व्यंग : सोशल खबरीलाल ने दैनिक खबरीलाल का तोड़ा मिथक

ललित मोहन गहतोड़ी बीते दो दशक से ज्यादा समय नहीं हो रहा जब महज टेलीफोन ही एक दूसरे से बातचीत का सुलभ माध्यम हुआ करता…

social media

ललित मोहन गहतोड़ी


बीते दो दशक से ज्यादा समय नहीं हो रहा जब महज टेलीफोन ही एक दूसरे से बातचीत का सुलभ माध्यम हुआ करता था। जो खबरीलाल के लिए खबरों के आदान प्रदान का एक सुलभ उपाय बन सामने आया था। तब दैनिक खबरीलाल खुश था टेलीफोन उसकी पहुंच थी सबकी नहीं। बीते दौर में पेजर, आई फोन, स्क्रीन टच मोबाइल आदि के चलन ने संचार क्रांति में नया मोड़ ला दिया। अब तो हर खबर हर सेट में दर्ज है बकायदा नेट खुला हो। यही खबरीलाल के लिए सबसे बड़ी परेशानी का सबब है।

संचार क्रांति के दौर में स्थानीय युवाओं ने ग्रुप बनाकर जब से एक दूसरे को जोड़ने का काम किया है तब से हर एक घटना दुर्घटना पल भर में सामने आने लगी है। एक तरह है आज का हर स्मार्ट उपभोक्ता जो स्मार्टफोन चला रहा है वह सोशल पत्रकार बन तैयार हो चला है। इस बात से खबरीलाल को झुंझलाहट होना लाजिमी है। वह नहीं चाहता कि उससे पहले खबर दुनिया तक पहुंचे पर हो गया इसके उलट है।

अब वह उदास है उसे खबर चाहिए। हर हाल में चाहिए फटेहाल बदहाल सब चाहिए। बस उसे सब्जक्ट मिल जाएगा जिसे उसे कल सुबह बासी परोसना जरूरी है। कभी कभी तो श्रृंखला भी बढ़ानी पड़ती है। संपादक की चमचागिरी में दो चार फेक न्यूज के कसीदे भी गढ़ने पड़ते हैं। कुल मिलाकर रोजाना न्यूज भेजने का डंडा है। क्या करें अपने खबरीलाल ने काम ही ऐसा पकड़ा है बेकाम का डंडा थाम कर।

अबकी सुना है अनेक साल से एक ही एक ही बतलोली करते हुए यह खबरीलाल अब बोर होने लगा है। उसकी आधा हकीकत आधा फ़साना सुनाने से पहले बहुत से सोशल पंडित अपना राग अलाप दे रहे हैं। जिसे वह कतई पसंद नहीं करता है। अब उसे इस पेशे में दवाब महसूस होने लगा है वह बदलाव चाहता है। सूत्र पक्के हैं कि अब वह अपनी पुस्तैनी पान की दुकान पर बैठकर सोशल पंडितों की गुंटर गूं सुनते हुए मंद मंद मुस्कान के साथ धन कमाने की ताक रहा है स्मार्ट फोन हाथ में पकड़े हुए।