अमेरिका जैसा मैंने देखा भाग 1

डॉ. महेश परिमल अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी है, रटगर्स यूनिवर्सिटी। यहाँ हिंदी के लिए बहुत काम हो रहा है। वहाँ हर साल हिंदी सम्मेलन का…

अमेरिका


डॉ. महेश परिमल


अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी है, रटगर्स यूनिवर्सिटी। यहाँ हिंदी के लिए बहुत काम हो रहा है। वहाँ हर साल हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। इस साल उसमें भाग लेने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया था। आयोजन केवल तीन दिन यानी 3, 4 और 5 अप्रेल तक ही था, पर मैं वहाँ पूरे 19 दिन रहा। इसमें से तीन दिन तो न्यू जर्सी, 5 दिन बोस्टन और शेष दिन फिलाडेल्फिया में बिताए। इस दौरान खूब घूमना हुआ। कई संग्रहालय देखे। कई लोगों से परिचय हुआ। सबसे बड़ी बात यह रही कि अमेरिका में मुझे केवल अंगरेजी ही नहीं, बल्कि गुजराती, बंगला, पंजाबी और छत्तीसगढ़ी काम आई। अपने अनुभवों को शब्दों का रूप दे रहा हूँ। कहीं-कहीं अतिशयोक्ति हो सकती है। इसके लिए पहले से ही क्षमा चाहता हूँ।


मैंने कभी करीब से विमान नहीं देखा था। घरेलू उड़ान का भी मुझे अनुभव नहीं था। मेरे सामने इंटरनेशनल उड़ान का प्रस्ताव था। हतप्रभ था। भीतर से कहीं अंगरेजी न आने की पीड़ा भी थी। इसके बाद भी मैं निकल पड़ा, एक दूसरी ही दुनिया को करीब से देखने के लिए। भोपाल से निकलकर मेरा पहला पड़ाव था, दिल्ली के मित्र विनोद वर्मा का घर। निजामुद्दीन में उतरकर नोएडा स्थित सीधे उनके घर ही पहुँचा।

विनाेद भाई को विदेश यात्राओं को अच्छा-खासा अनुभव है। इसलिए उनके विदेश और विशेषकर विमान यात्राओं के अनुभवों को जाना। उन्होंने बड़ी सादगी से अपने अनुभव मुझसे बाँटे। कुछ हिम्मत बँधी। वे घर पर अधिक समय तक नहीं रह पाए। आवश्यक मीटिंग होने के कारण वे जल्द ही नौकरी के लिए िनकल पड़े। इसके बाद मोर्चा सँभाला, उनके पुत्र तथागत ने। उसने भी विदेश में एक वर्ष तक रहने और विमान यात्राओं के अपने अनुभव मुझे बताए। इसके बाद तो मैं चल निकला।

मेट्रो से मैं राजीव चौक तक पहुँच गया। उसके बाद वहाँ से सीधे एयरपोर्ट। बड़ा ही आल्हादकारी अनुभव। मेट्रो ने केवल 19 मिनट में ही मुझे एयरपोर्ट पहुँचा दिया। इस ट्रेन में आप चालक से लेकर गार्ड के डिब्बे तक आराम से पहँुच सकते हैं या अपनी सीट पर बैठकर दोनों दिशाओं की ओर देख सकते हैं। पूरी तरह से वातानुकूलित इस मेट्रो ट्रेन पर बैठना अच्छा लगा। एक तरह से यह विदेशी अनुभव का पहला पाठ ही था। जहाँ मुझे जाना था, उसके पहले ककहरे का ज्ञान मुझे मेट्रो में बैठकर ही हुआ। उसके बाद जब मेट्रो से उतरकर एयरपोर्ट पर पहुँचा, तो लगा कि क्या यही भारत है? चमचमाते फर्श पर फिसलती सामानों की ट्राली। जो अशक्त हैं, उनके लिए व्हीलचेयर या फिर छोटी-सी मोटरगाड़ी, जिसमें करीब 7 लोग एयरपोर्ट के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँच सकते हैं। एयरपोर्ट पर पहुँचकर सबसे पहले बोर्डिंग पास बनवाना होता है। यह टिकट होता है, जिसके आधार पर आपको यात्रा करने की अनुमति मिलती है। यहाँ मैंने देखा कि यदि आप किसी ने कुछ न पूछें, बल्कि एयरपोर्ट के दिशा निर्देशों का पालन करेंगे, तो आप सही स्थान पर पहुँच सकते हैं। कहाँ क्या करना है, वहाँ क्या होता है, यह सब-कुछ लिखा होता है, वह भी अंगरेजी में।

अबूधाबी में इंतजार करते यात्री

आपको यह जानकारी होनी चाहिए कि आपका टिकट किस एयरलाइंस का है, बस आप उस एयरलाइंस के काउंटर पर चले जाएँ, सब कुछ पता चल जाएगा। यहाँ एक बात देखने में आई, वह है अनुशासन। कोई भी कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे लाइन पर लगना ही होगा। वोर्डिंग पास देने के पहले आपसे काफी पूछताछ होती है। वे अधिकारी यह जानना चाहते हैं कि आप विदेश केवल घूमने ही जाना चाहते हैं, उन्हें यह शक होता है कि लोग पर्यटन का पास बनवाकर वहीं बस जाते हैं।

हालांकि ऐसे लोगों को खोज निकालना बड़ी बात नहीं होती। पर परेशानी इसी बात की होती है कि विदेश जाकर व्यक्ति अपना नाम-पता बदल देता है। यहाँ आपके बेग की पूरी तलाशी होती है। कहीं आप ऐसी कोई चीज तो नहीं ले जा रहे, तो विदेशों में प्रतिबंधित है। उनकी आपत्ति सबसे अधिक द्रव्य पदार्थ एवं अचार पर होती है। अचार को वे किसी भी तरह से खाने की चीज़ नहीं मानते। उनके लिए यह ज़हर से कम नहीं। बेग का वजन भी तौला जाता है। एक बेग का वजन 23 किलो के भीतर ही होना चाहिए। आप 46 किलो से अधिक का सामान अपने साथ नहींं ले जा सकते। इससे अधिक वजन होने पर उसका अलग से चार्ज वसूला जाता है। इसके बाद एयरपोर्ट अधिकारी से यह जवाब मिलता है कि यह बेग आपको आपके लास्ट डेस्टिनेशन पर मिलेगा। यात्रा के अंतिम पड़ाव यानी आप जहाँ जाना चाहते हैं, उसके आखिरी स्टेशन पर। इसके साथ का बेग जो करीब 7 या 8 किलो का होता है, उसे आप अपने साथ विमान में भी रख सकते हैं। इस बेग को साथ रखकर हमें कई सुरक्षा संसाधनों से गुजरना होता है। आपके बेग की स्केनिंग तो होगी ही, आप की जेब में जो कुछ भी है, उसे भी बाहर निकालकर एक ट्रे में रखना होगा। उन चीजों का भी स्केन होता है। इन चीजों में शामिल है, पर्स, जूते, बेल्ट, डायरी आदि।

आपके पूरे शरीर का भी स्केन होगा। ताकि यह पता चल सके कि आप अपने साथ कुछ भी आपत्तिजनक चीज नहीं ले जा रहे हैं। यह कार्य कई स्तरों पर होता है, इसलिए इसमें करीब डेढ़ घंटे का वक्त लग जाता है। इसके बाद आपको लाउंज पर बैठकर उस उद्घोषणा का इंतजार करना होता है, जो आपके विमान के बारे में होगी। इसके बाद सबके विमान में जाने की तैयारी होती है। यहाँ सभी के बोर्डिंग पास की बारीकी से जाँच की जाती है। काफी लंबी लाइन होती है। अपने बेग के साथ आप यहीं से सीधे विमान में प्रवेश कर सकते हैं।


विमानतल में प्रवेश से लेकर विमान में प्रवेश करने तक जितनी भी जाँच होती है, वह न केवल एयरपोर्ट बल्कि देश की सुरक्षा से भी जुड़ी होती है। विमान में यात्रियों के लिए तीन श्रेणी होती ेहै। पहली बिजनेस, यह वह श्रेणी है, जिसमें यात्री को पूरा एक कमरा ही दे दिया जाता है। जहाँ पर आराम से सोया भी जा सकता है। कमरे में सारी सुविधाएँ होती हैं। इसके बाद होता है फर्स्ट क्लास। इसमें यात्री को थोड़ी ज्यादा जगह मिलती है। विमान में प्रवेश करते ही हमें फर्स्ट क्लास की सीटें दिखाई देने लगती हैं। उसके बाद की श्रेणी होती है, इकॉनामी। इसमें केवल बैठने की सीट होती है। जिसमें यात्री को 12 से 14 घंटे तक बैठना होता है। सीट कुछ पीछे हो सकती है, जिससे कुछ आराम मिलता है। विमान के अंदर होने वाली तमाम गतिविधियां और सामने की सीट पर लगे टीवी के कारण यात्री बोर नहीं होता। सीट पर लगे टीवी से हिंदी, अंग्रेेजी फिल्में, टीवी शो और फिल्मी गानों का आनंद लिया जा सकता है। इसके अलावा विमान की तमाम गतिविधियां जैसे वह कहाँ से होकर गुजर रहा है, भीतर का तापमान कितना है, बाहर का तापमान कितना है, विमान की गति कितनी है, विमान कितने मीटर की ऊँचाई पर है आदि जानकारी भी मिलती रहती है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी होती है।


फिल्मों के बजाए हम अपना ध्यान इसी में लगाएँ, तो यात्रा सुखद और ज्ञानवर्धक बन सकती है। मैं दिल्ली से अबूधाबी पहुँचा, वहाँ सघन जाँच से गुजरना पड़ा। इस दौरान मैंने पाया कि किसी को कोई हड़बड़ी नहीं है। सभी इत्मीनान से अपना सामान लेकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं। जाँचकर्ता अधिकारी को पूरा सहयोग कर रहे हैं। कहीं किसी तरह की कोई बहस नहीं। सभी लोग प्रसन्नता पूर्वक अपने सामान की जाँच करवा रहे हैं। आगे जाने वाले यात्रियों के पास दूसरे विमान में जाने के लिए काफी वक्त था, इसलिए बिना हड़बड़ी के सारे काम संपादित होते रहे। थोड़ी-सी झुंझलाहट तब हुई, जब एक सघन जाँच के कुछ ही देर बाद दूसरी सघन जाँच से गुजरना पड़ा। पुन: वही प्रक्रिया। बेल्ट, जूते, मोजे, पर्स, मोबाइल, डायरी आदि सब कुछ ट्रे में रख दो,वह ट्रे स्केनर से होकर गुजरेगी। यदि कुछ गलत पाया गया, तो आपको रोक लिया जाएगा।


इसके बाद भी एक और पूछताछ से गुजरना होता है। आप किस देश में जा रहे हैं और क्यों? वहाँ जाकर क्या करेंगे? वहाँ आपके रहने का पता-ठिकाना क्या होगा? आपको अंगरेजी नहीं आती, पूछने वाला यदि अंगरेज है, तो यहाँ भाषा नहीं, हमारा आत्मविश्वास काम आएगा। वह हमारी आँखों को ही पढ़कर हमारी ईमानदारी को पहचान जाता है। मेरे-उसके बीच थोड़ी-बहुत बातचीत हुई, जिससे वह समझ गया कि यह केवल हिंदी सम्मेलन में भाग लेने जा रहा है।

न्यूयार्क एयरपोर्ट में भूप्पी अपने परिवार के साथ लेने आए

वैसे उनके पास हमारी दी हुई सभी जानकारियाँ होती हैं। इसके बाद भी वे अवश्य पूछते हैं कि आपका लौटना कब होगा? वहाँ जाकर अाप क्या करेंगे? किस तरह से करेंगे? इस तमाम बातों से संतुष्ट होकर वह एक निश्चित ितथि तक आपको उस देश में रहने की अनुमति देते हैं। मुझे अक्टूबर तक यानी छह माह तक अमेरिका में रहने की अनुमति मिली थी। इसके बाद भी वहाँ काफी समय तक आराम करने का अवसर मिला। अबूधाबी से न्यूयाके के लिए विमान सुबह 5 बजे रवाना हुआ। कुछ देर बाद सुबह का नजारा विमान से देखा। बहुत ही अच्छा लगा। विमान दिन भर उड़ता रहा। इसी बीच करीब 13 घंटे की यात्रा पूरी होने के कुछ घंटे पहले एक सूर्योदय और देखा। उस समय विमान कहाँ से उड़ रहा था, यह समझ नहीं आया। पर एक ही दिन में दो सूर्योदय देखना अपने आप में एक सुखद अनुभव था। जब भारत में शाम के पौने 6 बज रहे थे, तब न्यूयार्क में सुबह के सवा नौ बज रहे थे। उसी समय विमान न्यूयार्क एयरपोर्ट पर उतरा। वहाँ मेरे साथी भूपिंदर, अपनी पत्नी और प्यारी-सी बिटिया अर्पण को लेकर मेेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे देखते ही भूप्पी ने मुझे बुरी तरह से अपनी बाँहों में जकड़ लिया। बाँहों की जकड़न आज भी याद है। इस जकड़न में था, उनका प्यार, विश्वास और अपनापन। जिसका मैं पूरी अमेरिका यात्रा के दौरान कायल रहा।


अब अगले भाग में लिखूंगा, अमेरिका की यातायात व्यवस्था पर….

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डॉ. महेश परिमल