मौत् का तीसरा बड़ा कारण बन सकता है अवसाद

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर विशेष बड़ी बीमारी बनता अवसाद अबोध बच्चों को भी हम अनायास कहते सुनते हैं, मुझे टेंशन हो गया। हमारे आसपास…

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विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर विशेष

बड़ी बीमारी बनता अवसाद

अबोध बच्चों को भी हम अनायास कहते सुनते हैं, मुझे टेंशन हो गया। हमारे आसपास तनाव के ग्रसित युवाओं और बच्चों की आत्महत्याओं की खबरे कम नहीं है। नकारात्मकता और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में तनाव एक आम परिघटना और व्यवहार भी भाॅति हमारे जीवन का अंग बन गया है। तनावग्रस्त समाज का एक बड़ा तबका आत्महत्या, अलगाव, पलायन, नशावृत्ति, हिंसा जैसी परिघटनाओं का हिस्सा बन रहा है।
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की शुरूआत पहली बार 10 अक्टबूर 1992 से हुई। विश्व मानसिक स्वास्थ्य संघ के डिप्टी सेकेट्री जनरल रिचर्ड हंटर को इसका आगाज करने का श्रेय जाता है। उनके द्वारा इसके पूरे साल भर की गतिविधियों को तय किया गया। प्रारंम्भिक वर्षों में इसकी कोई विशेष रूपरेखा नहीं बन पाई। केवल जागरूकता एवं शिक्षा तक ही यह सीमित था। कुछ प्रयासों के बाद जल्द ही दुनियां के 27 देश इस अभियान से जुड़ गए।
विश्व के विभिन्न देशों खासकर विकासशील देशों और निर्धनता की श्रेणी में आने वाले देशों में अवसाद से जुड़ी समस्याऐं अधिक देखी जा रही है। विश्व में निर्धरता झेल रहे, आतंकवाद ग्रस्त और अभाव ग्रस्त क्षेत्रों में यह समस्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है।
अवसाद एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में देखी जा रही है। इससे जहां भारत को बड़ा सामाजिक व आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है वहीं लोगों में विकृति, विकलांगता और असमय मौत तथा भय को भी यह व्यापक रूप से फैलाने का काम करता है। अवसाद से पनपने वाले विकार बच्चों, किशोरों, और मध्य आयु वर्ग के लोगों को ही नहीं वृद्ध जनों को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। निम्न आय वर्ग के दयनीय जीवन जीने वालों में इसकी आवृत्ति अधिक देखी जाती है। अवसाद के अनेक कारण माने जाते हैं जिसमें जैविक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रमुख है, बाह्य कारण इसके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। खान पान की आदतों के साथ अनेक बीमारियों का शरीर को लगना भी अवसाद का प्रमुख कारण है। अवसाद की चरम अवस्था का आत्म हत्या व हिंसा से सीधा सम्बंध देखा जाता है। प्रारंभिक अवस्था में इसे पकड़ लेने से इसके प्रभाव को उपचार से कम किया जा सकता है। 2015 के आॅकड़े बताते हैं कि दुनियां में 31 करोड़ 50 लाख से अधिक लोग अवसाद से ग्रस्त थे।
जानकारों का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक यह दुनियां में मौतों को दूसरा और तीसरा बड़ा कारण बन सकता है। विश्व की आबादी के वर्तमान में लगभग 5 प्रतिशत लोग अवसाद ग्रस्त माने जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की आम सभा में 65 वें प्रस्ताव में विश्व में मानसिक स्वास्थ्य की चिंता करते हुए 2013 से 2020 तक इसके उन्मूलन की दिशा में काम करने का लक्ष्य भी रखा गया है। इसमें विश्व स्तर पर देशों में और देशों के बीच मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए कार्य करना, मानसिक विकारों को रोकने के लिए काम करने, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अकाल मौतों को रोकना, मानसिक विकार से ग्रस्त व्यक्ति को संरक्षण देना आदि सम्मिलित है। इसमें मानसिक रोगियों की संख्या को लक्षित रूप से कम करना, आत्महत्याओं की दरों को 10 प्रतिशत तक कम करना जैसे लक्ष्य निर्धारित किए गए थे।

क्या कहता है मानसिक स्वास्थ्य सर्वे

भारत सरकार के 2015-16 के आॅकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 6 प्रतिशत लोग जीवन पर्यन्त तनावग्रस्त हैं। प्रत्येक 20 में से एक युवा तनावगस्त है। इसके अतिरिक्त नगरीय क्षेत्रों में निवासित लोगों में,निरक्षरों में विधवाओं, तलाकशुदा महिलाओं व परितक्य महिलाओं में यह प्रतिशत अधिक देखा जा रहा है। भारत में वर्तमान में एक लाख की आबादी में मात्र 0.07 मनोरोग विशेषज्ञ उपलब्ध है। वहीं प्रति एक लाख आबादी पर मात्र 0.12 मनोरोग निदान सहायिका या नर्स उपलब्ध है। जिस कारण लोगों को उपचार नहीं मिल पाता। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के अनुसार भी भारत में मनोरोगियों अथवा मानसिक रोगियों हेतु उपचार अंतराल 86 प्रतिशत और आत्महत्या जोखिम वाले मामलों में 80 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त भारत में विभिन्न प्रकार की अक्षमता, विकलांगता, चोट , हिंसा, जन्म आदि के आधार पर आने वाली विकलांगता, दृष्टिबाधिता आदि भी मानसिक तनावों को लगातार जन्म दे रही है। इसमें व्यक्ति कार्यस्थल, परिवार अथवा सामाजिक रूप से अलगाव और उपेक्षा का शिकार होकर मानसिक रोगों से ग्रस्त हो रहा है। बढ़ती बेरोजगारी, नशे का बढ़ता प्रचलन, आधुनिक जीवन शैली व निजीकरण के दौर में जीवन की अनिशिचत्ता भी इसे लगातार बढ़ा रही है। विभिन्न बीमारियों की बड़त के पीछे तनाव को मुख्य कारण माना जाता रहा है। जानकार बताते हैं कि अनेक गैर संक्रमणीय बीमारियों को तनाव 30 प्रतिशत तक व मधुमेह जैसी बीमारी को 60 प्रतिशत बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होता है।
उत्तराखण्ड राज्य लगातार मानसिक रोगों के दबाव से गुजर रहा है। राज्य में बिगड़ता लिंगानुपात, नशाखोरी, संसाधनहीनता जैसे सामाजिक समस्याओं के साथ प्राकृतिक आपदाओं ने इसे बढ़ाने का काम किया है। समय-समय पर सरकार की इस बात को लेकर आलोचना होती रही है कि राज्य में मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में कोई उचित व्यवस्था नहीं है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी उत्तराखण्ड में मानसिक रोगों की बढ़त पर चिंता जताई है। एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के 2016 के उत्तराखण्ड में किए गए एक अध्ययन के अनुसार उत्तराखण्ड में यह दर अधिक है। लैंगिक असमानता और सामाजिक उपेक्षा इसके बड़े कारण है।
कारिन, मैथियाज, मेंटल हेल्थ प्रोग्राम आफिसर, स्वीडिस यूनिवर्सिटी, के अनुसार भारत में ‘‘1000 व्यस्कों में से 6 प्रतिषत मनोरोगी पाए गए। निम्न वर्गों, निर्धनों, अशिक्षितों, दमित जातियों में यह प्रतिशत अधिक पाया गया।
इसी प्रकार राज्य में विभिन्न क्षेत्रों में मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या, उनके सामान्य रोगियों के साथ रहने, तथा मनोरोग चिकित्सकों के अभाव पर चिंता जाताई जाती रही है।
टाइम्स आॅफ इण्डिया 1 अक्टूबर 2015 में डाॅ जे एस बिष्ट वरिष्ठ मनोरोग विषेषज्ञ, सेलाकुई मनोरोग संस्थान के अनुसार राज्य में 7 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मनोरोग से ग्रसित हैं।  राज्य में मनोरोगियों की बढ़ती संख्या और मनोरोगियों का सड़क में अमानवीय स्थिति में रहने के साथ मनोरोग ग्रस्त अथवा मानसिक रोग ग्रस्त बच्चों का विषम स्थितियों में परिवार अथवा अन्य संस्थानों में सामान्य लोगों के बीच रहने पर चिंता जताई गई। यह मामला उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में भी गया। 1 जून 2018 को नैनीताल हाईकोर्ट ने एक याचिका डाॅ विजय वर्मा बनाम भारत संघ की सुनवाई फैसले में राज्य सरकार को आने वाले 6 महीनों में राज्य में मानसिक रोगियों के अधिकार सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। याचिका में घरों में परिवार की श्रृंखला में रह रहे मानसिक रोग ग्रस्त बच्चों के हितों का उल्लेख किया गया था। न्यायालय ने मानसिक रोगियों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख करते हुए राज्य सरकार से उचित मुआवजा और पुनर्वास खर्च देकर इन बच्चों का उपचार कराने को कहा। याचिका में इस बात का भी उल्लेख था कि राज्य में बड़ी संख्या में सर्वाधिक 1421 मनोरोगी उधमसिंह नगर में हैं और अधिकांष सड़कों पर हैं। सेलाकुई देहरादून स्थित मनोरोग संस्थान में 2017 में मात्र 96 रोगियों को ही भर्ती किया जा सका है।