अल्मोड़ा के पाटिया गांव में आज खेली जाएंगी बग्वाल

सैकड़ो वर्ष पुरानी परंपरा है पाटिया में खेली जाने वाली बग्वाल हर्षवर्धन पाण्डेय अल्मोड़ा । ताकुला विकासखण्ड के ऐतिहासिक गांव पाटिया में आज बग्वाल के…

patiya-ki-bagwal

सैकड़ो वर्ष पुरानी परंपरा है पाटिया में खेली जाने वाली बग्वाल

हर्षवर्धन पाण्डेय

अल्मोड़ा । ताकुला विकासखण्ड के ऐतिहासिक गांव पाटिया में आज बग्वाल के मौके पर बग्वाल का आयोजन होगा। क्षेत्र में सदियों से चली आ रही बग्वाल खेलने की प्रथा इस बार भी पूरे रश्मो रिवाज के साथ मनाने की तैयारिया चल रही है। इस बग्वाल में चार गांव के योद्धा हिस्सा लेकर सदियों पुरानी परम्परा को कायम रखते हुए पत्थर युद्ध खेलते है । कुछ अन्तराल चला यह तक युद्ध किसी पक्ष के बग्वाल खेल रहे योद्धा द्वारा नदी में पानी पीने के बाद शांत हो जाती है।

पाटिया क्षेत्र के पचघटिया में खेले गये इस बग्वाल में पाटिया, भटगांव , जाखसौड़ा और कसून के ग्रामवासी हिस्सा लेते हे। और इसे देखने के लिये क्षेत्रा के दर्जनों गांवों के लोग आते है। पाटिया और कोट्यूड़ा के बीच मूलतः खेले जाने वाले इस युद्ध में कोटयूड़ा के साथ कसून और जाखसौड़ा तथा पाटिया के साथ भटगांव के योद्धा भाग लेते है।

BAGWAL
पाटिया की बग्वाल का एक दृश्य ( फाइल फोटो )

पत्थर युद्ध का आगाज पाटिया गांव के अगेरा मैदान में गाय खेत में गाय की पूजा के साथ होता है। पर मान्यता के अनुसार पिलख्वाल खाम के लोगो ने चीड़ की टहनी खेत मे गाड़कर बग्वाल की अनुमति मांगते है । इसके बाद स्थानीय पचघटिया (नदी का नाम ) के दोनो ओर से दोनो दल एक दूसरे के ऊपर पत्थर फेंकते है। और दोनो पक्षों में पहले नदी में जाकर पानी पीने के लिये संघर्ष होता है। किसी एक पक्ष के व्यक्ति के नदी में जाकर पानी पी लेने के बाद यह बग्वाल समाप्त हो जाती है। इसके बाद बग्वाल खेल रहे लोग एक दूसरे को बधाई देकर अगले वर्ष फिर बग्वाली के दिन मिलने का वादा कर विदा लेते है।

प्राचीन समय में केवल ठाकुर (क्षत्रिय) लोगों द्वारा इस बग्वाल को खेला जाता था लेकिन अब समय बीतने के साथ ही हर जाति का व्यक्ति और युवा इस पत्थर युद्ध में पूर जोशों खरोश के साथ शिरकत करता है। यह पत्थर युद्ध कब से और क्यों खेला जा रहा है इस बारे में नयी और कुछ पुरानी पीढ़ी को भी बहुत अधिक पता नहीं है लेकिन पुरखों की इस परम्परा को निभाने के लिए आज भी लोग पूरा समय देते हैं।

सम्बन्धित क्षेत्र के युवाओं में पिछले कई दिन से इस युद्ध के आयोजन के लिए तैयारी शुरू हो जाती है। मान्यता है कि सैकड़ो वर्षो पूर्व किसी आतताई को भगाने के लिए देनो गावों के लोगों ने एकजुट होकर उसे पत्थरों से भगाया था। और बाद में उसके भाग जाने और पानी पीने की मोहलत देने के अनुरोध पर ही गांव वाशि्यों ने उसे छोड़ा था। हालाकिं नई पीढी इस कहानी के बारे में भी ज्यादा नहीं जानती है। पत्थर युद्ध नदी के दोनां छोरों से खेला जाता है और जिस टीम का व्यक्ति सबसे पहली पानी पीने पहुंच जाता है वही टीम विजयी घोषित हो जाती है। इसके साथ ही युद्ध का समापन हो जाता है। इस युद्ध की सबसे बढ़ी खासियत यह है कि युद्ध के दौरान पत्थरों से चोटिल हो जाने वाला योद्धा किसी दवा का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि बिच्छू घास के उबटन को घाव पर लगाया जाता है।

पूर्वजों के दौर से चली आ रही यह परिपाटी जारी है लेकिन युद्ध का आगाज कब से और किस कारण हुआ इस बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। यहां पर यह भी बताना जरूरी है कि सदियों से आपसी आयोजन से चल रही इस परम्परा को उभारने और चम्पावत के देवीधूरा की तर्ज पर इसका प्रचार प्रसार करने के लिये प्रषासन द्वारा कोई ठोस पहल नहीं की जा सकी है इसीलिए यह आयोजन प्रसिद्धि नहीं पा सका।

कैसे पहुचें पाटिया

यदि आप अल्मोड़ा के आसपास रहते है और इस पत्थर युद्ध के गवाह बनना चाहते है। तो चले आईये पाटिया। अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 18 किमी दूरी पर स्थित पाटिया गांव में जाने ​के लिये अल्मोड़ा ताकुला मोटर मार्ग में बाई तरफ को सुन्दरपुर से एक सड़क सीधे आपको पाटिया पहुचायेंगी।