भाषाओं में आ रहे संकट को दूर करने के लिए अल्मोड़ा में जुटे विषय विशेषज्ञ तीन दिन तक चलेगी संगोष्ठी

अल्मोड़ा:- दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र और बीपी कोईराला इंडिया नेपाल फाउंडेशन की ओर से एसएसजे परिसर में आयोजित मध्य और पश्चमी हिमाल़य की संकटग्रस्त…

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अल्मोड़ा:- दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र और बीपी कोईराला इंडिया नेपाल फाउंडेशन की ओर से एसएसजे परिसर में आयोजित मध्य और पश्चमी हिमाल़य की संकटग्रस्त भाषाएं विषय पर आयोजित तीन दिवसीय सेमिनार में कुमाऊंनी, गढ़वाली व नेपाली भाषा का डिजिटल संग्रह बनाने पर भी चर्चा की गई। नार्वे से पहुंचे प्रो. क्लॉज पीटर जोलर ने बताया कि इसके लिए आपसी चर्चा के साथ रणनीति तैयार की जा रही है|उन्होंने इस पद्धति को भविष्य के लिए मील का पत्थर करार दिया।
इस सेमिनार के पहले दिन वक्ताओं ने कहा कि मातृ भाषाओं की संकटग्रस्तता विश्व व्यापी समस्या है। इस संकट से न केवल भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। बल्कि इसका विपरीत प्रभाव हमारी संस्कृति और जीवन शैली पर भी पड़ रहा है। इससे बचने के लिए सामुदायिकता को साथ लेकर कार्य करने की जरूरत है| परिसर के दृश्य कला संकाय में संगोष्ठी को संबोधित करते हुए पहले सत्र की मुख्य वक्ता लखनऊ विवि की भाषा विभाग की प्रो. कविता रस्तोगी ने कहा कि हिंदी और कुमाऊंनी के प्रयोग के कारण राजी भाषाएं प्रभावित हो रही है। उन्होंने कहा कि हालांकि हिंदी का प्रभाव राज्यों में बढ़ रहा है। लेकिन राजी भाषाओं पर संकट के कारण बोली, भाषा के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन भी देखने को मिल रहे हैं। पोलैंड से सेमिनार में भाग करने पहुंचे प्रो. क्रिस्टॉफ ने अपने संबोधन में कहा कि हिमालयी भाषाओं में केवल तीन या चार भाषाएं ऐसी हैं जिनके पुराने ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं। उन्होंने बताया कि अब तक कुमाऊंनी, गढ़वाली, नेपाली और चंबियाली भाषा के कई शिलालेख और साहित्यक कार्यो की जानकारी मिल सकी है। जिसके बाद हिमालयी भाषाओं के इतिहास पर प्रारंभिक शोध शुरू किए गए हैं। शोध केंद्र के निदेशक प्रो. बीके जोशी ने कहा कि भाषा का संकट केवल अभिव्यक्ति का संकट नहीं है। बल्कि भाषा के समाप्त होने का प्रभाव संस्कृति, रहन सहन व जीवन शैली पर भी पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि अधिकांश भाषाओं की लिपि न होने के कारण उनके अस्तित्व पर संकट पैदा हुआ है। पश्चिम हिमालय की संकटग्रस्त लोक भाषाओं पर आयोजित इस सेमिनार में कुमाऊंनी, गढ़वाली के अलावा नेपाली, जौनसारी, दारमा, रोड्पा व ब्यड़शी भाषाओं पर विस्तार से चर्चा की गई। कार्यक्रम से पूर्व स्थानीय समन्वयक चंद्रप्रकाश फुलोरिया ने अतिथियों का स्वागत भी किया।सेमिनार के पहले दिन प्रो. एमपी जोशी, चंद्रशेखर तिवारी, त्रिभुवन सिंह, चूड़ामणी बंधु, रूस की अनास्टॉसिकियाक्रिस्लोया, जुलिया एबगेनिया, कुमाऊं विवि के प्रो. देव सिंह पोखरिया, प्रो. दिवा भट्ट, डॉ. ललित जोशी, शिप्रा पंत, मनीषा पांडे समेत अनेक गणमान्य लोग मौजूद रहे।