फेसबुक का अर्थशास्त्र भाग – 4

उत्तरा न्यूज डेस्क
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दिल्ली बेस्ड पत्रकार दिलीप खान का फेसबुक के बारे में लिखा गया लेख काफी लम्बा है और इसे हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे है पेश है चौथा भाग

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मार्क के मुताबिक ये वो पहली तस्वीर है जो मीडिया में छपी।

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(साल- 2004 में)

आओ कोर्समैच करें यानी शुक्रिया जकरबर्ग
सिनैप्स मीडिया प्लेयर बनाने के बाद माइक्रोसॉफ्ट सहित तीन-चार कंपनियों ने जब मार्क को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की तो किसी भी कंपनी को यह मालूम नहीं था कि दो साल बाद हॉर्वर्ड में मार्क जो करने वाला है वह दुनिया की सबसे बड़ी सनसनी में से एक होगा। सन 2002 में नौकरी का प्रस्ताव ठुकराते हुए मार्क ने हॉर्वर्ड का रुख किया। उस समय कई दोस्तों का मानना था कि मार्क ने एक बड़ा दुस्साहस किया है। लेकिन, हॉर्वर्ड में बेहद सीमित समय में लोग जानने लगे कि ये मार्क जकरबर्ग आखिरकार है क्या बला!

कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर को चाशनी की तरह लपेटने वाले कंप्यूटर जीवी के तौर पर मार्क को उनके सहपाठी पहचानने लगे। लेकिन उसकी गतिविधि किसी ‘किताबी कीड़े’ की तरह एकांतप्रिय और निर्जन द्वीप पर विचरने वाले खयालात जैसी नहीं होती। वह एक साथ कंप्यूटर में भी घुसा रहता और कंप्यूटर से सर उठाते ही दोस्तों की महफ़िल में भी रम जाता। बेहद सहजता से, ठीक वैसे जैसे किसी इलेक्ट्रॉनिक स्विच से नियंत्रित होने वाला रोबोट हो। असल में कंप्यूटर के साथ मार्क जो भी नया उपक्रम करता, समूह हमेशा उसके केंद्र में होता। जकनेट से लेकर फेसबुक तक के सफर में जकरबर्ग ने हमेशा अधिकाधिक लोगों को जोड़ने की दिशा में ही कदम बढ़ाया है। हॉर्वर्ड के शुरुआती दिनों में मार्क ने एक नया प्रोग्राम ईजाद कियारू कोर्समैच। कोर्स के महत्व के मद्देनजर विद्यार्थियों को कौन सी कक्षा का रुख करना चाहिए कोर्समैच इस संबंध में सलाह देता था।

इसी प्रोग्रामिंग की मदद से कई छात्र-समूहों ने छोटे-छोटे स्टडी समूह की भी नींव रखी और इस तरह हर यारबाज लोगों को अपने मिजाज के अनुरूप किसी विषय पर सघन चर्चा करने के लिए समूह मिल गया। समान रुचि के लोग एक साथ आए और इसमें जो शुक्रिया के पात्र बने, वो थे मिस्टर मार्क जकरबर्ग।


दिमागी फितूर का कोई इलाज है क्या
असल में जकरबर्ग की पूरी बनावट ही तकनीक को समाज के साथ नत्थी करने की थी। फेसबुक को कोई अनायास प्रयास का नतीजा ना मानें। हाई स्कूल के दिनों में मार्क का पसंदीदा विषय साहित्य, भाषा और विज्ञान था। विषयों का यह युग्म थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन मार्क अटपटेपन में ही मजे लेता था और अपनी कोशिश से उसे सामान्य बनाकर लोगों के बीच इस तरह पेश करता कि उनके कारनामें सहज ही स्वीकार्य हो जाते। हॉर्वर्ड में भी मार्क के विषय का चुनाव देखिए- समाजशास्त्र और कंप्यूटर विज्ञान। भारत में यह चुनने की आजादी नहीं है और जहां है भी वहां लोग या तो खालिस विज्ञान पढ़ते हैं या फिर सिर्फ़ मानविकी। दोनों को एक साथ पढ़ने की परिपाटी बहुत सीमित है। विशेषज्ञता की दुहाई देकर एक खास विषय के एक खास हिस्से की पढ़ाई करने में लोग जुटे रहते हैं।

विषय का चुनाव ही मार्क के इरादे को जाहिर करने में पर्याप्त है। वाकई, मार्क ने समाज के एक बड़े हिस्से को कंप्यूटर पर एक अपनापन भरा मंच दिया। कोर्समैच के समय से ही मार्क फेसबुक सरीखे किसी चीज को बनाने की कोशिश में लगे थे, लेकिन कोई रूप-रेखा स्पष्ट नहीं हो पाई थी। दोस्तों की तस्वीरों का एक वृहत अलबम उन्होंने संभाल रखा था और रोज-रोज उन तस्वीरों को देखते हुए वह सोचता कि स्नातक होने के बाद वह इन तमाम दोस्तों से कैसे जुड़ा रह पाएगा। कोई साफ रास्ता उसे नहीं दिखता। तस्वीरों को देख-देखकर वह भावुक हो जाता और फिर कंप्यूटर पर अपनी सारी भावुकता को संचित कर उड़ेल देता। वह अलबम ही उस वक्त मार्क का फेसबुक था। प्रेरणा का स्रोत था, ऊर्जा का संचित कोष था। कुछ न कुछ तो करना होगा! स्नातक द्वितीय वर्ष के इस छात्र के मन में यह खयाल हथौड़े की तरह बार-बार टकराता। लगभग एक खास तरह की दिनचर्या बन गई थी। रूममेट जोए ग्रीन परेशान हो उठता। उसे कई बार लगता कि मार्क का यह दिमागी फितूर है।


मस्ती की पाठशाला
एक दिन मार्क ने एक नया प्रोग्राम तैयार किया, जिसमें दो दोस्तों की तस्वीरों को आजू-बाजू रखा जाता और यूजर्स वोट करते कि दोनों में कौन ज्यादा आकर्षक है। प्रोग्राम का नाम रखा गया-फेसमैस। वोटिंग में यूजर्स के पास दो विकल्प थे- हॉट या नॉट। 28 अक्टूबर 2003 को पहली बार इस प्रोग्राम को हॉर्वर्ड के लिए खोला गया, लेकिन हफ्ते भर में ही फेसमैस की कीर्ति हॉर्वर्ड कैंपस में इस तरह फैल गई जैसे वह फुटबॉल विश्वकप की समय-सारणी हो। सप्ताहांत में हॉर्वर्ड का यह बेहद लोकप्रिय शगल बन गया। उस समय हॉर्वर्ड के पास ऐसी कोई डायरेक्ट्री नहीं थी जिसमें विद्यार्थियों की सामान्य सूचना को संकलित किया जा सके। फेसमैस इस खालीपन को भरने का कारगर हथियार साबित हुआ और यही वजह है कि इसको पहले मिनट से हॉर्वर्ड के छात्र-छात्राओं ने हाथों-हाथ लिया। पहले चार घंटों में फेसमैस पर 450 विजिटर आए थे और इस दौरान फेसमैस पर लगभग 22 हजार तस्वीरें देखी गईं। मार्क के उस वक्त के रुममेट जोए ग्रीन फेसमैस से उपजी शरारत को याद कर अब भी आह्लादित रहते हैं।

मार्क धीरे-धीरे नायक बनने लगा। हजार से ज्यादा लोग फेसमैस से चंद दिनों में ही जुड़ गए। लोग चुन-चुन कर चेहरा लाते। अपने सहपाठियों का, अपने रुम-मेट का, अपनी प्रेमिका का या फिर अपने जिगरी यार का। फिर वोटिंग होती। इसमें कई बार ऐसा हुआ कि जिसके चेहरे पर वोटिंग चल रही थी, उसे मालूम ही नहीं था कि फेसमैस के सट्टे पर इस बार उनका चेहरा टंगा है। जाहिर है उनके बीच नाराजगी का भाव पसरा। ऐसे ही कुछ लोगों ने विश्वविद्यालय प्रशासन के पास जाकर फेसमैस की शिकायत कर दी। प्रशासन ने फेसमैस को उटपटांग हरकत करार देते हुए उसे बंद करने का आदेश सुनाया। जकरबर्ग पर कॉपीराइट के उल्लंघन से लेकर सुरक्षा व्यवस्था में सेंधमारी करने और लोगों की निजता को खत्म करने के आरोप लगे।

हालांकि बाद में इन आरोपों को तो वापस ले लिया गया लेकिन फेसमैस को बंद हो जाना पड़ा और इस तरह हजारों युवाओं की मस्ती का मैदान भी चटाई तले दब गया। फेसमैस का अंजाम जो भी हुआ हो, लेकिन मार्क को लेकर हॉर्वर्ड के भीतर जो फुसफुसाहट अब तक थी, वह अचानक तेज हो गई। वह अब ऐसे छात्र में बदल चुका था जो अपने आस-पास जमघट बना लेता। इसी बीच दिव्य नरेंद्र और जुड़वे भाई कैमरॉन और टेलर विंकलवॉस ने मार्क के सामने एक सोशल नेटवर्किंग साइट बनाने का प्रस्ताव रखा। योजना एक ऐसी साइट बनाने की थी जिसके जरिए हॉर्वर्ड के मौजूदा छात्र-छात्राओं और वहां से पढ़कर निकले पुराने विद्यार्थियों को आपस में गप्प-शप्प करने में सहूलियत हासिल हो सके। मिल-जुलकर अड्डेबाजी करने का विचार इसके केंद्र में था।

इसका नाम रखा गया, हॉर्वर्ड कनेक्शन। जकरबर्ग को यह आइडिया पसंद आया और उसने तीनों मित्रों के साथ हॉर्वर्ड कनेक्शन पर काम भी शुरू कर दिया, लेकिन एक दिन अचानक जकरबर्ग ने तीनों सहयोगियों के साथ बैठक की और कहा कि वह इस परियोजना से हाथ खींचना चाहता है। जकरबर्ग अलग हो गया, तो काम भी लगभग ठप्प पड़ गया  बांबी फ्रांसिस्को को मार्क ने यह इंटरव्यू निकर पहने ही दे दिया । मार्क के पहनावे से बांबी काफी झल्ला गई थी   …………  जारी

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