शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 21

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है, श्री पुनेठा मूल रूप से…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

 

शिक्षण का माध्यम परिवेश की भाषा ही होनी चाहिए

शिक्षण का माध्यम कौनसी भाषा हो? इस पर विचार करते हुए हमें सीखने-सिखाने की प्रक्रिया पर भी साथ-साथ बात करनी होगी। यह माना जाता है कि सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है आसपास के वातावरण ,प्रकृति ,चीजों व लोगों से कार्य व भाषा दोनों के माध्यम से संवाद स्थापित करना है। बच्चे सुनने,बोलने,पढ़ने,पूछने,उस पर सोचने,विमर्श करने तथा लिखित रूप से अभिव्यक्त करने से सबसे अधिक सीखते हैं। अर्थ से पहले अवधारणा को ग्रहण करते हैं। ये सब क्रियाएं अपनी परिवेश की भाषा में ही सबसे अच्छी तरह संभव हैं। स्कूल में प्रवेश करते समय बच्चे के पास बहुत सारी अवधारणाएं होती हैं जो उसकी अपनी परिवेश की भाषा में ही होती हैं।उसका स्कूल में प्रयोग तभी हो सकता है जबकि वहाँ उसकी परिवेश की भाषा को जगह मिलती है। आपने अनुभव किया होगा कि जब आप पढ़ाते हुए कभी-कभार बच्चों से उनकी बोली में बतियाने लगते हो या उनके घर-गाँव में बोले जाने वाले शब्दों का उच्चारण करते हो तो बच्चों के चेहरे एक अलग सी आभा से चमक उठते हैं। उनके होंठों में मुस्कान बिखर जाती है। ऐसा लगता है जैसे वे आपके एकदम करीब आ गए हैं। कक्षा में चुप्पा-चुप्पा रहने वाले बच्चे भी अपनी चुप्पी तोड़ बतियाने लगते हैं। उन्हें शिक्षक अपने ही बीच का लगने लगता है।विषयवस्तु को वे बहुत जल्दी भी समझ जाते हैं। इससे पता चलता है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषा की क्या भूमिका है?
जैसा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 कहती है कि ’’बच्चों को इस तरह सक्षम बनाया जाना चाहिए कि वे अपना स्वर ढूँढ सकें,अपनी उत्सुकता विकसित करें,स्वयं सीखें,सवाल पूछें,चीजों की जाँच-परख करें और अपने अनुभवां को स्कूली जानकारी के साथ जोड़ सकें।’’ ये सब कब संभव है? जबकि बच्चे के पास अपनी भाषा हो। यदि उसके पास अपनी भाषा ही नहीं है अर्थात विद्यालय ऐसी भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाता है जो बच्चे के परिवेश में मौजूद नहीं है तब बच्चा अपना स्वर कैसे ढूँढ पाएगा ,कैसे अपनी उत्सुकता विकसित करेगा और सवाल पूछेगा, कैसे चिंतन-मनन करेगा? यह माना जाता है कि बच्चे उसी वातावरण में सबसे अधिक सीखते हैं जहाँ उन्हें लगे कि वे महत्वपूर्ण समझे जा रहे हैं। बच्चे को महत्वपूर्ण समझे जाने की शुरूआत उसकी भाषा और अनुभवों को महत्वपूर्ण समझे जाने से ही होती है। उसकी भाषा से परहेज करने का मतलब है उसके अनुभवों को नकारना क्योंकि बच्चा अपने अनुभवों को उसी भाषा में सबसे अच्छी तरह से व्यक्त कर सकता है जो उसने अपने परिवेष से सीखी है। यदि बच्चे को उसकी अपनी भाषा के प्रयोग से रोका जाता है तो वह अपने अनुभवों को व्यक्त नहीं कर पाता है। यह एक तरह की तनाव की स्थिति पैदा कर देता है। हम जानते हैं कि भय और तनाव सीखने में बाधक होता है। गैर-परिवेशीय भाषा बच्चे के लिए बोझ बन जाती है और उसका आनंद जाता रहता है। आज कक्षा को एक ऐसा स्थान माना जाता है जहाँ विवादों को स्वीकार कर उन पर रचनात्मक प्रश्न उठाए जाते हैं तथा बच्चा अपने अनुभवों को अपने शिक्षकों और साथियों के साथ बाँट सकता है।कक्षा ऐसा स्थान तभी बन सकती है जब बच्चे के पास ऐसी भाषा हो जिसका वह सहज-स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल कर सकता हो।

जहाँ तक भाषा के विकास का सवाल है उसके लिए यह जरूरी माना जाता है कि बच्चे को सुनने-बोलने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। जैसा कि हम मातृभाषा सीखने के संदर्भ में भी देखते हैं कि परिवार में बच्चे को भाषा सुनने और बोलने के पर्याप्त अवसर दिये जाते हैं।उससे अधिक से अधिक बात की जाती है।उसे कुछ न कुछ (टूटा-फूटा या आधा-अधूरा ही सही) बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस तरह वह धीरे-धीरे भाषा सहजता से सीख लेता है। जब बच्चे को उसकी परिवेश की भाषा में बोलने से रोका जाता है तो इससे कहीं न कहीं उसकी चिंतन प्रक्रिया बाधित होती है जिसके बिना भाषा का विकास संभव नहीं है। ऐसे बच्चे अपने भावी जीवन में दब्बू और संकोची होते हैं।
सीखने में भी चिंतन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और यह एक परीक्षित तथ्य है कि मनुष्य हमेशा उसी भाषा में चिंतन करता है जिसे शैशवावस्था में वह सार्वधिक सुनता है,जिसको उसके परिवार और पास-पड़ोस में बोला जाता है तथा जिसे उसने अपने बड़ों से अनौपचारिक तौर से सीखा है।
यह अनुभवजनित सत्य है कि बच्चे की सीखने की गति अपने परिवेश की भाषा में ही सबसे अधिक होती है क्योंकि ऐसे में बच्चे का पूरा ध्यान विषयवस्तु पर होता है।उसे भाषा से नहीं जूझना पड़ता है। बच्चा सुनने और बोलने की भाषायी दक्षता अपने परिवेश से ग्रहण कर चुका होता है। यह भाषा किताबी ज्ञान को वास्तविक जीवन से जोड़ने में भी मददगार होती है। जैसा कि यूनेस्को की पुस्तक ‘शिक्षा में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग’ में भी कहा गया है ,‘‘ यह स्वतःसिद्ध है कि बच्चों के लिए शिक्षा का सबसे बढ़िया माध्यम उसकी मातृभाषा है। मनोवैज्ञानिक आधार पर यह सार्थक चिह्नों की ऐसी प्रणाली है जो व्यक्त करने और समझ के लिए उसके दिमाग में स्वयंचालक के रूप में काम करती है,सामाजिक आधार पर जिस जनसमूह के सदस्यों से उसका संबंध होता है उसके साथ एकात्मक होने का साधन है,शैक्षिक आधार पर वह मातृभाषा के माध्यम से एक अनजाने माध्यम की अपेक्षा तेजी से सीखता है।’’ यदि किताबों की भाषा वह नहीं है जो बच्चे के घर व पास-पड़ोस में बोली जाती है तो बच्चे के स्कूली जीवन और बाहरी जीवन के बीच एक रिक्तता बनी रहती है। बच्चा अपने आसपास के अनुभवों को अपनी कक्षा-कक्ष तक नहीं ले जा पाता है। न किताबी ज्ञान से उसका संबंध जोड़ पाता है। उसे हमेशा यह लगता रहता है कि स्कूली जीवन और घरेलू जीवन एक दूसरे से अलग हैं,जबकि शिक्षा को जीवन से जोड़ने और रूचिकर बनाने के लिए जरूरी है कि इस अंतराल को समाप्त किया जाय। परिवेश से दूर की भाषा शिक्षण का माध्यम होने पर उसका प्रभाव बच्चे के बौद्धिक व संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है। इसको नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
यह भी माना जाता है कि बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे अधिक सहायता परिवेशीय भाषा से ही मिलती है। उसमें सोचने और महसूस करने की क्षमता का विकास जल्दी होता है।चिंतनात्मक और सृजनात्मक योग्यता अधिक विकसित होती है। इस संदर्भ में अपने समय के महत्वपूर्ण कवि नरेश सक्सेना को उद्धरित करना चाहूंगा। उनका यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या कारण है कि आजाद भारत में एक भी यानी पिछले 67वर्षों में एक भी विश्वस्तरीय खोज या वैज्ञानिक आविष्कारक हमारे देश में संभव नहीं हुआ? जिसका वे स्वयं तर्कपूर्ण उत्तर देते हैं- ’’हमारे दिमाग मुक्त नहीं हैं,वे गुलामी की भाषा में जकड़े हुए हैं। हम यह साबित कर चुके हैं कि भारत की कोई भी भाषा इस लायक नहीं है कि विज्ञान,तकनीकी,इंजीनियरिंग या किसी भी विषय की उच्च शिक्षा उसमें दी जा सके। हमारे बच्चे यानी मध्यवर्ग के सारे बच्चे इंग्लिश पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। बचपन से ही रटना शुरू कर देते हैं। विषय को अपनी भाषा में पढ़ना ,समझना,सोचना और प्रश्न पूछना…..ज्ञान प्राप्त करने की इस प्राकृतिक प्रक्रिया से वंचित रह जाते हैं।’’दुनियाभर में हुए अध्ययन इस बात को पुख्ता करते हैं कि वे बच्चे जो अपनी शिक्षा परिवेशीय भाषा में आरंभ करते हैं,वे अन्य विषयों और अन्य भाषाओं में उन बच्चों से अधिक अच्छी पकड़ रखते हैं जिन्होंने गैर-परिवेशीय भाषा में अपनी पढ़ाई प्रारम्भ की है।
एक बात और ,परिवेशीय भाषा पर बच्चे का अधिक अधिकार होता है। भाषा पर अधिकार होने का सीधा मतलब है ज्ञान के अन्य अनुशासनों में आसानी से प्रवेश कर पाना। पढ़ने में अधिक आनंद आना। सामान्यतः यह देखने में आता है जिस बच्चे का भाषा पर अधिकार होता है वह अन्य विषयों को भी जल्दी सीख-समझ जाता है। उसके लिए अवधारणाओं को समझना सरल होता है। फलस्वरूप उसके सीखने की गति अच्छी होती है।इतना ही नहीं ऐसा बच्चा अन्य भाषाओं को भी सरलता से सीख पाता है। गैर-परिवेशीय भाषाओं में इसके विपरीत होता है। परिवेश की भाषा के पक्ष में एक सकारात्मक पहलू यह है कि जब बच्चा स्कूल जाना प्रारम्भ करता है उस समय उसके पास अपने आसपास के वातावरण तथा प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन से अपने लिए जरूरी शब्दों का एक छोटा-मोटा भंडार होता है जिनका वह आवश्यकतानुसार प्रयोग करता है।स्कूल उसके इन शब्दों को आधार बनाकर उसके शब्द भंडार में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है। बच्चों में संवेगों,मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण व चारित्रिक गुणों का विकास भी परिवेशीय भाषा में बातचीत से अधिक संभव है। इसलिए जरूरी है कि शिक्षण का माघ्यम बच्चे की परिवेश की भाषा ही होनी चाहिए। कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा तो उसके परिवेश की भाषा में ही होनी चाहिए।
लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि बाजारवाद के दबाब में आज अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बनाने की एक हवा सी चल पड़ी है। कभी हिंदी का झंडा मजबूती से थामे रखने वाली शैक्षणिक संस्थाएं भी एक-एक कर इस हवा में बहती जा रही हैं। निजी विद्यालय तो बाजार की दौड़ में अपने आप को बनाए रखने के लिए अंग्रेजी माध्यम को अपनाने को मजबूर हैं ही लेकिन अब सरकारी स्कूल भी प्रयोग के नाम पर इस दिशा में आगे बढ़ चले हैं। अखबारों में आए दिनों इस आशय की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों और शिक्षकों को लगता है कि सरकारी विद्यालयों की घटती छात्र संख्या का एक बड़ा कारण इनका अंग्रेजी माध्यम का न होना है। यदि यहाँ अंग्रेजी माध्यम शुरू किया जाय तो घटती छात्र संख्या को रोका जा सकता है। हो सकता ह,ै एक हद तक उनका यह अनुमान सही भी सिद्ध हो। अंग्रेजी के प्रति अतिशय मोहग्रस्त मध्यवर्ग इस कदम से कुछ आकर्षित होकर इन विद्यालयों की ओर लौट आए। पर बड़ा सवाल यह नहीं है कि विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो बल्कि उससे बड़ा सवाल है कि इससे बच्चों की सीखने की गति पर क्या प्रभाव पड़ेगा?बच्चे विषयवस्तु को कितना समझ पाएंगे? अपने स्कूली जीवन को उसके बाहर के जीवन से कितना जोड़ पाएंगे? यदि ऐसा नहीं कर पाएंगे तो क्या वह ज्ञान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे?या फिर उनका मस्तिष्क सूचनाओं और जानकारियों का बैंक मात्र बनकर रह जाएगा?इन गम्भीर और जरूरी सवालों पर कहीं कोई विचार-विमर्श नहीं दिखाई देता है। सभी बाजार द्वारा प्रायोजित अंधी दौड़ में दौड़ते जा रहे हैं।अंग्रेजी का भूत इस कदर हावी हो गया है कि सीखने-सीखाने के बुनियादी सिद्धांतों को ही भूल गए हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में सरकारी स्कूलों में जाने वाले अधिकांश बच्चे ऐसे परिवेश से आते हैं जहाँ अंग्रेजी उनके लिए पूरी तरह एक विदेशी भाषा है। जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम स्थानीय बोली/भाषा है।संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएं भी उनके लिए दूसरी भाषा है। जब बोली से दूसरी भाषा तक आना भी उनके लिए बहुत कठिन होता है।दूसरी भाषा में पढ़ा-लिखा भी वे बहुत कठिनाई से समझ पाते हैं (जबकि वह भाषा कहीं न कहीं उनके परिवेश में मौजूद होती है।) ऐेसे बच्चे जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाएंगे ,तब वह विद्यालय में अपने आपको कितना सहज महसूस करेंगे , उनका कक्षा में कितना मन लगेगा और विषयवस्तु को कितना समझ पाएंगे? ये विचारणीय प्रश्न हैं।कहीं भाषा का यह वैरियर उन्हें स्कूल से ही दूर न कर दे।जिन बच्चों के लिए अपनी ही परिवेश की भाषा में विषयवस्तु को समझना कठिन होता है तो समझा जा सकता है कि यदि एक विदेशी भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाया जाएगा तो उनकी समझ में कितना आएगा। कैसे वह प्राप्त जानकारी के आधार पर ज्ञान का निर्माण कर पाएंगे तथा नया रच पाएंगे? परिवेश से दूर की भाषा में बच्चा जानकारियों,तथ्यों,सूचनाओं को केवल रट सकता है और रटने से ज्ञान निर्माण संभव नहीं है और न ही रचनात्मकता।आज अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे ऐसे बच्चों को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जिनके परिवेश में अंग्रेजी नहीं है।
सरकारी विद्यालयां में भी अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने पर ऐसे बच्चे जो फर्स्ट जनरेशन लर्नर हैं ,उनकी सीधे शिक्षा की धारा से बाहर होने की संभावना बढ़ जाती है। वे साक्षर हो सकते हैं शिक्षित नहीं। उन्हें विभिन्न उत्पादों या सेवाओं के अंग्रेजी में लिखे विज्ञापन पढ़ने भले आ जाएं लेकिन उनकी सही पहचान नहीं कर पाएंगे।कुछ बच्चों को अवश्य इसका लाभ हो सकता है लेकिन बड़ी संख्या इसका खामियाजा भुगतेगी। उनके लिए पढ़ाई पहाड़ बन जाएगी।उन्हें कुछ भी समझ नहीं आएगा।पढ़ाई-लिखाई ऊब पैदा करेगी। ऐसे में सोचा जा सकता है कि सीखने की प्रक्रिया और गति कितनी आगे बढ़ पाएगी। यह हो सकता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाय तो बच्चा एक लंबे अंतराल बाद अंग्रेजी भाषा तो सीख जाय परंतु विषयवस्तु पर उसकी पकड़ उतनी गहरी नहीं हो पाएगी जितनी अपने परिवेश की भाषा के माध्यम से पढ़ने में। जो समय तथा श्रम बच्चे को विषयवस्तु की गहराई में उतरने में लगना चाहिए वह अंग्रेजी भाषा सीखने में लग जाएगा।
अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बनाने से अधिक आवश्यक यह है कि अंग्रेजी भाषा के शिक्षण को बेहतर और वैज्ञानिक बनाया जाय।समय चक्र में उसे अधिक समय दिया जाय। अंग्रेजी को परिवेशीय भाषा में न पढ़ाकर अंग्रेजी की कक्षा का वातावरण ऐसा बनाया जाय जिससे बच्चा आसानी से उस भाषा को सीख सके।दूसरी या तीसरी भाषा सीखने का जो खौफ बच्चे के भीतर होता है वह समाप्त हो सके। इसके लिए हमारे पास अंग्रेजी सीखाने का एक मॉडल होना चाहिए।उसे यांत्रिक तरीके से नहीं सिखाया जाना चाहिए। यह कैसी बिडंबना है कि तथाकथित अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी भी हिंदी माध्यम से पढ़ायी जाती है।हिंदी माध्यम के स्कूलों की बात ही क्या कहें। अंग्रेजी में प्रवीणता हासिल करने के लिए शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी करना कतई जरूरी नहीं है। इसके दुष्परिणामों के बारे में पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला के प्रोफेसर जोगा सिंह अपने एक शोध पत्र में लिखते हैं कि-‘‘जब से भारत के स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम का प्रचलन बढ़ा है,उसके बाद की स्थिति का अगर लेखा-जोखा लिया जाए तो एक भयावह दृश्य के दर्शन होते हैं। अंग्रेजी माध्यम के प्रचलन से भाषाई अपंगों की एक पीढ़ी खड़ी हो रही है जो किसी भाषा में पारंगत नहीं है। मातृभाषा तो यह पीढ़ी इसलिए अच्छी तरह नहीं सीख पा रही है क्योंकि इसे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाया जा रहा है। इस पीढ़ी के बच्चों की अंग्रेजी का अच्छा विकास इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी बच्चा जो आरंभ में विदेशी भाषा माध्यम से पढ़ता है उसके भाषागत सामर्थ्य का विकास ही अच्छा नहीं हो पाता। ऐसे में वह कोई भाषा भी अच्छी तरह नहीं सीख पाता।’’
अंत में एक बात और,आज अंग्रेजी को सफलता की भाषा माना जाता है।समाज के हर तबके के मन में यह बात गहरे तक पैठी है।बाजार द्वारा इस भ्रम को हवा देने का काम किया जा रहा है।अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का व्यापार करने का बहाना बन गई है। पर ऐसा नहीं है ,सफलता के सूत्र भाषा में नहीं बौद्धिक क्षमता में छुपे होते हैं और यह किसी भाषा की मुहताज नहीं होती है। उल्लेखनीय है कि रूस,जर्मनी,फ्रांस,सिंगापुर,कोरिया,जापान,चीन,हांगकांग आदि देशों ने जो उच्चतम वैज्ञानिक खोजें की हैं वे अंग्रेजी भाषा के बगैर की हैं। आज यह भी सुनने में आता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े युवाओं के पास रोजगार के अवसर अधिक हैं।यह आंशिक रूप से सत्य हो सकता है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि जब सभी बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर निकलने लगेंगे तब भी क्या यही स्थिति होगी? न ज्ञान और न नौकरी ही किसी भाषा की मुहताज है। हमें इन गलत धारणाओं से मुक्त होना होगा।
जारी ……………………………