लोककथा यात्रा का एक अभिनव प्रयोग-1

यदि आप सरकारी नौकरी में है और कुछ दिनों की छु​ट्टिया हो रही हो तो आप क्या करेंगे। यहीं ना कि अपने प​रिवार के साथ…

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यदि आप सरकारी नौकरी में है और कुछ दिनों की छु​ट्टिया हो रही हो तो आप क्या करेंगे। यहीं ना कि अपने प​रिवार के साथ कही घूमने का कार्यक्रम बना लेगें। लेकिन पिथौरागढ़ के कुछ उत्साही शि​क्षकों ने मानों कुछ अलग करने की ठानी थी। तो वह निकल पड़े अपने लोक गाथा यात्रा पर कुछ गांवों की ओर कुछ जानने, समझने, सुनने और सुनाने के लिये।

यह यात्रा वृतांत हमें शिक्षक राजीव जोशी ने भेजा है। लंबा और बोझिल ना लगे इसलिये इसे अलग अलग किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है।
संपादक मंडल उत्तरा न्यूज

लोककथा यात्रा का एक अभिनव प्रयोग
राजीव जोशी
उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण अंचलों में कथा-कथन की एक प्रचीन और समृद्ध परंपरा रही है। सामान्यतया ये लोककथाएं मनोरंजन के लिए ही सुनाई जाती रही हैं। दादी-नानी के मुख से निकली ये कथाएं उनके नाती-पोतों के पास और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहीं।

कुमांयू क्षेत्र में शाम को रून-रसोई के पास लगने वाली चौपालों में शाम, शाम से फिर रात और फिर इन्हीं कहानियों के सपने बुनते बच्चे निदिया के आंचल में सो जाते। आज भी सुदूर गाँव में कहीं कोई बूढ़ी थरथराती आवाज कथा कह रही है लेकिन उन्हें सुनने वाले कम हैं, इन कथाओं की प्रति हीनता और हिकारत है। रेडियो-टीवी का दौर है। मोबाइल-अंग्रेजी-हिन्दी-पढ़ाई के बीच गाँव में मौजूद इन किस्सागों की आवाज कहीं गुम-सी हो गयी है। इस तरह की कथाओं का बच्चों के जीवन में बड़ा महत्व है। बच्चे कहानियों को बड़े ध्यान से सुनते हैं। अपने ही परिवेश की विषयवस्तु पर बुनी-गढ़ी गयी ये कथाएं बच्चों की समझ में भी आती हैं। इस तरह की कथाएं शिक्षण में भी बड़ी उपयोगी हैं।

अपने आस-पास इन कहानियों को खोजने के लिए लम्बे समय से गाँवों में जाने की योजनाएं बन रहीं थीं। हमारे शिक्षक साथी महेश चंद्र पुनेठा ने बहुत पहले एक यात्रा का प्रस्ताव रखा था। कुछ माह पहले वह एक गांव में होकर भी आए थे, जहां उनके द्वारा अपने साथी शिक्षक रमेश चंद्र भट्ट के सहयोग से लोककथा चौपाल भी लगाई गई। इस बार नवम्बर माह में तीन-चार छुट्टियाँ एक साथ पड़ने से हमें भी यह मौका मिल गया। देवलथल कालेज के बच्चों के सहयोग से उन्हीं के गाँवों में जाने की योजना बनी। बच्चों को पहले से सूचित कर दिया गया था। 23 नवम्बर की सुबह सात बजे हम पिथौरागढ़ से देवलथल की ओर चल पड़े। देवलथल जिला मुख्यालय से थल मोटर मार्ग पर लगभग 25 किलामीटर दूर एक छोटा-सा कस्बा है।

यहाँ पहुँचने के लिए हमें रामकोट से एक किलोमीटर पहले से कनालीछीना जाने वाली रोड में जाना पडता लेकिन फिलहाल हमारी मंजिल थल मोटर मार्ग में रामकोट थी। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 23 नवम्बर की सुबह हम रामकोट में उतरे। रामकोट, थल-पिथौरागढ़ मार्ग एक छोटा-सा स्टेशन है। दो-चार दुकानें जो अभी बन्द थीं, कुछ लोग गाडी की प्रतीक्षा में खड़े थे। सड़क से ऊपर पहाड़ में गाँवों के ओर पगडंडियाँ जाती दिख रहीं थीं। हमें सबसे पहले भट्यूड़ा पहुँचना था, जहाँ के लिए बुंगाछीना स्टेशन से चढाई शुरू करनी थी। लेकिन आटा से चढ़ाई शुरू करने पर एक शार्ट रास्ता है, यह जानते ही साथियों ने चढ़ाई शुरू भी कर दी। आबाद खेतों के बीच से गुजरते हम गाँव की ओर बढ चले। पूरी यात्रा में यही दो किलोमीटर की चढ़ाई ऐसी थी जब हम अकेले थे।
भट्यूड़ा गाँव से नीचे देवाशीष हमें लेने आया था। देवाशीष देवलथल में दसवीं का छात्र है। देवाशीष ग्यारहवी में पढ़ने वाली अपनी दीदी शीतल के साथ मिलकर अपने घर के एक कमरे में पुस्तकालय संचालित करता है।

गाँव में हम सबसे पहले इसी घर पर पहुँचे। दो मंजिले के चाख में बच्चों के बैठकर पढ़ने के लिए चटाइयाँ बिछी थीं। रैक में और टेबल में कुछ किताबें रखी थी। कुछ पत्रकाएं रस्सियों में टंगीं थीं। दीवारों में बच्चों की कुछ रचनाएं चिपकी थी। दो दीवार पत्रिकाएं लटकीं थीं जिन्हें इस पुस्तकालय के पाठकों ने तैयार किया था। शीतल ने अपने शिक्षक महेष पुनेठा द्वारा आयोजित दीवार पत्रिका निर्माण कार्यशालाओं में निरन्तर प्रतिभाग किया है। स्कूल की दीवार पत्रिकाओं में लिखते हुए उसने जो सीखा उसी से प्रेरित होकर गाँव के छोटे भाई-बहिनों को लिखने-पढ़ने से जोड़ा। इसका प्रभाव दीवार पर लटकी दो दीवार पत्रिकाओं में प्रतिबिंबित हो रहा था। एक शिक्षक के रूप में अपने स्कूलों में दीवार पत्रिकाएं तैयार करने में आने वाली कठिनाइयों से हम शिक्षक भलीभाँति वाकिफ हैं। यह काम कभी आसान नहीं होता। कई दिनों तक हम पुस्तकालय में बैठे रह जाते हैं, बच्चे नहीं आते। बच्चे कई बार कहने पर भी लिखते नहीं। आदि-आदि। इसलिए इन बच्चों द्वारा किए जा रहे काम की गम्भीरता को हम सभी शिक्षक साथी समझ पा रहे थे।

शीतल के पिता पोस्टऑफिस में काम करते हैं। उसकी माँ किसान हैं। गायें पालीं हैं। इसके बावजूद दोनों दम्पति अपने बच्चों के साथ पुस्तकालय में बैठते है। बच्चों को समय देते हैं। इन्हीं के आँगन में कथा चौपाल के लिए बैठक व्यवस्था की गईं थीं। षीतल ने बताया कि वह वकील बनना चाहती है।

आँगन के पथरौटे में पहले से दरी चटाइयां और कुर्सियों की व्यवस्था की गई थी। हमारे पहुँचने के बाद धीरे-धीरे लोग जमने लगे। पहाड़ की गुनगुनी धूप में यह यात्रा की पहली कथा चौपाल थी। बुजुर्गों की प्रश्न भरी निगाहें जैसे यह जबाब चाह रहीं थीं कि ये कथाएं किस काम की होती होंगी। इस तरह की कथाओं का स्कूलों से कोई संबध जोड़ पाना हमारे समाज के लिए वास्तव में आसान काम नहीं है। हमारे स्कूल तो एक दूसरे तरह की चीजें पढ़ाने का ही काम करते आए हैं।

घर में सुनी इन कथाओं का जिक्र स्कूल मेंं कभी होता ही नहीं। समाज में अपनी बोली, भाषा, संस्कृति और बिरासत के प्रति एक अजीब हिकारत और शर्म का बोध देखा जाता है। इस चौपाल में भी जब हमने कथा सुनाने का आग्रह किया तो बुजुर्गों में कथाओं को कहने का आत्मविष्वास नजर नहीं आ रहा था। शायद उन्हें यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि हम सुनना क्या चाह रहे हैं। जिन कथाओं में भालू के खाँसने-पादने की भी बातें आ जातीं हैं, खनार-पन्यार की बातें होतीं हैं, इजर-उढियार की बातें होतीं हैं, वे किस्से-कहानियाँ भी हम सुनना चाहते हैं, ऐसा आमा-बूबू लोग सोच भी नहीं पा रहे होंगे। आखिर एक उदाहरण रखने के लिए, हमने शुरूवात की।

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नाचनी स्कूल की दीवार पत्रिका गुंजार में हमारा एक स्तम्भ हुआ करता था-लोक साहित्य। उसके लिए एक छात्र ने एक बार अपनी नानी के मुख से सुनी कथा पहुंचाई। कथा बड़ी चटपटी और मजेदार थी। मैंने उसे ही सुनाने का फैसला किया। जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ी, लोककथा का असर था कि उसने बच्चे-बुजुर्ग सभी का ध्यान आकृष्ट किया। लोक साहित्य में अपनी बातें होती हैं इसीलिए एक अपनापन होता है। यह श्रोताओं के दिल और भावनाओं को छूती है। लोकसाहित्य की यही ताकत होती है। इस कथा को अपने नाती-पातों के साथ आमा लोगों ने आनन्द के साथ सुना। अब उन्हें कुछ कथाएं याद आने लगीं। वे अपनी स्मृतियों में लौटने लगीं। मगर झिझक अभी भी थी।

कथाओं का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए हमारे साथी डायट प्रवक्ता विनोद बसेड़ा ने व्यास घाटी की लोककथा ‘कव्वा और छैडलो (चर्बी का गोला)‘ सुनाई, जो उन्हें डायट की ओर से जिले की लोककथाओं के संग्रहण के दौरान मिली थी। कथा के बाद कुछ ऐण भी हुई। अब ममता की आमा गंगा देवी को एक कथा याद आ गई। षुरूआत में तो वे थोड़ा झिझक रहीं थीं किन्तु फिर उन्होंने लय पकड़ लीं। हँसते-मुस्कुराते जब वे कथा कह रहीं थीं, सारे बच्चे और हम सब यात्री मंत्रमुग्ध उन्हें सुनते रहे। गजब की काव्यात्मक शब्दावली थीं। जैसे- ‘गाड़ि खायनैकि जैसि अकल‘ यानि उधार ली जैसी अकल। इसी चौपाल में शीतल की ईजा और पाँचवीं में पढ़ने वाली छात्रा दिया ने भी एक-एक लोककथा सुनाई। कथाएं तो और न जाने कितनी आती मगर हमारे दूसरे गाँव में पहुँचने का समय हो चुका था। शीतल की माँ ने गुड़ और गरम दूध परोस दिया। हममें से दूध पचा पाने वाला कोंई था ही नहीं। बातों-बातों में पता चला कि आज सुबह इन्होंने इसीलिए दूध डेरी को नहीं भेजा। यह आत्मीयता और एहसास हमारे गाँवों में ही हो सकते हैं। इस दूध के लिए कौन मना कर सकता था। हमने फटाफट दूध पिया। सबसे मिलते-मिलाते झोला टांगा और अगली चौपाल की ओर निकल पड़े।

दूसरे भाग में जारी ………………

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