अल्मोड़ा:- पहाड़ में करीब एक हफ्ते तक चलने वाली होली(holi) का उत्साह छरड़ी यानि रंगो की होली खेलने के साथ ही खत्म हो जाती है
लेकिन छरड़ी व उसका अगला दिन भी गांवो के लिए उत्सव से कम नहीं होता, इन दो दिनों में गांवों के मंदिर या सार्वजनिक स्थल पर होली की यादों को सहजने व गिले शिकवे दूर करने के लिए एक खास आयोजन होता है।
इस आयोजन में गांव के लोग मिल जुलकर आटे का हलुवा(haluwa) बना सभी का मुंह मीठा करते हैं|होली का यह प्रसाद लोग गांव से दूर अन्य स्थानों पर रहने वाले बच्चों और परिजनों को भी भेजते हैं।
सभी लोग इस प्रसाद का बेसब्री से इंतजार करते हैं और बड़े चाव से गांवों की यादों के प्रतीक इस मीठे व्यंजन का आनंद लेते हैं।होली में हलुवा बनाने की रस्म भी होली जितनी ही पुरानी है।लोग लगातार चार पांच दिन होली गाने व ठंड के बाद गले व शरीर को ठीक रखने के लिए इस गर्म तासीर वाले व्यंजन हलुवे को बनाकर सभी को बांटते हैं।
पहाड़ के नियमों में हलुवा गेंहू के आटे से बनाया जाता है जिसे विशेष रूप से तैयार किया जाता है|कई स्थानों पर अब आटे के स्थान पर सूजी का उपयोग किया जाने लगा है लेकिन शरीर व गले के लिए आटे का हलुवा ही उत्तम माना जाता है| आटे का यह हलुवा गर्म तासीर का होता है जो ठंड लगने की संभावनाओं को कम करता है।
गांवों में छरड़ी खेलने के बाद ही हलुवा बनाने का आयोजन शुरु हो जाता है। कई स्थानों पर उसी दिन तो कहीं छरड़ी के दूसरे दिन टीका रश्म के दिन हलुवा बनाने का कार्य किया जाता है।गर्मागर्म हलुवा सभी होल्यारों, गांव के निवासियों को वितरित किया जाता है लोग इसे घर से दूर रहने वाले अपने परिचितों को भी भेजते हैं।
माना जाता है कि यह कई दिनों तक खराब भी नहीं होता और इसमें डाला जाने वाला गुड़ व देशी घी इसकी तासीर को गर्म रखता है।लोग मीठा और गर्म हलुवा खाकर मीठी यादें लेकर ही एक दूसरे से विदा लेते हैं|