ऋतुपर्व फूलदेई:— इस त्यौहार को भूल कर भी नहीं भूल सकते हम, यह पर्व करता है सभी की खुशहाली की कामना

यहां देखें वीडियो राजकीय प्राथमिक स्कूल बजेला में बालपर्व के रूप में मनाया गई फूलदेई,गीता व खुशी की टोकरी रही अव्वल डेस्क— बसंत ऋतु के…

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राजकीय प्राथमिक स्कूल बजेला में बालपर्व के रूप में मनाया गई फूलदेई,गीता व खुशी की टोकरी रही अव्वल

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डेस्क— बसंत ऋतु के आगमन के संदेश के साथ ही सभी की खुशहाली की कामना करने वाला पर्व फूलदेई आधुनिकता की चकाचौंध के बावजूद हमारे संस्कारों में सजीव है। आज भी इस पर्व को लोग हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। शहरी क्षेत्रों में इसका उत्साह कुछ कमतर भले ही हो गया हो परंतु ताजगी पहले की तरह बरकरार है। यह पर्व चैत्र माह की पहली तिथि को मनाया जाता है। नैनीताल के कुछ हिस्से में इसे वैसाख पहली ति​थि को मनाते हैं बावजूद मंशा इसकी वही है सभी की खुशहाली जिसके वाहक बनते हैं नन्हे मुन्ने बच्चे जो अपनी टोकरी या थाली में ताजे फूल ले जाकर सभी की देहरी सजाते हैं और उस परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं। पहाड़ में सभी स्थानों पर इसे धूमधाम से मनाया गया तो मैदानी क्षेत्रों में पहाड़ी प्रवासियों ने इसे हृदय से याद किया भले ही शुभकामनांए देने में सोशलमीडिया का सहारा लिया लेकिन इस पर्व के प्रति उनकी उत्सुकता रही जो मजबूत सांस्कृतिक ​धरोहर के प्रति प्यार का द्योतक है। जिले के अन्य स्थानों पर भी फूलदेई का पर्व धूमधाम से मनाया गया।

राजकीय प्राथमिक विद्यालय बजेला में बालपर्व के रूप में मनाई गई फूलदेई

अल्मोड़ा।

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फूल देई ,छम्मा देई
छम्म छम्म छम्म छम्म
फूल देई ,छम्मा देई
जतुक देला , उतुक सही
देणी द्वार , भर भकार
ये देली स बारम्बार नमस्कार
फूले द्वार ….. फूल देई छम्मा देई।

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राजकीय प्राथमिक विद्यालय बजेला विकासखंड धौलादेवी मे बाल पर्व फूल देई का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया गया पहाड़ की यह अनूठी बाल पर्व की परम्परा है जो मानव और प्रकृति के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतीक है ,सुविधाओं की तलाश में व आधुनिकता के ढोंग में आज हमारे शहरों से तो ये परंपरा समाप्त हो गयी है कारण तो बहुत से है पर एक कारण है लोगो का शहरों की तरफ पलायन और वहाँ पहुँच कर स्वयं को अन्य वर्गों से हीन समझ कर कुंठित जीवन जीना और छद्म बनावटी आधुनिकता का चोगा पहन कर रखना बहरहाल मेरे जैसे ठेठ पहाड़ियों के वहाँ आज भी ये पर्व मनाया जाता है तो देख कर अच्छा लगता है कि कुछ लोग अपनी थाती से ज़ुड़े रहने में ही जीवन का आनंद समझते है, लुप्ति की कगार पर खड़ा यह बाल पर्व अब पहाड़ो मे भी बहुत उत्त्साह से नही मनाया जाता फिर भी शहरों के मुकाबले मे यहाँ उम्मीद बाकी सी लगती है इसे बढ़ावा देना चाहिए फूल देई ही क्यों सभी प्राचीन परम्पराओ को बचाने के लिए आम जन मानस, बुद्दिजीवियों को आगे आना चाइए सरकार को निति तय करनी होगी और स्कूलों मे बच्चों को इस बालपर्व फूलदेई को मनाने के लिए प्रेरित किया जाय व इस परम्परा से संबन्धित लेख या कविताओं को नौनिहालों के पाठ्यक्रम मे शामिल किया जाय ताकि इसे व्यापकता प्रदान हो सके, पुराने पाठ्यक्रम में तो कुछ पाठ थे जो हमारी संस्कृति का परिचय बच्चों से कराते थे बच्चे भी बड़े मजे से उन पाठों का रसास्वादन किया करते थे।
लोगों का मानना है कि एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में इसे स्थान मिलना चाहिए था। जानकारों के अनुसार यदि एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम के साथ साथ उत्तराखंडी संस्कृति से संबंधित कोई पाठ्यपुस्तक भी साथ मे लगी होती तो बहुत बेहतर होता क्योंकि हमारी प्राचीन सांस्कृतिक परम्परायें मुख्य रूप से धर्म और प्रकृति से जुड़ी है यहाँ के हर त्योहार मे प्रकृति का महत्व झलकता है।
विद्यालय के शिक्षक भाष्कर जोशी ने बताया कि विद्यालय में इस पर्व को मनाने का उद्देश्य मात्र इतना था कि बच्चें विद्यालय मे हो रही हर गतिविधि मे कारण ढूढ़ते है ,उन्हें महत्व देतें है और उनमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेतें हैं, विद्यालय सबसे महत्वपूर्ण संस्थाएं है जो लुप्त प्राय से हो चुकी हमारी थाती को पुनः प्राणोर्जित कर सकें ।
इसी क्रम में विद्यालय मे विशेष प्राथना सभा का आयोजन किया गया व बच्चो को फूलदेई परम्परा के बारे मे बताया, बच्चों ने अपने हाथों से फूलों की टोकरियों का निर्माण किया व अपनी अपनी टोकरियों को सजाया तदुपरांत पूरे विद्यालय की देहरीयों को सजाया । इस दौरान गीता व खुशी की टोकरी क्रमशः प्रथम व द्वितीय रही ।

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