अनियोजित विकास से उत्पन्न होती गंभीर समस्याएं

भारत संस्कृतियों का देश है, भारत मानवता के संरक्षण का देश है, भारत सम्वेदनाओं के स्तर पर एक दूसरे की मदद करते हुए आगे बढ़ने…

भारत संस्कृतियों का देश है, भारत मानवता के संरक्षण का देश है, भारत सम्वेदनाओं के स्तर पर एक दूसरे की मदद करते हुए आगे बढ़ने का देश है, लेकिन विकास के लिए किसी भी स्तर पर गलाकाट प्रतिस्पर्धा करते हुए हम अपने वर्तमान और आने वाले भविष्य को तबाह कर दें यह भारत की ना तो कभी परंपरा रही है और ना ही इसकी नियति है । इसके बावजूद भी वर्तमान में जो स्थितियां चारो ओर व्याप्त हैं और देखने में आ रही हैं उससे यही लगता है कि हम आने वाले दिनों में अपने भविष्य को एक ऐसा वातावरण देने जा रहे हैं जिसमें केवल प्रदूषण, बीमारियां और तमाम किस्म की गंभीर समस्याएं होंगी।

वास्तव में जिस तरह से आज विकास के नाम पर अनियोजित शहरीकरण बढ़ रहा है उसने ना केवल पर्यावरण के सामने एक गंभीर समस्या पैदा की है बल्कि मनुष्य सहित तमाम जीव-जंतु, चराचर जगत के लिए भी जीवन का संकट खड़ा कर दिया है। कभी-कभी लगता है कि हम यूरोप की नकल कर रहे हैं लेकिन उस नकल के लिए जो अकल चाहिए उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं । यूरोप में आबादी का घनत्व कम है । यूरोपीय देशों के पास बहुत बड़ी प्राकृतिक संसाधन और व्यवस्था उपलब्ध है उस तुलना में क्या हमारे पास इतने प्राकृतिक संसाधन हैं ? कहना होगा नहीं, लेकिन इसके बावजूद हम यूरोप की नकल करने में व्यस्त हैं । परिणाम बहुत भयंकर है ।

हम लगातार मल्टीनेशनल कंपनियों को भारत में आमंत्रित कर रहे हैं । भारत में रोजगार उत्पन्न करने के लिए तमाम की इकाइयां खड़ी कर रहे हैं लेकिन उनसे निकलने वाला धुआं-कचरा और जो भी वेस्टेज मेटेरियल है उसके निस्तारण की सुनियोजित व्यवस्था जैसा कि यूरोप में रहता है करने में अभी भी असमर्थ रहे हैं, फलस्वरूप नई-नई किस्म की बीमारियां हमारी हवा में प्रदूषण के स्तर के बढ़ने के कारण पैदा हो रही हैं और जीवन को समय पूर्व ही काल-कवलित कर रही हैं अगर प्रदूषण की स्थिति को गंभीरता से लिया जाए तो पिछले दिनों विश्व स्वास्थ संगठन की जिनेवा में वर्ष 2016 में हुई बैठक में दुनिया के 15 प्रदूषित शहरों की सूची जारी की गई थी यह वह शहर है जहां मनुष्य का लंबे समय तक रहना मौत को सीधे-सीधे दावत देना है इसके बावजूद भी जीवन यापन हेतु यहां लोग रहने के लिए मजबूर हैं सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इन 15 प्रदूषित शहरों की सूची में 14 शहर भारत के शामिल है जिसमें कि कानपुर का प्रदूषण स्तर सबसे ऊपर पाया गया तो दिल्ली छठे स्थान पर है ।

देश की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण का स्तर है जो कि उनकी आयु को कम करती है और जीवन को समाप्त करती है। इसी प्रकार से एक रिपोर्ट इसके पूर्व 2010 में भी आई थी और उसमें भी यह पाया गया कि दिल्ली और कानपुर की तरह ही आगरा भी प्रदूषित शहरों में सबसे ऊपर है । बात इतनी है कि भारत के 2 शहर इसमें शामिल हैं। हम एक तरफ स्वच्छता सर्वे कर रहे हैं जिसमें इंदौर पहले स्थान पर आता है तो भोपाल दूसरे स्थान पर । इस प्रकार की एक पूरी सूची है तो दूसरी तरफ स्वच्छता के जो शहर है इन शहरों का जो भी कचरा है उस कचरे का व्यवस्थित निस्तारण हो रहा है कि नहीं, वातावरण में इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं है कुल मिलाकर कहना यही है कि अगर हमने इसी तरह अनियंत्रित, अनियोजित विकास के लिए शहरीकरण को बढ़ावा दिया जाना जारी रखा तो वर्तमान पर जो संकट है उससे कहीं अधिक गंभीर खतरा हमारी आने वाली पीढ़ी पर होगा ।

बेहतर भविष्य की चाहत में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण से बेपरवाह लोग अनियोजित शहरीकरण में बृद्धि कर रहे हैं। रोटी- रोजगार की चाहत में अपने पुश्तैनी विरासत की तिलांजलि देकर शहरी दड़बे में रहने को विवश हैं । इस चकाचौंध की लालसा का परिणाम बेतहाशा पलायन और शहरों पर अनियंत्रित बोझ के रूप में दिखता है । उदाहरण के रूप में आज देश में 1 लाख से अधिक आबादी के शहरों की संख्या 302 हो चुकी है । इसी प्रकार 10 लाख की जनसख्या वाले शहरों की संख्या गत 20 वर्षों में लगभग दोगुनी हो गयी है । जानकारों के मुताबिक 26 शहरों में देश की लगभग 9 प्रातिशत आबादी निवास कर रही है । विश्व बैंक के ताजा रिपोर्ट के आधार पर अगले दो दशक में 10 लाख की जनसंख्या वाले शहरों की संख्या 60 के करीब पहुँच जाएगी ।

इस प्रकार अनियंत्रित पलायन और अनियोजित शहरीकरण के लिए आधारभूत ढांचे विकसित करने होंगे जिसमें सड़क, बिजली, पानी, मकान आदि की बड़े पैमाने पर जरूरत होगी । रहवासियों के लिए जगह चाहिए और इसके लिए जंगल और पहाड़ नष्ट किए जाएँगे । जिससे प्राकृतिक असंतुलन होना स्वाभाविक  है । शहरों पर अनावश्यक दबाव से ना ही समुचित स्वास्थ्य, ना ही शिक्षा, ना ही समुचित रोजगार की व्यवस्था हो पा रही है । ऐसी स्थिति में ना केवल पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हो रहा है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संकट भी खड़ा हुआ है ।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या विकास चंद अमीर और बड़े लोगों के हिस्से की चीज है? ग्रामीण या कस्बायी जनता बड़े शहरों में नहीं रह सकते? हमें यह समझना होगा कि विकास का मानदंड केवल अच्छा खाने, अच्छा पहनने, आधुनिक दिखने तक सीमित नहीं होता वरन अपने मूल तत्व के साथ अपनी जन्मभूमि पर संतोषजनक कार्य करने से भी विकास संभव है । ग्रामीण क्षेत्र में स्वच्छ जलवायु में रहते हुए हम अपने योग्यता और क्षमता के अनुरूप स्वरोजगार अपना सकते हैं । जागरूक नागरिक अपने अधिकारों का सदुपयोग करके निजी उद्यम खड़ा कर सकता है । विकास के लिए अगर ऐसा मानक अपनाया जाय तो स्वभावतः पलायन पर रोक लगाकर अनियोजित शहरीकरण को नियंत्रित किया जा सकता है ।

एक तरफ भारतीय दर्शन कहता है कि मृत्यु के बाद हमें पुनः जन्म लेना है और उस जन्म में हम कितने प्रकार की बीमारियां भोगेंगे, यह हम खुद ही वर्तमान में पैदा करते जा रहे हैं । वास्तव में इन स्थितियों को गंभीरता से देखते हुए इसपर भारत सरकार को और राज्य सरकारों को एक चुनौती के रूप में लेना ही होगा, इसके अलावा एक नागरिक होने के नाते सभी को प्रश्न करने होंगे, नहीं तो आने वाली स्थिति बहुत भयानक, भयावह संकेत दे रही है । ( लेखक शक्‍ति सौरभ मिश्रा मीडिया शोधार्थी एवं स्‍तम्‍भकार हैं )