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ऋतु परिवर्तन का प्रतीक खतड़ुवा त्यौहार

Newsdesk Uttranews
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ईश्वरी प्रसाद पाठक

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खतड़ुवा उत्तराखंड में पीढ़ियों से मनाया जाने वाला पशुओं व फल-सब्जियों से जुड़ा लोक पर्व है। हिंदू कलेंडर के अनुसार भादों मास के अंतिम दिन गोशाला को साफ कर उसमें नरम सुतर(बिछावन) फैलाई जाती है। पशुओं को ताजा हरी घास खिलाई जाती है। यह त्यौहार कुमाऊं, के अलावा नेपाल के कुछ क्षेत्रों में भी मनाया जाता है। इस मौके पर पशुओं के स्वस्थ रहने और ककड़ी , दाड़िम आदि फलों के खूब फलने फूलने की कामना की जाती है।

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मसांत के अगले दिन आश्विन संक्रांति पर गांव के पास लोग एक खुली जगह पर 15-16 फुट लंबा चीड़ के छोटे पेड़ का तना गाड़ देते हैं और जंगल से लाई सूखी घास, झाड़ी जैसे पिरुल, झिकड़े इत्यादि उसके चारों ओर जमा कर पुतले का जैसा आकार दे देते हैं। इसे खतडू कहा जाता है जिसका आशय एक गढ़वाली आततायी राजा खतड़ सिंह से लगाया जाता है। बच्चों के लिए भांग के पौधे की डंडी पर फूल पत्तों की भैलोची बनाई जाती है। वे एक हाथ मेँ भैलोची और दूसरे हाथ में अपने बाड़े से तोड़ी हुई ताजा ककड़ी लेकर गाते हुए जाते हैं:
‘भैलोची भैलो…’
मशाल लिए हुए घर के सयाने पुरुष गीत गाते हैं:
‘गै ले जीती खतड़ ले हारी…’

सूर्यास्त के समय छिल्लुक (लंबी पतली जलाऊ लकड़ी के बंडल से बना रांक, एक तरह की मशाल) जलाकर कुछ देर गोशाला के भीतर घुमाया जाता है। इसके बाद सब मशालें खतड़ुवे में झोंककर आग लगा दी जाती है। वह रावण के पुतले की तरह धू-धू कर जलने लगता है। उसमें हाथ से चुनकर ककड़ी के टुकड़े डाले जाते हैं। बाकी ककड़ी को प्रसाद के रुप में घर ले जाते हैं। लोग खतड़वा के अधजले कुछ छिल्लुक घर तक ले जाते हैं परंतु उसे घर में नहीं रखा जाता। भैलोची की बची हुई डंडी और मशाल के छिलुके बाड़े में ककड़ी की बेलों वाली झाल पर फेंक देते हैं।

गौरतलब बात यह भी है कि जिस परिवार का मुखिया घर में नहीं हो तो उनका रांक या मशाल पड़ोस के पुरुष को पकड़ा दी जाती है। लेकिन भैलोची उसी परिवार के बच्चे थामते हैं। अगर किसी घर में खतड़वा दहन स्थल तक जाने लायक बच्चे नहीं हों तो आस-पड़ोस के बच्चों को ही भैलोची और ककड़ी पकड़ाई जाती है।

ईश्वरी प्रसाद पाठक राजस्थान पत्रिका से उप संपादक पद से सेवानिवृत हुए है, वर्तमान में वह जयपुर में रह रहे है।