अल्मोड़ा और अल्मोड़ा की पटाल

जब कही भी अल्मोड़ा का जिक्र होता है तो अल्मोड़ा की पटाल की बात भी जुबान पर आ ही जाती है। हालांकि अब अल्मोड़ा में…

PATAL BAZAR

जब कही भी अल्मोड़ा का जिक्र होता है तो अल्मोड़ा की पटाल की बात भी जुबान पर आ ही जाती है। हालांकि अब अल्मोड़ा में पटाल बाजार बीते दिनों की बाते ही रह गयी है। मशहूर व्यंगकार और अल्मोड़ा की पहचान शंभू राणा का यह लेख उन दिनों का है जब अल्मोड़ा बाजार में लगी पटाले अपनी अंतिम सांसे ले रही थी। अब से लगभग 14 वर्ष पूर्व अल्मोड़ा बाजार की शान कही जाने वाली स्थानीय पत्थर की पटालों को बदलकर कोटा स्टोन लगा दिया गया है। पेश है शंभू राणा का यह आलेख

अल्मोड़ा की पटालों का क्या करिये

बीते दिनों की बाते है अब अल्मोड़ा की पटाल बाजार

 

शंभू राणा

अल्मोड़ा शहर की खूबियों में एक यह भी गिनायी जाती है कि शहर के सारे रास्तों और गली-मोहल्लों में पटालें बिछी हुई हैं। वाकई यह एक बड़ी खूबी है और गर्व करने लायक बात है। पटालें उत्तराखण्ड की परंपरा व संस्कृति का हिस्सा रही हैं। पटालों की छतें न सिर्फ हर लिहाज से अच्छी मानी जाती हैं, बल्कि आकर्षण भी लगती हैं। अल्मोड़ा शहर में तो पटालें ओढ़ना और बिछौना दोनों ही थीं और काफी हद तक आज भी हैं। नाज है अल्मोड़ावासियों को पटालोें से पटे रास्तों पर।

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अब जो यह राज और गर्व वाली बात है, इस पर जनता हमारे राजनीतिक दलों की तर्ज पर दो धड़ो में बॅटी नजर आती है- जिसे मत विभाजन भी कह सकते हैं। एक धड़ा वह है, जो पटालों को संस्कृति, परम्परा, खूबसूरती और अनोखेपन की दलीलें देकर बनाए रखने के पक्ष में है। दूसरा धड़ा कहता है कि नहीं जी, फैंको सालोें को। कंक्रीट करो, हाॅटमिक्स करो। आये दिन लोग फिसलते हैं, टाॅगें टूटती हैं, कीचड़ उछलता है। क्या कीचड़ उछालना, टाॅगें तोड़ना हमारी संस्कृति है? अब यह तो ऐसी ही बात ठहरी जैसे कोई कहे कि साहब हमारे दादाजी बड़े देवता टाईप के आदमी थे। उन्होेंने दोनों विश्व युद्धों में भाग लिया और विक्टोरिया क्राॅस विजेता थे। अरे बड़े बहादुर थे, कुल्हाड़ी से शेर मार देते थे। और धुरड़-काॅकड़ तो उनके लिए बकरी जैसे ही ठैरे। यॅू ही सींग पकड़कर ले आते थे। 22 लड़के थे उनके, लेकिन पिछले 25 सालों से मृत्यु-शैयया पर लेटे हैं। 103 बरस के हो गये पर मरते नहीं। दिन भर बलिया नाले की तरह आवाज करते हैं और रात भर कराहते हुए खाॅसते हैं। हम तो उनकी दवाओं में ही उजड़ गये। भला ऐसे ‘ग्रेट’ बाबाजी का क्या कीजिए, जो खुद तो देवता कहलाते हैं मगर आप की जिन्दगी को साक्षात नरक बनाए लेटे हैं और आपसे अपना पाखाना धुलवा रहे हैं। क्या करें इन दादाजी का क्या, मुरब्बा बनाके रख लें मर्तबान में? ऐसा ही हाल इन पटालों का हैं– वगैरा वगैरा। इस दलील में भी कहीं से सेंध लगाने की गंुजाइश नहीं हैं। गनीमत है कि अभी तक दो ही धड़े हैं। कोई आश्चर्य नहीं जो कल को कंक्रीट और हाॅटमिक्स वाले भी एलानिया दो धड़ों में बॅट जाएॅ तो क्या करें?

शहर के एक युवा सुरेश बिष्ट का मानना है कि पटालों को अगर बचाया जा सके तो इसके लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। चाहे नयी पटालों ही क्यों न खुदवानी पड़े। खुदान पर प्रतिबन्ध जनता के लिए है, सरकार के लिए तो नहीं। हाॅ, अगर नहीं ही बच सकती हैं तो भावुकता छोड़कर इन्हें विदा कर ही दीजिए। लेकिन उनका यह भी दावा है कि अगर पटालों को वैज्ञानिक तरीके से बिछाया जाए तो फूल सी मारूति क्या चीज ठैरी, उस पर रोड रोलर चला लीजिए। अगर पटालों में बाल भी पड़ जाए तो देख लीजिए। आप यही मैं यहीं। नालियों को व्यवस्थित किया जाये। वैज्ञानिक तरीके से उनका तात्पर्य यह है कि पटाल को बिछाने से पहले मिटृी को इतना दबाया जाये कि उसे ‘पसीना’ आ जाये और वह हार कर कहे बस! वे कहते हैं कि इसमें जो समय और श्रम लगता है, क्या आप उसका ठीक-ठीक मेहनताना मजदूर को देते है? जाहिर-सी बात है कि नहीं देते और नतीजा सरेराह बिखरा पड़ा है।

यह भी अपने आप में एक राय है और बड़ी दम-खम वाली राय है। पर इसका क्या कीजिए कि ये पटालें घिस-घिस कर चिकनी हो चुकी हैं। आये दिन लोग फिसलकर जख्मी होते हैं या टाॅग तुड़वा बैैठते हैं। कोई साहब बता रहे थे कि एक लड़की अपनी शादी से सप्ताह भर पहले बाजार में फिसल कर चोट खा गयी। शादी के दिन फेरों के वक्त दूल्हे का बाप बिफर पड़ा कि नहीं जी, हम एक अपाहिज लड़की को ब्याह कर नहीं ले जायेंगे। हमारे साथ धोखा हुआ है। दिखाते वक्त तो हमें चाॅद सी लड़की दिखाई और असल बात समझायी कि साहब, आप चिन्ता न करें। लड़की का यह लंगड़ापन अस्थाई है और दुल्हन के श्रृंगारदान में आयोडैक्स की शीशियाॅ रख दी गयी हैं।

शहर भर के सारे रास्तों में बिछी हुई शायद ही कोई पटाल ऐसी हो कि जिसेे एक तहफ से चिकनी होने पर पलट न दिया गया हो। पटालें दूसरी ओर से भी चिकनी हो चुकी हैं। सिक्के की तरह पटालों के भी दो पहलू होते हैं। तीसरी बार उन्हें नहीं पलटा जा सकता। एक मजाकिया सुझाव यह भी है कि लाला बाजार से पलटन बाजार तक की पटालों का चिकनापन दूर करने का ठेका सिल-बटृा बनाने वालों को दे दिया जाये।

बिछी हुई पटालें निरंतर कम होती जा रही हैं। क्योंकि जागरूक नागरिक देश की संपत्ति में से अपना हिस्सा लेने से नहीं चूकते। किसी को कपड़ों में साबुन घिसने के लिए एक बड़ी सी पटाल चाहिए तो किसी को, खासकर दुकानदारों को सड़क और दुकान के बीच पुल चाहिए। ऐसे में वह चैड़ी और मजबूत पटालें कहाॅ मिलेंगी? जाहिर सी बात है कि सड़क से ही आएंगी। पटालें उठाकर ले जाने की सुविधा जाने-अनजाने विधुत विभाग और दूर संचार विभाग मुहैया करवाते हैं, जो कि आये दिन रास्ते खोदकर पटालें उठा-उठाकर किनारे रखते नजर आते है।

इधर-उधर से पटालें छाॅट लिये जाने का ही नतीजा है कि पटालें कम हो गयी हैं और वे अपनी जगह पर जम कर टिक नहीं पाती। पटालों के नीचे मिटृी ठोस नहीं रह पाती। बारिश में उनके नीचे कीचड़ जमा हो जाता है, जो कि दबाव पड़ते ही उछलकर आपका मुंह चूम लेता है। कई बार ये ढीली पटालें पाॅव पड़ते ही आपस में रगड़ खाकर ऐसी नाकाबिले बयान आवाजें पैदा करती हैं कि राह चलते लोग एक-दूसरे को घूर कर देखते हैं और सोचते हैं बड़ा बदतमीज आदमी है और जब कीचड़ से आपका जूता सन जाता है या आपकी वजह से दूसरों पर कीचड़ उछलता है, तो यही जी करता है कि ‘नहीं जी, उखाड़ो सालों को फैंको’ वाली पार्टी में शामिल हो जाएॅ।