बेमिसाल अल्मोड़ा और अल्मोड़िया चाल

शंभु राणा अल्मोड़ा और अल्मोड़ा से बाहर अक्सर एक शब्द सुनने को मिलता है अल्मोडि़या चाल। अमूमन यह शब्द ताने और शिकायत की ‘ताने’ लिए…

शंभु राणा

अल्मोड़ा और अल्मोड़ा से बाहर अक्सर एक शब्द सुनने को मिलता है अल्मोडि़या चाल। अमूमन यह शब्द ताने और शिकायत की ‘ताने’ लिए होता है, या फिर ऐसा कि जैसे चेरापूॅजी और बारिश……।

आखिर है क्या यह अल्मोडि़या चाल! लगभग 20 वर्ष गुजर गये इस शहर में रहते हुए लेकिन समझ में नहीं आया कि अल्मोडि़या चाल ठीक-ठीक किसे कहेंगे। ऐसी असमर्थता और किसी विषय में महसूस नहीं की। जहॉ की भी तो ज्यादा सर न खपा कर उस विषय को छोड़ ही दिया। लेकिन अल्मोडि़या चाल बिगड़ी हुई सन्तान की तरह हो गई, कि जिसे न छोड़ा जा सके और न कब्जे में आती है।
एक मित्र से पूछा तो जवाब मिला कि ‘हॉ’ यार कहते तो हैं लेकिन ऐसी है क्या चीज। हो सकता है जैसे हमें अपनी कमजोरियॉ नजर नहीं आतीं, वैसे ही इसे हम न देख समझ पाते हों। शायद कोई बाहर का आदमी बेहतर समझ पाये। एक साहब ने कहा, अरे यार कहॉ चक्कर में पड़े हो, यहॉ की तो साली आबोहवा ही खराब है…. अब मैं चाल-वाल तो कुछ नहीं जानता, कहो तो एक किस्सा सुना सकता हूॅ। सुनाइये साहब किस्सा।
कहते हैं कि श्रवण कुमार अल्मोड़ा आया था, अपने मॉ-बाप को तीर्थटन करवाता हुआ। अल्मोड़ा की सीमा में प्रवेश करते ही बताते हैं कि उसे झटका ठीक उसी जगह पर लगा होगा जहॉ पर स्वामी विवेकानन्द अपनी पहली यात्रा के दौरान थकान और प्यास के कारण अचेत होकर गिर गये थे। उन जैसे चैतन्यशील संन्यासी का अल्मोड़ा पहुॅचते ही गिर पड़ने का अपना प्रतीकात्मक उसने कॉवर जमीन पर पटक दी और मॉ-बाप से कहा भई बख्शो मुझे। बहुत कर दी तुम्हारी सेवा। गधा बन गया हूॅ। तुम्हें ढोते-ढोते मेरी जवानी तबाह हो गई। तुम्हारे ही कारण शादी नहीं कर पाया। अरे यार मेरी भी अपनी कोई जिन्दगी है कि नहीं? तुम बैठे माला जपो, तीर्थाटन का पुण्य कमाओ और अपना परलोक सुधारो, मेरे पैरों के छाले नहीं सूखते….. अंधे की औलाद अंधी, तुम ऑख के अंधे, मैं साला अकल का अंधा….और श्रवण कुमार अपने मॉ-बाप को बीच जंगल में रोता-कलपला छोड़ अल्मोड़ा शहर की तरफ चला गया।
श्रवण कुमार पता नहीं कितने दिनों तक अल्मोड़े में रहकर क्या-क्या मटरगश्तियॉ करता रहा…..शराब तब थी नहीं या कह लो आज की सी नहीं थी, वर्ना कहने वाले का मुॅह कौन रोक सकता है, वो तो कह दे कि श्रवण कुमार पी-खाकर नालियों में लेटा रहा। हॉ, चरस हमारी संस्कृति में है। तो हो सकता है अपने हमउम्रों के साथ बैठ कर उसने चरस पी हो…..। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि श्रवण कुमार कई दिनों तक अल्मोड़ा में रहा और इस दौरान उसे एक पल भी अपने माता-पिता की याद नहीं आई। उसका दिल मॉ-बाप की याद में नहीं कलपा। पार्टी विशेष के सदस्यों के बीच मत सुना देना यह किस्सा। फतवा भी जारी हो सकता है। मारे जाओगे।
फिर श्रवण कुमार एक बाबा जी के आश्रम में पहुॅच गया, जो कि अल्मोड़ा शहर से काफी फासले पर था। वहॉ उसने कई दिन रह कर योग-ध्यान प्राणायाम किया। धी, दूध, दही खाया और दण्ड पेले। धीरे-धीरे उसकी सेहत पर असर हुआ और गालों पर लाली झलकने लगी। अकल पर छाया कोहरा भी छॅटने लगा। फिर उसने एक दिन अपराधबोध के कारण हवन कुण्ड से अपना कपाल दे मारा। स्वामी जी ने पूछा वत्स हवन की यह कौन सी पद्धति है? तो श्रवण कुमार ने जारो-कतार रोते हुए अपना अपराध कह सुनाया। स्वामी जी उसे सांत्वना दी और उसकी चादर में चना-चबैना बॉध कर अल्मोड़ा की ओर रवाना कर दिया…..।
अच्छा सोचो, तब अगर जीपें चलती होतीं आज की तरह तो इस दृश्य की पटकथा कैसे लिखी जाती…… कि श्रवण कुमार भागा-भागा जीप स्टैण्ड पर पहुॅचता है। अल्मोड़ा एक सीट, अल्मोड़ा एक सीट की आवाज सुनकर किसी एक जीप की ओर लपकता। उसमें 8-10 की बजाय 15-16 सवारियॉ होते हुए भी वह उस जीप में लटक जाता या छत पर चढ़ता और ड्राइवर से कहता उस्ताद क्लच पर पॉव रख कर भूल जाना, कच्ची-पक्की जैसी भी सड़क हो गाडी़ की स्पीड कम से कम 60-70 जरुर रखना। बहुत अर्जेट पहुॅचना है। स्पीड ब्रेकर को भी मत देखना। मैं छटकूॅगा नहीं, कस कर पकड़ रखा है। और मेरे बाप, गाड़ी शहर से न निकालकर बाइपास से ले जाना। सौ-पचास अलग से दूॅगा इस बात के। कहीं ऐसा न हो अल्मोड़ा पहुॅचते ही मैं अपनी सुध बिसरा बैठॅू…….। तो भैयया एक किस्सा याद आया, तुम्हारे सवाल सुना दिया। इसमें मिले कुछ तुम्हें अपने मतलब का तो ठीक वर्ना माफ करना।
अल्मोडि़या चाल के बारे में एक सूत्र वाक्य काफी मशहूर है और इसे अल्मोड़ा से ताल्लुक रखने वाला हर एक शख्स जानता हैः ‘हम तेरे धर आये तो हमें क्या देगा, और अगर तू मेरे लिए क्या लाएगा?’ अधिकांश लोग इसी बात को अल्मोडि़या चाल के लिए मिसाल के तौर पर पेश करते हैं और दावा करते हैं कि यही गुरूमंत्र है एसी. का…….।

लेकिन दिल नहीं मानता इसे ही अल्मोडि़या चाल का सूत्र-वाक्य मानने को। इससे तो ये जाहिर होता है मानो यह कोई निहायत ही टुच्ची और नाकाबिले बयान किस्म की चीज है। जबकि इस शब्द पर अगर गौर करें तो इसकी छवि इतनी बुरी नहीं बनती। लगता जैसे ये सैद्धान्तिक किस्म की चीज है। जैसे पंचशील का सिद्धान्त, दो कौमी नजरिया या गुजराल डॉक्ट्रिन वगैरा।

एक मुॅहफट व्यक्ति ने अल्मोडि़या चाल को यूॅ परिभाषित कियाः मेहमान को पहले बड़े से गिलास में चाय पिलायेंगे, फिर थोड़ी देर बाद पूछेंगे कि दूध पियोगे क्या? खाने के बीच में पापड़ परोस देने के जैसा ठहरा। आपसे माचिस मॉगगे, फिर जेब टटोलते हुए कहेंगे कि लगता है डब्बा धर ही भूल आया। बुरा न मानें तो एक सिगरेट भी पिला दीजिए। बाजार में मिलेंगे तो खींचते हुए आपको चाय पिलाने के लिए रेस्त्रॉ मे ले जाएॅगे, बिल खुद देने की जिद करेंगे, मगर उन्हें पर्स नहीं मिलेगा। अगर मिल गया तो उसमें 500 का नोट होगा……. क्या समझे? बस यही है अल्मोडि़या चाल।

अल्मोड़ा में कई साल नौकरी करने के बाद एक सज्जन ने नैनीताल में एक लतीफा सुनाया था। किसी के धर मेहमान आ गये एक बार दोपहर के भोजन के कुछ पहले। दुआ-सलाम और चाय-पानी के बाद इधर-उधर की बाते होने लगी। बातचीत के बीच में मेजबान ने एक बार रसोई की ओर मुॅह उठा कर कहा कि यार आज खाना बनेगा या नहीं? जवाब आया कि चावल चढ़ा दिये हैं। बन ही गया समझो। इस पर मेजबान ने नाराजगी व्यक्त करते हुए जो कहा वही असल लतीफा है। उसने कहा, भाई साहब पचास मील दूर से सपरिवार खा-पीकर यहॉ पहुॅच गये और तुम लाट के बच्चों से दो मुठृ चावल नहीं उबले अभी तक!

मेरे पिता जो ज्यादातर समय अल्मोड़ा से बाहर रहे और आखिर के पचीसेक साल अल्मोड़ा में। वे अल्मोड़ा को तोड़कर बोलते थे, ‘अल मोड़ा। मतलब आधा मोड़ा। ससुर न जी पावें न मर पावें।’

कइयों का मानना है कि इस शहर में बड़ी ही कुत्ती किस्म की पॉलिटिक्स है। भले-भलों की समझ में नहीं आई यहॉ की राजनीति। चोर को आपके धर कर नक्शा दिखाकर चोरी के लिए उकसाते हैं और आपसे कहेंगे भाई साहब जागते हुए सोइये। सुना है चोरों का एक बड़ा गिरोह आया हुआ है शहर में। चुनाव प्रचार में आपके लिए दिन-रात एक कर देंगे लेकिन वोट आपके विरोध में दें आयेंगे। गांधी जैसा कॉइयॉ और जात का बनिया राजनीतिज्ञ नहीं समझ पाया इस शहर की राजनीति को। पाल्थी मारे बैठा है और आज तक इस गुत्थी को नहीं सुलझा पाया। इस शहर में गांधी की मुर्ति बैठी अवस्था में है, जो दुर्लभ है और इसका भी अपना प्रतीकात्मक महत्व है………।

चौधानपाटा में स्थित इस मूर्ति के मूर्तिकार डॉ. अवतार सिंह पॅवार अब तो रहे नहीं अन्यथा यह दिलचस्प सवाल उनसे किया जा सकता था कि गांधी का यह बुत बैठी हुई मुद्रा में क्यों बनाया? इसके पीछे मूर्तिकला संबधी कोई तकनीकी मजबूरी थी या उन्हें भी अल्मोडि़या चाल की जानकारी थी और वे अपने मूर्ती कौशल के जरिये इसे ही परिभाषित कर रहे थे?

अल्मोड़ा को प्रतिभाओं का कब्रिस्तान कहा है किसी ने। लेकिन प्रतिभाएॅ यहॉ पुष्पित-पल्लवित कम हो पाती हैं। खास इस शहर में रह कर तो कम ही हो पाती हैं। समय सीमा गुजर जाने पर फलास्क में रखी चाय की तरह होकर रह जाती हैं……।
यह शहर किसी प्रचंड प्रतिभा को भी अमूमन स्वीकार नहीं करता। जिसे यहॉ स्वीकृति मिल गई समझो कि वह वाकयी तोप चीज है। लोग तो नृत्य सम्राट उदय शंकर के यहॉ न टिक पाने का भी यही कारण बताते हैं……..।
एक साहब कहते हैं कि अल्मोडि़या चाल समझ में आने वाली चीज नहीं है, लाख सर पटको। जिस प्रकार भगवान साक्षात् दर्शन करने वाला भक्त भी भगवान की व्याख्या करने में असमर्थता जाहिर कर देता है, वही हाल इसका भी है……और फिर वह चाल ही क्या जो समझ में आ जाए। यूजीसी की फैलोशिप लेकर भी इस विषय में शोध करोगे तो कामयाबी नहीं मिलेगी। कुछ चीजें समझने की नहीं, जैसा आपको ठीक लगे उसके अनुसार झेलने या भाग खड़े होने की होती है……….।