परिवर्तन : आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त हो रही काली कुमाऊं की परंपराएं

ललित मोहन गहतोड़ी अभी दो तीन दशक पहले तक काली कुमाऊं में ढोल नगाड़े, तुरी, पिपरी, मशकबीन आदि बारात की शान हुआ करते थे। शादी…

ललित मोहन गहतोड़ी

अभी दो तीन दशक पहले तक काली कुमाऊं में ढोल नगाड़े, तुरी, पिपरी, मशकबीन आदि बारात की शान हुआ करते थे। शादी के दिन दूल्हे के घर से नाचते झूमते छोलिया के साथ साथ बारात आगे बढ़़ती। इस दौरान छबीली गाते हुए बाराती मदमस्त नाचते गाते। बीते दौर में बैंड और डीजे ने हंसी ठिठोली को कानफोडू शोरगुल में गुम कर दिया है। उधर जयमाला के रूप में फोटो सेशन में लग रहे अतिरिक्त समय ने परंपराओं पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर लिया है। अब एक तरफ डीजे और दूसरी ओर जयमाला का फोटो सेशन। और सामने लगे टेंट में खाना पीना निपटाकर सरपट खिसकते बाराती घराती।

लगभग तीन दशक पहले एक बारात में बतौर बाराती जाने का अवसर मुझे मिला। तब मैं छोटा बच्चा था उम्र रही होगी यही कोई १०-१२ वर्ष। यह पहली बारात थी जिसमें मैं शामिल हो रहा था और मैं काफी उत्साहित भी था। तब तक मैं बारात का भावार्थ यही समझता था कि इधर से दूल्हे ने बाजे गाजे के साथ मुकुट पहनकर जाना और उधर से मुकुट पहना कर दुल्हन को लाना बस। उस दिन बारात में शामिल होकर मैंने समझा कि बारात महज मुकुटों की रस्म अदायगी नहीं उसके भी आगे बहुत कुछ है। यहां बारातियों और घरातियों के बीच हास परिहास, मंगल गीत, सकुन आंखर, सहेलियों के बीच बारातियों की टांग खिंचाई। पंडित जी की रसोई में बना स्वादिष्ट और सुपाच्य भोजन। उधर हास परिहास के बीच सात फेरे सात बंधन और दो दिवसीय वैवाहिक रस्म अदायगी। जो अब धीरे धीरे वन डे डीजे के शोरगुल में खोने लगा है। पंडित जी की रसोई की जगह कैटरिंग वालों ने। ढोल दमाऊं की जगह बैंड बाजे और डीजे ने अपनी जगह बना ली है। धीरे-धीरे लुप्त हो रही परंपराओं के नाम पर महज रस्म अदायगी ही शेष रह गई हैं। आप हम सबकी पहचान हमारे आस पास के समाज से है। हम परंपरा निर्वाह के चलते समाज का अभिन्न हिस्सा है जो हमें समाज से जोड़े रखने में सहायक हैं। लेकिन कुछ समय पहले से समाज में आ रहे परिवर्तन के चलते हम अपनी प्राचीन परंपराओं को दरकिनार करते जा रहे हैं। शादी विवाह में ढोल दमाऊं के वजाय बैंड भांगड़ा को अपनाते जा रहे हैं। साली जीजा, जेठू साढ़ू और समधी समधन के हास परिहास की जगह डीजे के कानफोडू संगीत में ढ्याक चिक ढ्याक चिक का शोरगुल सुनने को मजबूर हैं। इस बदलाव भरे नये रस्मों रिवाजों के बीच हमारी संस्कृति और परम्पराओं के निर्वहन में मौलिकता का अभाव हो गया है। पुराने रस्मे रिवाजों पर आधुनिकता हावी होने लगी है। हसी ठिठोली और वाद संवाद की जगह फूहड़ता और कान फोड़ते गीत संगीत ने ले ली है।