कोसी की तरह अथक बही है बसंती बहन

जल और जंगलों के लिए खामोशी से काम करने वाली बसंती दीदी को मिला देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री पिथौरागढ़। जनपद पिथौरागढ़ निवासी…

basanti didi award

जल और जंगलों के लिए खामोशी से काम करने वाली बसंती दीदी को मिला देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री

पिथौरागढ़। जनपद पिथौरागढ़ निवासी बसंती देवी बसंती दीदी को देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री प्राप्त हुआ है। पर्यावरण संरक्षण के लिए जमीनी स्तर पर उनके काम को मान्यता देते हुए गणतंत्र दिवस के दिन सरकार ने उनको यह पुरस्कार देने की घोषणा की है।

अपने काम से राष्ट्रीय स्तर पर अब तक दो-तीन पुरस्कार हासिल कर चुकी बसंती दीदी कितनी खामोशी और लगन से जनता के सवालों से जुड़ी रही हैं, यह इस बात से भी पता चलता है कि उनको पद्म पुरस्कार दिए जाने की घोषणा होने के बावजूद उनके गृह जनपद में ही उन्हें जानने वालों की संख्या नगण्य थी। और इतना बड़ा पुरस्कार पाने वाली अपने ही जनपद की महिला है ये जानकर, लोग सुखद आश्चर्य में नजर आये।


संभवतः इसकी वजह ये भी है कि बसंती दीदी ने अपनी किशोरावस्था बागेश्वर जनपद के कौसानी स्थित लक्ष्मी आश्रम में बिताई, जो सरला बहन द्वारा स्थापित युवा लड़कियों के लिए एक गांधीवादी आश्रम है।

करीब 12 साल की उम्र में शादी के कुछ समय बाद ही 1980 में बसंती देवी विधवा हो गईं। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और जीवन की नई शुरुआत की। वह शादी से पहले स्कूल जा चुकी थी और पढ़ने में सक्षम थी। आश्रम में उन्होंने 12वीं कक्षा तक पहुंचने के बाद भी आगे पढ़ना जारी रखा और पढ़ाने में उनकी रुचि हो गई। अपने अध्यापन काल के दौरान हालांकि उनका मेहनताना कम था, लेकिन उनके पिता ने इस काम में ही अपनी सहमति जताए रखी।


धीरे-धीरे बसंती देवी पर्यावरण संरक्षण से जुड़ गई। वर्ष 2003 में उन्होंने एक अखबार में एक लेख पढ़ा, इसमें नदियों पर पेड़ों की कटाई के प्रभाव के बारे में बताया गया था। लेख में कहा गया कि पेड़ों की कटाई और जंगलों की आग के फैलाव को न रोका गया तो करीब 10 साल में कोसी नदी खत्म हो जाएगी। इन बातों ने बसंती दीदी को तत्काल कार्रवाई के लिए प्रेरित किया।

वह जंगलों को कटने से बचाने के लिए महिलाओं को समझाने और उन्हें संगठित करने में जुट गई। इन संघर्षों के दौरान एक बार सूखा पड़ने पर विवाद हो गया और पुलिस ने सिंचाई के लिए ग्रामीणों को पानी का इस्तेमाल नहीं करने दिया। हालातों से उपजे सवालों को वह महिलाओं के बीच ले गई और पूछा कि यदि कोसी सूख जाए तो क्या विकल्प बचेगा।

महिलाओं ने इस बात को स्वीकार किया उनके पास पानी का कोई स्थाई स्रोत नहीं है। उन्होंने महिलाओं को जंगल और पानी के बीच संबंध की बात भी समझाई। बसंती बहन ने सामुदायिक समूहों को संगठित किया और उनके अंदर अपने प्राकृतिक संसाधनों जल-जंगलों को संजोने की भावना प्रबल की। कौसानी क्षेत्र में लोगों ने जंगलों की आग से लड़ना और जंगलों का संरक्षण करना शुरू कर दिया।


लोगों ने यह स्वीकार किया कि वह अपने पारिस्थितिकी तंत्र के प्रबंधक हैं और इसके संरक्षण की दिशा में काम करने से क्षेत्र में सामाजिक पूंजी में भी वृद्धि हुई है। बसंती बहन क्षेत्र में काम करती थीं, आज महिला संगठन ग्राम पंचायतों में सक्रिय रूप से शामिल हैं।

वर्तमान में पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय के कुमौड़ क्षेत्र में परिजनों के साथ रह रही बसंती दीदी का मायका बस्तड़ी क्षेत्र में दिगाड़ा नामक गांव है, जबकि उनकी ससुराल उसी क्षेत्र के ख्वांकोट में है। जमीनी स्तर पर उनके काम को देखते हुए ही मार्च 2016 में बसंती दीदी को भारत में महिलाओं के लिए सर्वोच्च पुरस्कार नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

पर्यावरण के लिए फेमिना वूमेन जूरी अवॉर्ड 2017 की विजेता बसंती बहन ने उत्तराखंड में सूखी कोसी नदी को सफलतापूर्वक पुनर्जीवित करने के लिए एक दशक से अधिक समय तक अथक परिश्रम किया।