कुमाऊँनी होली: उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का रंगारंग उत्सव

कुमाऊँ: उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार खास अंदाज में कुमाऊँनी होली के रूप में मनाया जाता है। कुमाऊँनी होली का ऐतिहासिक…

Kumaoni Holi: Colorful celebration of cultural identity of Uttarakhand

कुमाऊँ: उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार खास अंदाज में कुमाऊँनी होली के रूप में मनाया जाता है। कुमाऊँनी होली का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत गहरा है। यह त्यौहार कुमाऊँ के लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है, क्योंकि यह बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है और पहाड़ी सर्दियों के अंत का संकेत देता है। साथ ही, यह खेती के लिए भी एक शुभ समय की शुरुआत मानी जाती है।

कुमाऊँ क्षेत्र में होली के दौरान अबीर-गुलाल के साथ-साथ बैठकी होली और खड़ी होली गायन की पुरानी परंपरा आज भी जीवंत है। इस होली के रंग में पूरा कुमाऊँ डूब जाता है और हर तरफ उल्लास का माहौल रहता है।

बैठकी होली की परंपरा

कुमाऊँ में बैठकी होलियों की शुरुआत पूस के पहले रविवार से हो जाती है। बसंत पंचमी के आते-आते इसका रंग और भी गहरा हो जाता है। बसंत पंचमी से ही होल्यार (होली गाने वाले) हर शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, जो लगभग दो महीने तक चलता है। महाशिवरात्रि के दिन मंदिरों में होलियां गाई जाती हैं और फागुन महीने की शुरुआत के साथ ही होली का रंग चढ़ने लगता है।

कई गांवों में अष्टमी के दिन चीर बांधी जाती है तो कहीं इकादशी के दिन। इकादशी के दिन आंवले के पेड़ की पूजा की जाती है और इसी दिन से रंग पड़ने की शुरुआत होती है। इसके साथ ही कुमाऊँ के हर गांव और कस्बे में होली की रंगीनियत छा जाती है।

कुमाऊँनी होली की ऐतिहासिक उत्पत्ति

कुमाऊँनी होली, विशेष रूप से बैठकी होली की संगीत परंपरा, 15वीं शताब्दी में चम्पावत के चंद राजाओं के महल में और आसपास के काली-कुमाऊँ, सुई और गुमदेश क्षेत्रों में शुरू होने का अनुमान है। कहा जाता है कि यह पर्व बाद में चंद राजवंश के माध्यम से पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में फैल गया।

सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में होली गाने के लिए बाहर से गायक आते थे। कुमाऊँनी होली को वर्ष 1870 से नियमित वार्षिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इससे पहले यह होली बैठकी के रूप में गाई जाती थी।

बैठकी होली का आयोजन

कुमाऊँ के बड़े नगरों, विशेष रूप से अल्मोड़ा और नैनीताल में बैठकी होली का आयोजन भव्य रूप से किया जाता है। इसमें राग-रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर होली के गीत गाए जाते हैं। इन गीतों में बहादुर शाह ज़फ़र, नज़ीर और मीराबाई की रचनाएँ प्रमुख होती हैं। यह बैठकें आशीर्वाद के साथ समाप्त होती हैं, जिसमें “मुबारक हो मंजरी फूलों से भरी…” जैसे गीत गाए जाते हैं।

कुमाऊँ के प्रसिद्ध जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने बैठकी होली के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष को गहराई से देखा है। उन्होंने इस परंपरा पर उर्दू और इस्लामी संस्कृति के प्रभाव को भी वर्णित किया है।

खड़ी होली की धूम

बैठकी होली के कुछ दिनों बाद खड़ी होली का आयोजन होता है। खड़ी होली विशेष रूप से कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय है। इस दौरान गाँव के लोग नुकीली टोपी, कुरता और चूड़ीदार पायजामा पहनकर एकत्र होते हैं और ढोल, दमाऊ और हुड़के की धुन पर नाचते और गाते हैं।

खड़ी होली के गीत पूरी तरह से कुमाऊँनी भाषा में होते हैं। होल्यार गांव के हर घर जाकर होली गाते हैं और उनकी खुशहाली की कामना करते हैं।

महिला होली का रंग

महिलाएं भी कुमाऊँनी होली में विशेष भूमिका निभाती हैं। महिलाएं बैठकी होली की तरह ही हर शाम अपने समूह में इकट्ठा होकर होली गाती हैं। इन गीतों का विषय मुख्य रूप से महिलाओं के जीवन से जुड़ा होता है।

चीर बंधन और चीर दहन की परंपरा

कुमाऊँनी होली में चीर बंधन और चीर दहन का विशेष महत्व है। चीर को हिरण्यकश्यप की बहन होलिका का प्रतीक माना जाता है। इसे कपड़े और लकड़ी से बनाया जाता है।इकादशी के दिन कुमाऊँ में खड़ी होली होती है। इसी दिन चीर की आत्मा का सम्मान किया जाता है। चीर को मजबूत हाथों में सौंपा जाता है। कुमाऊँ की होलियों में चीर हरण की एक पुरानी परंपरा है। कहा जाता है कि अगर कोई दूसरे गांव का व्यक्ति होली की चीर में से एक टुकड़ा तोड़कर नदी पार करता है, तो उस गांव की होली बंद हो जाती है।

होलिका दहन के दिन इस चीर को दहन किया जाता है। दहन के दौरान कुमाऊँ के अंतिम संस्कार नियमों का पालन किया जाता है। होलिका दहन के बाद चीर के टुकड़ों को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह टुकड़े घर को बुरी शक्तियों से बचाते हैं।

छरड़ी (धुलेंडी) की मस्ती

धुलेंडी के दिन कुमाऊँ के लोग एक-दूसरे पर रंग, अबीर और गुलाल डालते हैं। पानी वाली गीली होली छरड़ी के दिन ही खेली जाती है। ऐतिहासिक रूप से इसे छरड़ कहा जाता है। टेसू के फूलों को सुखाकर उनका नारंगी-लाल रंग बनाया जाता था, जिसे छरड़ कहा जाता था।अब बाजार के रंगों ने टेसू के फूलों की जगह ले ली है, लेकिन फिर भी कुमाऊँ की होली की मस्ती और पारंपरिक रंग आज भी जीवित हैं।

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