लोककथा यात्रा का एक अभिनव प्रयोग भाग — 3

लोककथा यात्रा का एक अभिनव प्रयोग भाग — 3 दूसरे भाग से आगे पथरौली गाँव में भी पहली मुलाकात युवा ग्राम प्रधान हरीश भट्ट जी…

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लोककथा यात्रा का एक अभिनव प्रयोग भाग — 3

दूसरे भाग से आगे

पथरौली गाँव में भी पहली मुलाकात युवा ग्राम प्रधान हरीश भट्ट जी से हुई। एक घर की छत पर धूप में कुछ कुर्सियाँ और दरी बिछी थी। आशल-कुशल के बाद हमने अपने यात्रा के उद्देश्य बताए। इस चौपाल में कथा कथन की शुरूआत हमारे शिक्षक साथी चिन्तामणि जोशी ने एक किसान और भूत की कथा सुनाकर की। कहानी में भूत के वीभत्सकारी व भवायह चरित्र को बहुत छोटा और एक मानव की युक्तियों से हारने वाला बनाया गया है। किसान अपनी सूझबूझ से भूत को भी अपने साथ खेती के काम में लगा देता है। कहानी के बीच उन्होंने भूतों के अस्तित्व पर भी बात की।

लोककथाओं में इस तरह की अपार गुंजाइश रहती है। ये कथाएं किसी का काॅॅपीराइट भी नहीं होती। इन कहानियों में अपनी जरूरत के अनुसार संसोधन या थोड़ी बहुत छेड़छाड़ कर शिक्षणोपयोगी भी बनाया जा सकता है। हालाँकि कथाएं विशुद्ध मनोरंजन के लिए ही होती हैं। मनोरंजन के साथ नई पीढ़ी जो अर्जित करती है वह बहुत महत्वपूर्ण होता है। इनके जरिए संस्कृति, संस्कार और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण होता है। किसी कहानी को सुनना, सुनकर समझना भी एक महत्वपूर्ण भाषाई कौशल होता है। बच्चे बहुत ध्यान से इन कहानियों को सुनते हैं।

कथा चौपाल में बैठे बच्चे पूरी कथा के दौरान सक्रिय दिखाई दिए। आसाम राइफल्स से सेवानिवृत्त रमेश चन्द्र बरना के बारे में पता चला कि उनके पास ऐसी किस्से-कथाओं का भण्डार रहता है। उन्होंने दो भाइयों की एक कथा से शुरूआत की। देवलथल स्कूल से बारहवीं पास छात्र योगेश चन्द्र बड़ लगातार दीवार पत्रिका के संपापदन व लेखन का काम करता रहा है। भाषा और संस्कृति से दीवार पत्रिका के जरिए अपने लगाव के कारण उसने अपने क्षेत्र की लोककथाओं को सुनने और इकट्ठा करने के लिए काम किया है। उसने भी कथा चौपाल में दो लोक कथाएं प्रस्तुत की। आमा नन्दा देवी चौपाल के बिल्कुल एक किनारे पर बैठी थीं। उन्हें कथा सुनते हुए देखकर उनके हाव-भाव से लग रहा था कि उनके पास भी कथाएं हो सकती हैं। बहुत देर बाद वे एक कथा सुनाने को तैयार हो पायीं। कथा दो भाइयों की थी। एक के गले में पाँच गान थे और दूसरे के गले में तीन गान थे। उनकी कथा बच्चों को बहुत पसन्द आई। रमेश चन्द्र जी को एक कथा याद आ गई-फुरूवा जवाईं। इस कथा के साथ हमने भी इजाजत माँगी। यहाँ से हम आगें एक बड़ी बाखली में पहुँचे।

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यहाँ एक छोटे-से कमरे में राजकीय इंटर कालेज देवलथल में ग्यारहवीं में अघ्ययनरत छात्र राहुल चन्द्र बड़ द्वारा संचालित पुस्तकालय को देखने का मौका मिला। इस पुस्तकालय को वह पिछले दो सालों से चला रहा है।पिछले गांवों में अब तक देखे सभी पुस्तकालयों में सबसे अधिक किताबें इसी पुस्तकालय में हैं। पता चला कि यह इस क्षेत्र में स्थापित पहला ग्रामीण पुस्तकालय है, जिसकी पहलकदमी बच्चों द्वारा की गई। गाँव वाले इस पुस्तकालय को समृद्ध बनाने की योजना हमें बता रहे थे। इस यात्रा में यही बात सबसे अधिक उल्लेखनीय लगती है। अभी बच्चे कभी-कभार पढ़ रहे होंगे। कुछ युवा पुस्तकालयों का रूख कर रहे होंगे। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ेगी। किताबों की बातें और पढने-लिखने की चर्चाएं होंगी। ऐसे ही तो माहौल बदलेगा। यात्रा में हमने बड़े-बुजुर्गों को भी पुस्तकालयों की ओर नियमित जाने और वहीं बैठकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। लकड़ी की बारीक नक्काशी वाली एक देली में बैठकर हमने सबके साथ एक ग्रुप फोटो खींचा। चाय पीते-पीते हमने अगले पड़ाव हराली की ओर जाने वाला रास्ता पूछा। यात्रा के साथी बच्चे यहाँ से लौटने लगे। वे सबसे मिल रहे थे। फिर आने का आग्रह कर रहे थे और फिर हाथ हिलाते पगडंडियों में ओझल हो गए।

दो-चार युवा छात्रों के साथ हम हराली की ओर उतरने लगे। रास्ते में युवाओं के साथ बातें होती रहीं। हम अपने सपने की बात कर रहे थे- एक ऐसा समाज जिसमें लोग रोजमर्रा के काम की तरह किताबें पढ़ रहे होंगे। गाँव-गाँव में पुस्तकालय होंगे। किताबें बाँटी जाएंगी। जन प्रतिनिधियों पर गाँव में पुस्तकालय और स्कूल खोलने का दबाव होगा। समाज में अन्धविश्वास और रूढ़ियाँ खत्म होगी। हमारे साथ चल रहे नयी पीढ़ी के युवाओं के अन्दर इस तरह के सरोकार देखना आनन्ददायी अनुभव था। उम्मीद की यही किरण हमें गाँव-गाँव घूमने को प्रेरित करती है। अब सूरज हमारे बिल्कुल सामने था। परछाइयाँ अब लम्बी होने लगी थी। सामने हराली से धूप ने अपनी चादर कब के समेट ली थी। छाँव की ओर जाने में ठण्ड लगने लगा तो कन्धे में लटककर चली आ रही जैकेेटें बदन में चढ़ गयीं। बताया जाता है कि हराली में प्राचीन समय में ताँबे की खान हुआ करती थी। इस गाँव के लोग ताँबा खोदने और उससे बर्तन बनाने का काम करते होंगे। ताँबे के कारोबार की चहल-पहल रही होगी। ताँबे की खान बन्द होने की भी कोई कहानी बताई जाती है। मगर इसे सुनाने वाला वहाँ पर कोई मिला नहीं। कभी टमाटों की बर्तन गढ़ने की टनटनाहट से गुंजायमान हरालीवासी पाख-पाथर छितराए त्यौले खनारों के बीच आज भी अपने अतीत को याद करते हैं। एक ऐसे ही छोडे जा चुके घर के बगल के ‘पान‘ में एक छोटा-सा पुस्तकालय बनाया था। देवलथल स्कूल का एक छात्र प्रियांशु टम्टा इसका संचालन करता है। इसी आँगन में बच्चों ने चौपाल की तैयारी की थी। एक छोटे-से किस्से को पेशकर मैंने कथा चैपाल षुरू की। कथा तो खूब जमीं मगर लोग अब तक आने में ही थे। एक और कथा सुनाकर महेश पुनेठा जी ने इस क्रम को आगे बढ़ाया। थोडा माहौल बना तो गाँव की ही एक महिला शान्ति देवी ने एक कथा शुरू की। यह कथा एक निर्धन दम्पत्ति की थी। जिनकी सात बेटियाँ थी। अच्छे घर में शादी हो नहीं सकती थी इसलिए जिसने बेटियों का हाथ माँगा उन्हीं से शादी कर दी गई। इसलिए शादी चील, साँप, बाघ आदि से हो गयी। इस तरह से हँसी-हँसी में एक मार्मिक कथा सुनने का मौका मिला। इस गाँव में और भी कथाएं मिलने की उम्मीद थी। मगर शायद ढलती शाम में लोग अपने कामकाज में व्यस्त हो गए। हम भी ज्यादा वक्त नहीं बचाकर ला पाए थे। जिन गाँवों से हम लौट आए थे वहाँ अभी भी धूप थी। हराली में काफी ठंड होने लगी थी। हमने पिथौरागढ़ लौटना था। हराली के बाद हमारे रास्ते में आगर भी एक गाँव था। मंगसीर पूस के छोटे दिनों में अब यहाँ रूकना सम्भव न था। हराली और आगर के बीचों-बीच यहाँ का जूनियर हाईस्कूल था। हम इन कथाओं और यात्राओं की समीक्षा करते हुए धीरे-धीरे रामकोट की ओर उतर रहे थे।

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कथा चौपाल का हमारा आज का कार्यक्रम तो पूरा हो चुका था। कथाएं हमने एकाधिक बार पहले भी सुनी थी। इस तरह तीन पीढ़ियों की मौजूदगी में चौपाल में बैठकर कथा सुनना एक अनूठा अनुभव था जो हमें इस यात्रा में पहली बार मिला। इस यात्रा में हम पाँच गाँवों में पाँच पुस्तकालय देखने के बाद छठे पुस्तकालय की ओर जा रहे थे। रामकोट की ओर उतरते हुए सामने देवलथल कस्बे में निर्माणाधीन पुस्तकालय भवन दिख रहा था। पता चला कि बाराबीसी ग्रामीण उत्थान समिति के प्रयासों से कस्बे में एक बेहतरीन पुस्तकालय चल रहा है।

देवलथल कस्बे में पहुंचे तो सड़क किनारे एक दुकान के बाहर दीवार पर एक सूचना पट्ट लगा मिला। इस बोर्ड पर एक विचार लिखा था- “आपका व्यवहार ही आपका परिचय है।” पूछताछ करने पर लोगों ने बताया कि यह कस्बे का विश्वसनीय समाचार पट्ट है। लोग इस बोर्ड को किसी समाचार की पुष्टि के लिए देखते हैं। गैस की गाड़ी का आना, किसी नेता या अधिकारी के भ्रमण से लेकर राष्ट्रीय समाचार भी इस बोर्ड पर दिख जाते हैं। बाराबीसी उत्थान मंच के अध्यक्ष सुरेन्द्र बसेड़ा इस सूचना पट्ट पर चाॅक से लिखने का काम करते हैं। इन्हीं के साथ हम पुस्तकालय में पहुँचे तो दो-तीन पाठक वहाँ उस समय भी बैठे हुए मिल गए। इन्हीं में आठवीं का एक छात्र हेमन्त पाण्डे भी था। बातचीत में पता चला कि यही छात्र पुस्तकालय संचालन का काम भी करता है। हमने इस यात्रा के दौरान सभी पुस्तकालयों में एक बहुत बड़ी समानता यह पायी कि इनका संचालन छात्र-छात्राओं द्वारा किया जा रहा था। इस छोटी सी उम्र से ही पढ़ने की संस्कृति के विकास के लिए इन बच्चों का लगाव और समर्पण भविश्य के प्रति आश्वस्त करता है। यह अपने तरह का एकदम नया परिदृष्य है। इस क्षेत्र में बच्चों द्वारा गांव-गांव पुस्तकालय संचालित करने की एक मुहिम चल पड़ी है।
हमारे पहुँचने के बाद कुछ पुस्तक प्रेमी और पढ़ने की संस्कृति के विकास में लगे नरेष पाण्डेय, गोकुल कुमार और अन्य स्थानीय लोग भी पहुँच गए। बातचीत से पता चला कि इस पुस्तकालय को स्थापित करने में स्थानीय इंटर कालेज देवलथल के गणित शिक्षक रमेश चंद्र भट्ट जी की भूमिका अग्रणी रही। ऐसे शिक्षक सचमुच हमारे पूरे शिक्षक समाज के लिए सम्मान के वाहक हैं। इससे समझ में आता है कि यदि शिक्षक पहलकदमी करें तो समाज में पढ़ने की संस्कृति बनायी जा सकती है। हेमन्त से मैंने पूछा कि आपके पापा पुस्तकालय में इतना अधिक समय बिताने पर कुछ नहीं कहते ? सिर्फ पाठ्यपुस्तक पढ़ने को नहीं कहते ? तो एक सज्जन बोले- ”यह मेरा ही बेटा है। पुस्तकालय जाने वाले बेटे पर रोक-टोक कैसी मेरी तरफ से इसे पूरी आजादी है।“ पुस्तक संस्कृति से जुड़े साथी मेरे प्रष्नों का आशय समझ रहे थे। कोर्स से इतर किताबें पढ़ना समय की बर्बादी है, का संदेश देने वाले लोग किताबों को टाइम पास से अधिक कुछ समझ ही नहीं पाते हैं। खैर ऐसा ही समाज है और उसी के बीच में काम करने की चुनौती है। कहने-सुनने को बहुत कुछ और भी था। सूरज पहाड़ के पीछे कब के डुबकी लगा चुका था। चाय खत्म हो चुकी थी। लौटने से पहले निर्माणाधीन पुस्तकालय देखना जरूरी था।

पता चला कि विधायक निधि से पाँच लाख रूपए की लागत से इसे बनाया जा रहा है। अपने पहाड़ में मैंने यह भी पहली बार देखा। लोकतंत्र में जनता जब अपने बुनियादी सवालों के साथ एकजुट होती है, अपने विकास की सही दिशा पहचान लेती है तो फिर विकास की परिभाषा में शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वाभिमान के मुद्दे खड़ंजे और नालियों से पहले आने लगते हैं। देवलथल कस्बे के ठीक ऊपर घास के दमड़कों और पेड़ों के बीच एक पुस्तकालय स्थापित किया जा चुका है। इक्कीसवीं सदी के भारत की इस एक बड़ी खबर के साथ हम वापस सोर घाटी को वापस लौट रहे थे।

यात्रा में हमने बुजुर्गों को कुमांऊनी पत्रिकाएं-पहरू, कुमगढ़, और आदलि-कुशलि के अंक भी भेंट किए। पुस्तकालयों को कुछ पत्रिकाएं और किताबें दी। किशोर पाटनी ने सभी पुस्तकालयों के लिए अपनी किताब ‘गोरंगदेश से गंगोत्री‘ दी। चिन्तामणि जोशी ने अपना काव्य संग्रह ‘क्षितिज की ओर‘ व जनार्दन उप्रेती की कविताओं के अंग्रेजी भावानुवादित किताब प्रदान की। बुजर्गों ने किताबें बड़े उत्साह से ली। चौपाल में सालों बाद हमें लोक कथाएं सुनने का मौका मिला। बुजुर्गो से आँखें मिलाकर बात की। जीवन की आपाधापी में बुजुर्गों के इतने पास बैठकर गपियाते लगा कि अपनी नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के साथ इस तरह बैठे तो सालों बीत गए थे। हमारे आधुनिक समाज में ऐसे अवसर बचे ही नहीं। दो पीढ़ियों के बीच में संवादहीनता के लिए हमारी पीढ़ी भी जिम्मेदार है। दिन की किसी घड़ी में अपने बच्चों और बुजुर्गों के साथ अपने घर की चौपाल में बैठा जाय तो वो बूढ़ी आँखें अतीत में झाँकती हैं, स्मृतियों में कुछ खोजतीं हैं। जहाँ जो कुछ बिसर गया है, उसे कुरेदने पर धीरे-धीरे उन्हें कुछ याद हो आता है। जो कुछ बच गया है, जिसे व्यक्त करने के अब मौके ही नहीं मिलते। वे किस्से हैं, कथाएं हैं, ऐण हैं, मजेदार प्रहसन है, लोकोक्तियाँ हैं, काल्पनिक से लगने वाले जीवनानुभव हैं और जीवट जीवन के संघर्शाें की दास्तानें हैं। ये अन्तिम पीढ़ी है जिसके पास हमारी समृद्ध विरासत है। यह अन्तिम पीढ़ी है जिसके पास समाज की यह धरोहर है। इसे जल्दी सहेज लेना होगा। दुनिया भर में लोक कथाओं को एकत्र करने के लिए गम्भीरता से प्रयास हो रहे हैं। कथाकथन की इस कला के महत्व को शिक्षा में स्वीकार किया जा रहा है। हमारे पास स्वाभाविक रूप मौजूद इस विरासत को संरक्षण की जरूरत है। इस आषा में यात्राएं जारी रहेंगी, उस सुदूर घर तक जहाँ आज भी कोई कथा कहने वाली आवाज बुला रही है।
                                                                                                                             राजीव जोशी 
                                                                                                                       शैक्षिक दखल,पिथौरागढ