फेसबुक का अर्थशास्त्र भाग -11

दिल्ली बेस्ड पत्रकार दिलीप खान का फेसबुक के बारे में लिखा गया लेख काफी लम्बा है और इसे हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे है…

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दिल्ली बेस्ड पत्रकार दिलीप खान का फेसबुक के बारे में लिखा गया लेख काफी लम्बा है और इसे हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे है पेश है ग्यारहवा  भाग

यह गुमशुदा तलाश केंद्र है

मार्क ने फेसबुक को लेकर लगातार प्रयोग किया है। निजी ज़िंदगी की तमाम सामंजस्य और व्यस्तता के बावजूद वो फेसबुक को लेकर नएपन के साथ बाजार में उतरते रहे। वह जानते हैं कि भूमंडलीकरण के दूसरे चरण का यह उत्पाद है। 21वीं सदी का। लोकप्रिय संस्कृति के मजबूत हो चले जड़ों के बीच फेसबुक युवा पीढ़ी के सामने उस वक्त उभरा है जब सबके जीवन की घड़ी तेज चलने लगी है। समूचा जीवन फास्ट मोड पर है। संगीत, गाड़ियां, गप्प-शप्प, खाना-पीना, पढ़ना-लिखना। सबकुछ।

अब दूसरे के खयालात जानने में कोई चार मिनट का समय नहीं दे सकता और कोई चार सौ शब्द लिखकर अपनी बातें नहीं कहता। सबकुछ संक्षिप्त, सबकुछ तेज। फेसबुक की दुनिया में वही लेखन सबसे आकर्षक और लोकप्रिय है जो छोटा है। जाहिर है इस जमाने में हर यूजर के पास इतना समय नहीं है कि वो बैठकर डेस्कटॉप या फिर लैपटॉप पर फेसबुक लॉग-इन करे। मार्क ने यूजर्स को विकल्प दिया कि वो राह चलते, पार्टी से या फिर घटनास्थल से बिना लैपटॉप तक पहुंच बनाए फेसबुक से जुड़ सकते हैं।उन्होंने 2007 के अंत में मोबाइल पर फेसबुक की शुरुआत की।आप कह सकते हैं कि वह समय की नब्ज को जानते हैं। वह जानते है कि मोबाइल पर फेसबुक शुरू करने का अर्थ क्या है। आज नतीजा ये है कि दुनिया में फेसबुक इस्तेमाल करने वाले आधे लोग मोबाइल के जरिए भी इससे जुड़े हैं। मार्क के फेसबुक ने देश-दुनिया-समाज में कई बदलाव किए।

अपने विस्तार के बाद से फेसबुक संभवतरू दुनिया की ऐसी सबसे बड़ी डायरेक्ट्री है, जिसने लोगों की ई-मेल और मोबाइल नंबर तक पहुंच आसान कर दी है। चेहरा अगर आप पहचानते हैं तो फेसबुक में सर्च कीजिए और दुनिया में मनचाहे यूजर्स का फोन नंबर हासिल कर लीजिए। हालांकि कई लोग सुरक्षा या फिर निजी वजहों से फोन नंबर सार्वजनिक नहीं करते, लेकिन इसके बावजूद खोए हुए मित्र को ढूंढने या फिर खुद का मोबाइल गुम होने के बाद गायब हुए फोन नंबरों को वापस हासिल करने में फेसबुक लोगों के बड़े सहारे के तौर पर उभरा है। गूगल से यही चीज फेसबुक को अलग करती है। सर्च करने पर गूगल सार्वजनिक जानकारी देता है, लेकिन फेसबुक निजी।

तो ये है कमाई का जरिया

2007 में जकरबर्ग ने यह घोषणा की कि फेसबुक अब ‘प्लेटफॉर्म’ बनने जा रहा है। इसका मतलब ये है कि जो दूसरे डेवलपर्स हैं वे अब फेसबुक पर आकर नए एप्लिकेशंस शुरू कर सकते हैं। यानी बाहर के दूसरे खिलाड़ियों को मार्क ने खेलने के लिए अपना मैदान दे दिया और हमेशा की तरह यह तरकीब भी कारगर रही। एप (एप्लिकेशन) वाला मामला चल निकला। इसमें न सिर्फ़ फेसबुक का फायदा होना था बल्कि खुद सोशल गेमिंग कंपनियों ने फेसबुक के पास इसके लिए मनुहार किया था। जाहिर है इन कंपनियों को फेसबुक के माध्यम से लोगों तक पहुंचने में बड़ी कमाई दिख रही थी।

जबसे सोशल गेमिंग को इसपर जगह मिली है तब से फार्मविले और माफिया वार्स जैसी सोशल गेमिंग कंपनियों ने इसके मार्फत सैंकड़ों मिलियन डॉलर्स सालाना कमाए हैं। कई यूजर्स के दिमाग में यह सवाल रहता है कि आख़िरकार फेसबुक की कमाई का जरिया क्या है?दो-तीन उदाहरणोंऔर तथ्यों के जरिए फेसबुक की कमाई का राज आप आसानी से जान लेंगे। लंदन दुनिया में सोशल गेमिंग का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। फेसबुक पर गेमिंग का दरवाजा खुलते ही इस शहर की हलचल तेज हो गई।गेमिंग कंपनियां यूजर्स को गेम खेलने देने के बदले पैसा वसूलती है। पहले दो-एक खेल तो ये नमूने के तौर पर खेलने देती है लेकिन रुचि मजबूत होते ही यूजर्स को पैसे देकर आगे खेलने का विकल्प पेश करती है। यूजर्स से जो पैसा गेमिंग कंपनियां इकट्ठा करती है सामान्य तौर पर फेसबुक उसका एक तिहाई रख लेता है। सामान्य रेट-चार्ट यही है।

गेमिंग कंपनियों के लिए फेसबुक से सहूलियत ये होती है कि उन्हें बैठे-बैठे करोड़ो यूजर्स तक पहुंचने का रास्ता मिल जाता है। कुल मिलाकर कहें तो अरबों रुपए का ये सालाना धंधा है। प्लेफिश जैसी कंपनियां हर साल करोड़ों कमाती है। लेकिन फेसबुक और मार्क जकरबर्ग की सबसे ज्यादा कमाई विज्ञापनों से होती है। फेसबुक पर विज्ञापन का अंदाज निराला है। आपको पता भी नहीं चलेगा और गौर करेंगे तो खूब पता चलेगा! असल में फेसबुक पर विज्ञापन देने से विज्ञापकों के पास अतिरिक्त उपभोक्ता तक पहुंचने की झंझट से मुक्ति मिलती है। जिनके लिए विज्ञापन है, वह पहुंच भी उन्हीं तक रहा है। यही फेसबुक की खूबी है। टीवी पर अगर महिलाओं के किसी सामान का विज्ञापन आ रहा है तो चैनल बदलने के अलावा और कोई उपाय नहीं है जिससे पुरुष दर्शक उसे नहीं देखे।

ऐसे में विज्ञापक बड़ी तादाद में ऐसे दर्शकों को विज्ञापन दिखाता है, जो कभी भी उनका उपभोक्ता नहीं बनेंगे। फेसबुक कंपनी इसी असंतुलन को दुरुस्त करती है। वह विज्ञापकों को सूचना और संख्या बेचती है। मान लीजिए एक शहर में पांच लाख फेसबुक यूजर्स महिला हैं। उन पांच लाख में से ब्यूटी का शौक रखने वाली महिलाओं की संख्या दो लाख है और शादीशुदा महिलाओं की संख्या एक लाख 50 हजार है। तो विज्ञापकों को फेसबुक यह बताएगा कि अमुक शहर में ब्यूटी और फैशन की शौकीन शादीशुदा और अविवाहित महिलाओं की संख्या कितनी है। कितने लोगों को बाइक पसंद है कितने लोग चॉकलेट पसंद करते हैं। आदि, आदि। यही संख्या बेचकर फेसबुक पैसा वसूलता है। विज्ञापक आपका नाम नहीं जानता, लेकिन वह संख्या जानता है और आज के जमाने में बाजार के लिए नाम से बड़ी चीज संख्या हो गई है