युद्व के इतर भी है ये जिंदगी..

वरिष्ठ पवत्रकार केशव भट्ट की फेसबुक वाँल से साभार :- पांचेक साल पहले आशुतोषदा अपने पिटारे से कई सारी डाक्यूमैंट्री फिल्म दे गए. उनमें से…

वरिष्ठ पवत्रकार केशव भट्ट की फेसबुक वाँल से साभार :-

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पांचेक साल पहले आशुतोषदा अपने पिटारे से कई सारी डाक्यूमैंट्री फिल्म दे गए. उनमें से एक ईरानी मूवी, ‘बशु द लिटिल स्ट्रेंजर’ देखी तो उसके बाद इस फिल्म को कई बार देख चुका हूं. अरबी और उत्तरी ईरान की गिलकी भाषा में बनी यह डाक्यूमैंट्री फिल्म अपने में अदभुत है. दो देशों में चल रहे युद्व के बीच लोगों में बची इंसानियत को इस फिल्म के माध्यम से बखूबी मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. मेरे पास की इस फिल्म में संवाद मूल अरबी और गिलकी भाषा में ही हैं. बावजूद उसके इस फिल्म को देखने में मेरे लिए भाषा दीवार बनी ही नहीं. हकीकत और मासूमियत से भरी यह गंभीर फिल्म ‘युद्व’ के बारे में दुनियां से कई सारे सवाल खड़े कर जाती है.
बहराम बीज़ाई द्वारा लिखी और निर्देशित इस फिल्म का निर्माण 1986 में किया गया और 1989 में इसे रिलीज़ किया गया. फिल्म की शुरूआत एक घर में युद्वक विमानों द्वारा बमबारी करने से होती है. ईरान-इराक युद्ध के दौरान ईरान के दक्षिण में, खुज़ेस्तान प्रांत का एक ईरानी बालक इस बमबारी में बच जाता है. उसके मॉं-बाप और घर गांव वाले बमबारी में मारे जाते हैं. दहशत में वो भागता रहता है और उत्तर दिशा में एक मालवाहक ट्रक में छुप जाता है. सुबह सरहद पार होने के बाद एक जगह ट्रक रूकने पर उसकी नींद खुलती है. बाहर निकलने पर वो अपने को अजनबी जगह में पाता है. दूर कुछ घरों को देख सहमा हुवा छुपते हुवे वो खेतों की ओर निकल जाता है. ये खेत ‘नाहि’ नाम की एक गरीब महिला के हैं, जिसके दो छोटे बच्चे हैं. बशु पर नजर पड़ने पर ‘नाहि’ उसे भगाने की कोशिश करती है लेकिन बाद में उसे उस पर दया आ ही जाती है. वो उसे बुलाती है, पकड़ने की कोशिश भी करती है लेकिन डरा हुवा बशु भाग जाता है तो वो एक बर्तन में उसके लिए दूर खाना रख देती है. ​
फिल्म धीरे-धीरे अपनी ओर खींचती सी महसूस होती है. ‘नाहि’ बशु को पकड़ने में कामयाब हो जाती है और उसे अपनी गिलकी भाषा में बतियाने लगती है. बशु चुप ही रहता है. उसे कुछ भी समझ में नहीं आता है. युद्व में तबाह हो चुके अपने परिवार की त्रास्दी उसके जेहन से निकल नहीं पाती है. आसमान में उड़ते बाज से भी उसे यही डर लगा रहता है कि कहीं ये आग न बरसा दे. अकसर अस्पष्ट सा अपने परिवार को भी वो महसूस करते रहता है. शुरूआत में ‘नाहि’ बशु को लेकर असमझस में सी रहती है, धीरे-धीरे ‘नाहि’ का बशु के प्रति आत्मीय हो जाने के बाद बशु उसे मॉम पुकारना शुरू कर देता है. अब बशु परिवार का सदस्य बन जाता है. लेकिन ये सब गांव वालों को ठीक नहीं लगता है दुश्मन देश का यह लड़का ‘नाहि’ की शरण में रहे. गांव वाले ‘नाहि’ को इसके लिए ताने मारते हैं. गांव वाले बशु की सांवली त्वचा और उसकी अलग तरह की भाषाओं के बारे में टिप्पणी करते हैं. गांव वाले उसे एक चोर और बीमार शगुन बताते हैं, लेकिन ‘नाहि’ मासूम बाशु के लिए अडिग रह गांव वालों को काफी खरीखोटी सुना देती है.
गाँव वालों के अलावा स्कूल के बच्चे बशु के सांथ मारपीट भी करते हैं. बच्चों में से एक बशु को जमीन पर गिराता है. बशु को सामने दो चीजें दिखती हैं, एक पत्थर और दूसरी ओर एक किताब. बाशु किताब को पकड़ लेता है और एक राष्ट्रवादी फ़ारसी लाइन पढ़ता है, ‘हम ईरान के बच्चे हैं, और ईरान हमारा देश है.’ सामने बच्चों द्वारा खेलखेल में बनाए गए एक खिलौने रूपी मकान में वो पत्थर मारता है जो भरभराकर गिर जाता है. बच्चे उसके सांथ हुवी त्रासदी को समझ जाते हैं और अंतत: सभी बच्चे बशु के सांथ घुल-मिल जाते हैं.
बशु की अरबी तथा ‘नाहि’ और उसके बच्चों की गिलकी भाषा हांलाकि संवाद करने में थोड़ा परेशानी तो पैदा करती है लेकिन प्रेम की भाषा में ये दीवार भी गिर जाती है.
बशु के बीमार होने पर ‘नाहि’ उसकी जिस तरह से सेवा करती है उसे बशु बखूबी महसूस करता है और एक बार ‘नाहि’ के बीमार पड़ने पर वो उसकी दिल से सेवा करते हुए रो पड़ता है. वो ‘नाहि’ के ठीक होने के लिए ढोल तक पीटता है.
‘नाहि’ एक ममतामयी मॉं है जिसके मन हर किसी के लिए प्यार है. उसे पशु-पक्षियों से भी उन्हीं की आवाज में नकल करते देख बशु काफी प्रभावित होता है. अब बशु उसके सांथ खेत की रखवाली के लिए जाता है. उसके हर काम में उसका हाथ भी बंटाता है. गांव के मास्टरजी से ‘नाहि’ अपने पति को भी चिट्ठी लिखवाते रहती है और पति के पत्र आने पर उनसे ही पढ़वाती भी है. ‘नाहि’ उसके दो छोटे बच्चे और बशु कई सारी परेशानियों के बावजूद भी अपनी दुनियां में मग्न रहते हैं.
इस पूरी फिल्म के दौरान, बशु अपने मृत परिवार के सदस्यों के दर्शन करता है, जिससे वह भटक भी जाता है. ‘नाहि’ का पति बाहर किसी के वहां नौकरी करता है, जो कि अंत में बिना पैंसे और दाहिना हाथ गंवा के घर लौटता है. बाशु को दखे वो ‘नाहि’ से इस बारे में बहस करता है कि उसने बशु को उसकी मर्जी के खिलाफ रखा है. इस पर बशु अपने बचाव के लिए आता है और उन्हें खुद को पहचानने के लिए चुनौती जैसा देता है. इस पर ‘नाहि’ का पति बशु को बताता है कि वह उसका पिता है, और इस एहसास पर, वे एक-दूसरे को गले लगाते हुए रोते हैं जैसे कि वे हमेशा एक ही परिवार का हिस्सा रहे हों. फिल्म पूरे परिवार के साथ उनके खेतों की ओर भागने के दृश्य से खत्म होती है, जिसमें बच्चे भी शामिल होते हैं, खेतों से जानवरों को डराने-भगाने के लिए एक साथ शोर करते हुए…
ये डाक्यूमैंट्री फिल्म एक तरह से स्पष्ट संदेश देती महसूस होती है कि, युद्व भयावहता
ही पैदा करता है, मानसिक और शारीरिक रूप से.. युद्व किसी भी परेशानी को हल करने का अंतिम विकल्प भी नहीं है..
और आज के वक्त में तो बिल्कुल भी नहीं
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वरिष्ठ पत्रकार केशव भट्ट की फेसबुक वाँल से साभार