ईश्वरी प्रसाद पाठक
मसांत के अगले दिन आश्विन संक्रांति पर गांव के पास लोग एक खुली जगह पर 15-16 फुट लंबा चीड़ के छोटे पेड़ का तना गाड़ देते हैं और जंगल से लाई सूखी घास, झाड़ी जैसे पिरुल, झिकड़े इत्यादि उसके चारों ओर जमा कर पुतले का जैसा आकार दे देते हैं। इसे खतडू कहा जाता है जिसका आशय एक गढ़वाली आततायी राजा खतड़ सिंह से लगाया जाता है। बच्चों के लिए भांग के पौधे की डंडी पर फूल पत्तों की भैलोची बनाई जाती है। वे एक हाथ मेँ भैलोची और दूसरे हाथ में अपने बाड़े से तोड़ी हुई ताजा ककड़ी लेकर गाते हुए जाते हैं:
‘भैलोची भैलो…’
मशाल लिए हुए घर के सयाने पुरुष गीत गाते हैं:
‘गै ले जीती खतड़ ले हारी…’
गौरतलब बात यह भी है कि जिस परिवार का मुखिया घर में नहीं हो तो उनका रांक या मशाल पड़ोस के पुरुष को पकड़ा दी जाती है। लेकिन भैलोची उसी परिवार के बच्चे थामते हैं। अगर किसी घर में खतड़वा दहन स्थल तक जाने लायक बच्चे नहीं हों तो आस-पड़ोस के बच्चों को ही भैलोची और ककड़ी पकड़ाई जाती है।