शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 15

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

आवश्यकता है शिक्षा को जीवनोन्मुखी बनाने की

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 15

 

आज शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है उसका जीवनोन्मुखी न होकर परीक्षोन्मुखी होना। सभी का जोर परीक्षा पास करने या परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे शिक्षा परीक्षा के लिए है न कि जीवन के लिए। शिक्षक हों या अभिवावक या फिर विद्यार्थी सभी का परम लक्ष्य परीक्षा में बेहतर से बेहतर परिणाम प्राप्त करना मात्र रह गया है। पूरी शिक्षा परीक्षा केंद्रित हो चुकी है, जिसके कारण पूरा वातावरण घोर गलाकाट प्रतिस्पर्धा से भर गया है।
शिक्षक, शिक्षण इस तरीके से करते हैं जिससे कि बच्चे परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त कर सकें। यही चाह अभिभावकों की भी रहती है। बच्चे तो फिर बच्चे हैं, अध्यापकों और अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं के हाथों कैद। परीक्षा के अलावा किसी अन्य चीज के बारे में सोचना बच्चों के लिए संभव ही नहीं। परीक्षा ने बच्चों को महज किताबी कीड़े बना दिया है। शिक्षा का मतलब किताबी ज्ञान हो गया है। किताब भी केवल वह जो पाठ्यपुस्तक के रूप में लागू हो। पाठ्यपुस्तक के अलावा अन्य पुस्तक पढ़ना समय की बर्बादी मानी जाती है। शिक्षक और छात्र देनों के लिए पाठ्यपुस्तक ही पाठ्यचर्या हो गयी है। शिक्षक वही पढ़ाते हैं और विद्यार्थी वही पढ़ना चाहते हैं जो परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हो। परीक्षा में प्रदर्शन के आधार पर ही शिक्षा तथा शैक्षिक संप्राप्ति का मूल्यांकन किया जा रहा है, जिसमें सबसे अधिक बल लिखित परीक्षा को दिया जा रहा है। सभी परीक्षा को साधने में लगे हैं। बच्चे को विषय की समझ कितनी गहरी है? वह सीखी हुई विषयवस्तु को अपने जीवन की बदली परिस्थितियों में कितना क्रियान्वित कर सकता है? विषयवस्तु को सीखने के बाद उसके व्यक्तित्व में कितना सकारात्मक परिवर्तन आता है? वह कितना बेहतर इंसान या नागरिक बन पाता है? इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जानकारियों को रटना और परीक्षा में उन्हें हू-ब-हू उतार देना सीखने का पर्याय होता चला गया है, फलस्वरूप शिक्षा जीवन से कट चुकी है। जबकि जरूरी यह है कि बच्चे चीजों को समझें। चीजों को करने के रचनात्मक और नए तरीके सोंचें। उनमें क्षमता होनी चाहिए कि अपनी समझ और ज्ञान को नई समस्याएं सुलझाने में इस्तेमाल कर पाएं । किसी घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से आंककर उसके बारे में मन बना पाएं और समस्याओं का विश्लेषण करके उन्हें हल करने के लिए नए रचनात्मक तरीके सोच पाएं। लेकिन अधिकांश परीक्षाओं में इस क्षमता को नहीं जाँचा जाता है। शिक्षा संबंधी दस्तावेजों में निहित ’जीवन के लिए शिक्षा‘ एक मुहावरा मात्र बन कर रह गया है। ज्ञान की दो दुनिया बना दी गयी हैं एक स्कूली ज्ञान और दूसरा बाहरी जीवन का ज्ञान। ऐसा वातावरण तैयार कर दिया गया है जैसे कि स्कूल का ज्ञान बाहरी जीवन के ज्ञान से श्रेष्ठ और अलग है। स्कूली ज्ञान से ही जीवन की सफलता-असफलता निर्धारित होती है तथा स्कूली ज्ञान परीक्षा से नियंत्रित है।
बच्चों के पास ख्ेलने का समय ही नहीं उनकी जिंदगी तो यूनिट टेस्ट, वार्षिक परीक्षा और जैसे कि वे काफी न हो, बोर्ड परीक्षा के आतंक एवं अन्य अनगिनत प्रतियोगी परीक्षाओं से नियंत्रित रहती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे जीवन प्रतियोगिता के लिए ही बना है। बस दौड़ते रहे हो कहीं कोई दूसरा आपसे आगे नहीं निकल जाए। साथ-साथ मिलकर आगे बढ़ने की तो कहीं कोई बात ही नहीं। बच्चे का परीक्षाओं में प्रदर्शन माँ-बाप से मिलने वाले प्यार की कसौटी बन गई है।
परीक्षा का इतना महत्वपूर्ण होना शिक्षा का नौकरी के हित होने से जुड़ा है। जहाँ से यह सोच विकसित हुई कि शिक्षा इसलिए प्राप्त की जाए ताकि पढ़-लिखकर आने वाले समय में अच्छी नौकरी मिल सके। वहीं से शिक्षा का उद्देश्य संकुचित हो गया। अच्छी नौकरी का मतलब भी ऐसी नौकरी से है जिसमें वेतन ऊँचा हो और शारीरिक श्रम कम से कम। आज प्रत्येक अभिभावक की जद्दोजहद है कि वह अपने पाल्य को ऐसी शिक्षा दिलवा सके जिससे उसे ऊँचे वेतन वाली नौकरी मिल सके। जब पढ़ने-लिखने के बाद ऐसा नहीं हो पाता है तो वे शिक्षा को गरियाने लगते हैं। उनको लगता है उन्होंने अपने पाल्य को शिक्षा दिलवाकर समय और धन का अपव्यय किया। औपनिवेशक काल में लिखित परीक्षा में फेल हो जाने का मतलब था सरकारी नौकरी के साथ जुड़े सामाजिक रुतबे और वेतन के साथ आर्थिक दृष्टि से सुरक्षित जीवन जीने से वंचित हो जाना, आज भी वही मानसिकता हावी है। यह ठीक है कि शिक्षा रोजगार का जरिया बने पर शिक्षा केवल रोजगार के लिए हो यह बात कुछ गले नहीं उतरती।
शिक्षा का नौकरी के हित होना और परीक्षा में प्राप्त अंकों के द्वारा उसकी गुणवत्ता का निर्धारण होना ही वे कारण हैं, जिनके चलते बाजार ने शिक्षा को मुनाफे का माध्यम बना लिया है। आज बाजार अलग-अलग गुणवत्ता वाली शिक्षा को लेकर उपस्थित हो रहा है। कम पैसे वालों के लिए अलग शिक्षा है और अधिक पैसों वालों के लिए अलग तरह की। ’जिसकी आर्थिक हैसियत जैसी है वैसी शिक्षा खरीद ले‘, यह बाजार का अघोषित ऐलान है। ट्यूशन या कोचिंग नए धंधे के रूप में अस्तित्व में आया है। अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर इनसे जुड़े संस्थान विद्यार्थियों और अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। ’कुंजी‘ और ’गाइड‘ छापने वालों का धंधा खूब फल-फूल रहा है। सभी का जोर एक ही बिंदु पर है कि कैसे परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त किए जा सकते हैं? सभी यही तरकीब बताने में लगे हुए हैं। बच्चों को सांस लेने की फुरसत नहीं है। एक अंधी दौड़ में सभी दौड़ रहे हैं। जो सफल हो गए वे अपने आप को सिकंदर समझ रहे हैं और जो पीछे रह जा रहे हैं वे कुंठा ,तनाव ,अवसाद से ग्रस्त हो आत्महत्या कर रहे हैं या मानसिक संतुलन खो रहे हैं। यदि शिक्षा परीक्षोन्मुख नहीं होती और उसको प्राप्त करने का एकमात्र उद्देश्य नौकरी की प्राप्ति न होता तब क्या बाजार इसका इतना लाभ उठा पाता?यह विचारणीय प्रश्न है।
इधर बच्चों में परीक्षा के बोझ को कम करने की बात की जा रही है । कहा जा रहा है कि परीक्षा को ’चाइल्ड फ्रेंडली’ बनाया जाय। इस दिशा में एक कदम के रूप में सी.बी.एस.सी. द्वारा हाईस्कूल की परीक्षा में बोर्ड परीक्षा को वैकल्पिक तथा अंकों के स्थान पर ग्रेड पद्धति को लागू किया गया है। पाठ आधारित और क्विज परीक्षा की विधि को बदलने की बात की जा रही है। यह माना जा रहा है कि इससे बच्चों पर परीक्षा का तनाव कम होगा। पर यहाँ एक सवाल खड़ा होता है कि जब तक परीक्षा से बच्चे के स्तर का निर्धारण होता रहेगा या फिर उसे वर्गीकृत किया जाता रहेगा और यह स्तर या वर्गीकरण उसके जीवन को पग-पग पर प्रभावित करता रहेगा, यही जीवन में सफलता-असफलता का मानक बना रहेगा तब तक भला बच्चा उससे निरपेक्ष कैसे रह सकता है? फिर यह स्तर का निर्धारण या वर्गीकरण अंकों के द्वारा हो या ग्रेड द्वारा इससे क्या अंतर पड़ता है? परीक्षा का संबंध जब तक पास-फेल और स्तरीकरण या वर्गीकरण से रहेगा तब तक क्या तनाव समाप्त हो पाएगा? यह एक यक्ष प्रश्न है। परीक्षा प्रतिस्पर्द्धा को भी जन्म देती है प्रतिस्पर्द्धा तनाव का कारण बनती है। एन.सी.एफ.2005 में स्कूलों में प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त करने की बात कही गई है पर जब तक समाज में यह प्रतिस्पर्द्धा समाप्त न हो जाए तब तक स्कूलों में कैसे हो सकती है। प्रतिस्पर्द्धा पूँजीवादी व्यवस्था का मूल्य है। यह कहा जा रहा है कि शिक्षा को अपनी प्रक्रिया और मूल्यांकन में सफलता और प्रतिस्पर्धा के बजाय सहभागिता, सार्थकता और आत्मावलोकन को महत्व देना चाहिए और यह तभी हो सकेगा जब ज्ञान की प्रतिष्ठा उपयोगिता के कारण नहीं, बल्कि आनंद तथा सामाजिक प्रतिबद्धता की वजह से हो। पर जिस व्यवस्था का मूल मंत्र ही प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिगत सफलता हो ,क्या उससे आशा की जा सकती है कि वह सहभागिता, सार्थकता, आत्मावलोकन तथा आनंद को महत्व देगी? इस पर समय रहते सोचे जाने की जरूरत है। शिक्षा को यदि बाजार के मकड़जाल से मुक्त करना है तो जरूरी लगता है कि इसे परीक्षोन्मुखी के बजाय जीवनोन्मुखी बनाया जाय। शिक्षा परीक्षा के लिए न हो बल्कि परीक्षा शिक्षा के लिए हो जैसे कि परीक्षण स्वास्थ्य के लिए होता है न की स्वास्थ्य परीक्षण के लिए। परीक्षा बच्चे के मूल्यांकन के लिए न होकर शिक्षण पद्धति के मूल्यांकन एवं उसमें सुधार के लिए होनी चाहिए। परीक्षा से प्राप्त परिणामों से बच्चों को वर्गीकृत न किया जाय बल्कि सीखने के कठिन स्थलों का पता लगाया जाय ताकि उन पद्धतियों को विकसित किया जा सके जिससे सीखने की प्रक्रिया सरल और रोचक हो सके जिससे अंततः बच्चा ज्ञान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ सके। परीक्षा लिए जाने का तरीका कुछ ऐसा होना चाहिए कि बच्चे को इस बात का पता भी न चले कि उसकी परीक्षा ली जा रही है। परीक्षा के तनाव को कम किया जा सके इस दृष्टि से एन.सी.एफ. 2005 के ये सुझाव उल्लेखनीय हैं- ’’परीक्षा हॉल में कागज कलम से ली गई परीक्षा के अलावा मूल्यांकन के बहुविध रूप होने चाहिए। मौखिक परीक्षा और समूह कार्य मूल्यांकन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। खुली-पुस्तक परीक्षा और लचीली समय सीमा परीक्षा को देश भर में प्रायोगिक तौर पर लागू किए जाने की जरूरत है। इस तरह की शुरूआत से स्मृति आधारित परीक्षा से कुछ उच्च योग्यताओं की परीक्षा का मार्ग प्रशस्त होगा, जैसे-व्याख्या, मूल्यांकन और समस्या सुलझाना। विद्यार्थियों को उतने ही पत्रों की परीक्षा देने का अधिकार हो जितने की तैयारी हो। तीन साल के दौरान परीक्षा पूरी हो सके। इसको माँग पर परीक्षा प्रणाली के रूप में विकसित किया जा सकता है, जिसमें छात्र तभी परीक्षा दे जब वे समझे कि उसके लिए तैयार हैं।’’ कुल मिलाकर अभी परीक्षा को लेकर बहुत अधिक सोच-विचार करने की आवश्यकता है।