी वाला काम प्रतीत होता है। जबकि सत्यता यह है कि बच्चा स्कूली किताबों की अपेक्षा अन्य किताबों या पत्र-पत्रिकाओं से अधिक सीखता है,क्योंकि जब बच्चा इन्हें पढ़ रहा होता है, तब वह पूरी तरह दबाब मुक्त होता है।

बच्चे की इनमें रूचि और जिज्ञासा होती है,फलस्वरूप उसे इनसे गुजरते हुए आनंद की प्राप्ति होती है। जिस कार्य में आनंद होता है वह आत्मसात भी जल्दी होता है तथा उसे बार-बार करने की इच्छा भी होती है। खेलों के नाम पर भी यही किस्सा है। बाजार से लाए इलैक्ट्रोनिक रंग-बिरंगे खिलौने लाकर रख दिए जाते हैं, जिनमें बच्चों के करने और जोड़ने के लिए बहुत कुछ नहीं होता है। इनसे बच्चों की सृजनशक्ति को पनपने का अवसर भी नहीं मिलता । इस तरह के खिलौनों से खेलते बच्चे जल्दी ही ऊब जाते हैं। इस संदर्भ में मुझे रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह उद्धरण बहुत प्रासंगिक लगता है ,’’ जब मैं बच्चा था तो छोटी -छोटी चीजोें से अपने खिलौने बनाने और अपनी कल्पना में नए-नए खेल ईजाद करने की मुझे पूरी आजादी थी।मेरी खुशी में मेरे साथियों का पूरा हिस्सा होता था ,बल्कि मेरे खेलों का पूरा मजा उनके साथ खेलने पर निर्भर करता था। एक दिन हमारे बचपन के इस स्वर्ग में वयस्कों की बाजार-प्रधान दुनिया से एक प्रलोभन ने प्रवेश किया। एक अंग्रेज दुकान से खरीदा गया खिलौना हमारे साथी को दिया गया , वह कमाल का खिलौना था- बड़ा और मानो सजीव। हमारे साथी को उस खिलौने पर घमंड हो गया और अब उसका ध्यान हमारे खेलों में इतना नहीं लगता था, वह उस कीमती चीज को बहुत ध्यान से हमारी पहुँच से दूर रखता था ,अपनी इस खास वस्तु पर इठलाता हुआ।

वह अपने और साथियों से खुद को श्रेष्ठ समझता था क्योंकि उनके खिलौने सस्ते थे। मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूूँ कि अगर वह इतिहास की आधुनिक भाषा का प्रयोग कर सकता तो वह यही कहता कि वह उस हास्यास्पद रूप से श्रेष्ठ खिलौने का स्वामी होने की हद तक हमसे अधिक सभ्य था। अपनी उत्तेजना में वह एक चीज भूल गया -वह तथ्य जो उस वक्त उसे बहुत मामूली लगा था -कि इस प्रलोभन में एक ऐसी चीज छिप गई जो उसके खिलौने से कहीं श्रेष्ठ थी , एक श्रेष्ठ और पूर्ण बच्चा । उस खिलौने से महज उसका धन व्यक्त होता था , बच्चे की रचनात्मक ऊर्जा नहीं , न ही उसके खेल में बच्चे का आनंद था और न ही उसके खेल की दुनिया में साथियों को खुला निमंत्रण ।‘‘ क्या यह स्थिति आज और अधिक विद्रूप नहीं हो गई है?

आज अधिकांश उच्च तथा मध्यवर्गीय अभिभावक अपने बच्चों को घर की चाहरदिवारी में कैद कर महंगे खिलौनों में व्यस्त रखना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति के चलते गली -मुहल्लों में खेले जाने वाले तमाम खेल लुप्तप्रायः हो चुके हैं।जिसके कारण न केवल बच्चे की रचनात्मकता कंुद हुई है बल्कि सामूहिकता और सहयोग जैसे मूल्यों का ह्रास भी हुआ है।गरीब वर्ग के बच्चों की तो बात ही क्या करें!उनके पास तो खेलने-कूदने का समय ही नहीं होता तथा उनके परिवार का वातावरण इतना अशांत और संघर्षपूर्ण होता है कि उसमें कुछ नया सोचने-समझने की आशा भी नहीं की जा सकती।उनकी तो पहली लड़ाई ही आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होती है। परिवार के कामों में हाथ बँटाने से ही उनको फुरसत नहीं होती।