6 मार्च 2020
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बसन्तोत्सव में स्त्रियों के मनोविनोद का वास्तविक चित्रण कालिदास तथा वात्स्यायन के ग्रंथों में भी प्राप्त होता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ‘बसन्तोत्सव‘ को ‘मदनोत्सव‘ का नाम भी दिया गया है।
‘कामसूत्र‘ में होलिकोत्सव को ‘उदकक्ष्वेदिका‘ या ‘जल फेंकने की क्रिया‘ नाम से पुकारा गया है। इसमें सभी स्त्री-पुरुष एक‘दूसरे पर जल फेंककर उत्सव मनाते थे। यह उत्सव फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जात था। इस उत्सव में युवक और युवतियां एक दूसरे पर कीचड़ भी उछालते थे। देवर-भाभी का हास-परिहास चलता था और आम्र की नई लताएं तानकर विनम्र मार-पीट भी चलती हैं।
भक्ति प्रधान गीत यहां के मंदिरों और घरों में बसन्त पंचमी से ही गाये जाते हैं। यह परम्परा अब कम हो गई है लेकिन फिर भी बडे़, बूढे़, बुजुर्गों, गीतकारों, महिलाओं, रसिक जनों और कई संस्थाओं के इस परम्परा को अभी जीवित रखा है।
कुमाऊँ में वैसे तो होली के पर्व को बडे़ ही समरसता के माहौल में मनाया जाता है, लेकिन फिर भी उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में होली की बात कुछ और ही है। अल्मोड़ा नगरी के हर गली, मोहल्लों में होली की बयार फाग ऋतु में बह जाती है। यहां के हुक्का क्लब अल्मोड़ा में गाये जाने वाली होली की तो बात ही निराली है।
चूंकि रंगों का उत्सव जिस मास में आता है, उस मास से ही भौरों का गुंजन प्रारम्भ होता है। हमारे ऋतु भी अलग-अलग तरह से बंटे हुए हैं। अलग-अलग ऋतुओं के अलग-अलग मास, अलग-अलग पहचान भी है। कृष्ण और राधा के बीच होने वाले प्रेम संचार, हास-परिहार, छेड़खानी, शैतानी आदि को लेकर होली के गीत गाये जाते हैं। साथ ही होली के गीतों में भंवरे, ऋतुओं का वर्णन भी आता है।
प्रियतमा का अपने परदेश गये प्रियतम की याद जब रंगीली होली में सताने लग जाती है, तो उस समय प्रियतमा के हृदय में अपने प्रिय से बिछुड़ने की पीड़ गहराने लगती है। उसका कलेजा प्रियतम की याद में जब फटने लग जाता है, जब यह पीड़ असहनीय होने लगती है, तो वह काग पक्षी से अपने प्रिय की खबर लाने के लिए अनुरोध करती है। वह काग पक्षी को संबोधित करते हुए विरहन, निरभाग, पांव पड़कर उससे पिया की खबर लाने के लिए अनुनय-विनय करती है।
हमारे होली गीतों में पक्षियों को संचार माध्यम के रूप से प्रस्तुत किया जाता रहा है। कौव्वा हो या कबूतर, ये सभी पक्षी किसी न किसी रूप में संचार के माध्यम के रूप में आये हैं। एक होली गीत में इस तरह भी आया है-हां रे कागा पिया की खबर मोह ला दीजो। उत ला दीजो तत्काल, कागा पिया की खबर। मोहे ला दीजो हां रे कागा चूंच बना दूंगी सोने की। उत पांव हीरा झलकाय, कागा पिया की खबर, मोहे ला दीजो हां रे कागा पंख बना दूंगी रूपै का….।
गीत में प्रियतमा कौव्वे को कहती है कि पिया की खबर ला दो, तो मैं तुम्हारी चोंच को सोने का, पंख रुपये का, गले में मोतियों की हार बना दूंगी। गोपियां कन्हैया से कुंजन की गलियों में ले जाने का आग्रह करती हुई गीतों में दिखाई पड़ती हैं। वह कहती है-‘डगर मोरी छोड़ा श्याम, ंिबंध जाओगे नैनन में/कन्हैया ंिबंध जाओगे नैनन में। जो तेरे मन में होरी खेलन की, ले चलो कुंजन में।‘ इस गीत में कुंजन ले जाने और होली खेलने के लिए श्याम से अनुरोध करती है। प्रियतमा अपने यौवन पर दृष्टि रखते हुए प्रियतम को नादान कहकर अपनी सासू से इस तरह वार्तलाप करती हुई, उससे कजरा न लाने पर आखे संुदर नहीं लगने की बात को इस तरह कहती है-‘बलमा मेरो नादान सासू, जोवन मेरो मानत नाहीं। स्योंनि में पैरने डंडिया न लावे, डंडिया बिन स्योंनि न सुहाय। अंखिया में पैरने कजरा न लावे, कजरा बिन अंखिया न सुहाय…।‘‘फाग ऋतु में श्रंृगारिक होली भी गायी जाती है। महिला का श्रंृगार, महिला द्वारा अपना श्रंृगार करने का वर्णन भी इन होलियों में इस तरह से आता है-‘कजरा की डिबिया खेल अलबेली/महिना जो लागो फागुन को। स्योंनी तेरी नजर भर देखूं। हंसि-हंसि ओढ़ना खोल, अलबेली महिना जो…।‘
कूर्मांचल में दो प्रकार की होलियाँ गायी व नाची जाती हैं-‘खड़ी होली‘ व ‘बैठकी होली‘। खड़ी होली खडे़ होकर गायी जाती है और बैठ होली तो बैठकर गायी जाती हैं। हर कोई इन होलियों को गा सकता है, अंग संचालन कर सकता है। इसके लिए किसी गुरू, किसी प्रकार का प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता नहीं होती? अंग संचालन के साथ सुर स्वतः ही ताल, लय, स्वरवद्ध होकर अपनी गति पकड़ लेते हैं।
इन गीतों में काफी भाव छिपे होते हैं। विश्वास, आगे बढ़ने का संकल्प, सच कहने की प्रवृत्ति, जीवन को उल्लास मय बनाने की ज्ञिज्ञासा, दुःख-सुख बांटने, सहयोग, रास रचाने, देवर-भाभी का हास-परिहास, देवी-देवताओं के प्रति आस्था का भाव आदि भाव इनमें सन्निहित होते हैं। कन्हैया व गोपियों से संबंधित गीतों में हास-परिहास, रास आदि मिलता है। भावुक, संवेदनशील पंक्तियां होली गीतों में मिलती हैं। होली का जिक्र आता है तो बरसाने की होली प्रसिद्ध मानी जाती है। ब्रज की गलियों में होलियों की धूम रहती है। एक होली गीत में इस तरह की पंक्तियां हैं,‘ होली खेलो जी राधे सम्भाल के…। जमुना तट श्याम खेले होरी, सखी वंदावन के बीच आज ढफ बाजे हैं। फागुन आयो रे, ऐ होली फागुण आयो रे। मेरी भीजे रेशम चुनरी रे, मैं कैसे खेलूं होरी रे। आज बिरज की होरी रे रसिया, होरी तो होरी बरजोरी रे रसिया….।‘‘ इस तरह राधा से होली को संभालकर खेलने की बात सामने आती है। एक अन्य गीत में कन्हैया से गोपियां सानुरोध करती हैं कि अगर होली खेलने का मन है तो मुझे होली खेलने कुंजन की तरफ ले चलो। वह इस तरह कहती हैं कि, ‘डगर मोरी छोड़ो श्याम, बिंध जाओगे नैनन में। कन्हैया बिंध जाओे नैनन में, जो तेरे मन में होरी खेलन की,ले चलो कुंजन में।‘ सीता और राम को भी होली के गीतों में जगह इस तरह मिली है- ‘सीता व राम युगल चरणां या अंबा के भवन बिराजे होरी।‘ चीर बांधने पर यह गीत अक्सर सुनाई पड़ता है, जिसमें पिया के आने का इंतजार करती हुई महिलायें गाती हैं। एक गीत में-‘‘बांधो कन्हैया ध्वजा चीर, अवै हां रे ननदी सजन पिया कब आयेंगे।‘‘ इसके अलावा ‘‘कैले बांधी चीर हो रघुनंदन राजा‘ गीत भी आज गाया जाता है। होली खेलने या आने से पूर्व काम को सिद्ध करने वाले गणपति का आह्वान, स्मरण भी इन गीतों में मिलता है।
होली (Festival of colors)में खलल चिंतनीय-
होलिका दहन कर तथा होली आशीष देकर इसकी समाप्ति टीके के माध्यम से होती है। होलका का दहन इस लिए किया जाता था कि असत्य पराजित हो, भगवान पर आस्था रखने वालों की जीत हो, भक्तों पर किसी प्रकार का संकट न आये। इस खुशी में प्रतीक रूप में होलका का दहन किया जाता था और आज भी किया जाता है।
बिगड़ता हुआ सौहार्द-गली-मोहल्लों, बाजार की नालियों, सार्वजनिक स्थानों में इन उत्पातियों से मानव समाज तो डरे ही डरे साथ ही पशु भी अचक जाये। कई लोगों की आस्थायें थी कि आलू, रायता, दही आदि से इस पर्व में लोगों को खिलाकर भाईचारा स्थापित करे।
डाॅ0ललित चंद्र जोशी ‘योगी
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, एस0एस0जे0परिसर,अल्मोड़ा से हैं…..