शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 20

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है, श्री पुनेठा मूल रूप से…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

आपराधिक प्रवृत्तियाँ गलत परिवरिश का परिणाम

समाज में बढ़ती जा रही आपराधिक प्रवृत्तियों-छल-छद्म, क्रूरता, बेईमानी, चोरी, हत्या, बलात्कार आदि पर सभी अपनी चिंता व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं। अब तो यह हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल हो गया है। इस बात पर बल दिया जाता है कि कठोर से कठोर कानून बनाकर ही इन पर अंकुश लगाया जा सकता है। कानून का भय ही इनको रोक सकता है। पर अनुभव बताते हैं कि दुनिया में मृत्युदंड जैसे कानून भी आपराधिक गतिविधियों को रोक पाने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। भय से किसी व्यक्ति को एक अच्छा इंसान नहीं बनाया जा सकता है। यह दूसरी बात है कि उसे कुछ देर के लिए गलत करने से रोक भले ही लें। अवसर मिलते ही वह अपराध कर डालेगा। जैसे ही कानून का तोड़ मिलेगा, उसका भय जाता रहेगा। हिटलर जैसी प्रवृत्ति रखने वाले लोगों को क्या कोई काननू अपराध करने से रोक सकता है? कोई भी कानून अपराधों को तो कम कर सकता है पर आपराधिक मानसिकता को समाप्त नहीं कर सकता।
दरअसल किसी भी समस्या को दूर करने के लिए उसके कारणों की जड़ में जाना जरूरी होता है। हमें आपराधिक मानसिकता के कारणों को भी जानना होगा। इनकी जड़ कहाँ है? हम इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि आपराधिक प्रवृत्तियों वाले लोग मानसिक रूप से बीमार लोग हैं। इनकी बीमारी के कारण कहीं न कहीं उनके बचपन में छुपे होते हैं जो उम्र के बढ़ने के साथ-साथ बाहर प्रकट होने लगते हैं।

बच्चा बड़ा होकर कैसा नागरिक बनेगा? इस पर दो बातों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है-पहला,बच्चे का परिवेश और दूसरा, उसके साथ बड़ों द्वारा किया जाने वाला व्यवहार। परिवेश को लेकर सभी एकमत हैं कि बच्चा अपने आसपास जो देखता है या जिस तरह के परिवेश में रहता है, उसका बच्चे के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उसके भीतर कम या ज्यादा जितनी भी हों वही गुण-अवगुण या प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं, जो उसके आसपास रहने वाले लोगों में मौजूद होती हैं। पर बच्चे के साथ बड़ों के द्वारा किए जाने वाले व्यवहार का प्रभाव उससे अधिक गहरा और दीर्घकालीन होता है। उसके निशान बच्चे के व्यक्तित्व पर स्थायी होते हैं।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चा जन्म से अच्छा या बुरा पैदा नहीं होता है। अच्छा-बुरा वह इस दुनिया में आकर बनता है। उसमें दोनों प्रवृत्तियाँ होती हैं। घृणा और दमन से अपराध पैदा होता है तथा प्रेम और स्वतंत्रता से रचनात्मकता। बच्चों की पिटाई-फटकार और उनकी इच्छाओं का दमन उन्हें क्रूर बना देता है। उनके भीतर बदले की भावना पैदा कर देता है। बच्चा कमजोर होने के कारण भले तुरंत बदला न ले सके लेकिन उसके अचेतन में यह भाव बैठ जाता है। जब भी मौका मिलता है वह बाहर फूट पड़ता है। माता-पिता या शिक्षक का बुरा व्यवहार बच्चे को बहुत नुकसान पहुँचाता है। उनकी फब्तियाँ बच्चे के संवेदनशील मन पर गहरी चोटें करती है। तिरस्कार व ताने बच्चे को क्रूर-आपराधिक और विकृत मानसिकता वाला बनाते हैं। जब हम बच्चे की पिटाई करते हैं या उस पर फब्तियाँ कसते हैं तो हम यह भूल जाते हैं कि बच्चे की भी अपनी गरिमा होती है। हम यह सोचते हैं कि हम बच्चे को पीटकर या फटकार लगाकर उसकी गलत आदतों को ठीक कर रहे हैं। उसका भला कर रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि हम उसके भीतर हीनता बोध पैदा कर देते हैं। बच्चे के प्रति हमारा यह व्यवहार दूसरों की नजर में तो बच्चे का मान-सम्मान घटा ही देता है, खुद अपनी नजर में भी बच्चा गिर जाता है। उसको लगने लगता है कि शायद मैं हूँ ही ऐसा जैसा मेरे बड़े मेरे बारे में कह रहे हैं। वह खुद से घृणा करने लगता है। खुद से घृणा करने वाला भला दूसरों से प्रेम कैसे कर सकता है? बच्चे पर ताने मारना उसे मानसिक आघात पहुँचाता है। उसके भीतर आपराधिक प्रवृत्तियाँ पैदा करने का कारण बनता है। गलत संगत या परिवेश पाकर इनमें तेजी से वृद्धि होने लगती है।

यह धारणा गलत है कि आपराधिक प्रवृत्ति जन्मजात होती है। यह औपनिवेशिक धारणा है जिसके तहत कुछ जातियों को हमेशा के लिए आपराधिक जाति घोषित कर दिया गया। प्रेम, प्रशंसा और आजादी से वंचित बच्चे आपराधिक प्रवृत्तियों के शिकार हो जाते हैं। इसीलिए प्रसिद्ध शिक्षाविद् जे0कृष्णमूर्ति कहते है, ’’हमारे स्कूलों में किसी तरह के बल-प्रयोग जोर-जबरदस्ती धमकी और क्रोध को समग्रतः और पूर्णतः दूर रखा जाना चाहिए क्योंकि ये सभी चीजें हृदय और मन को कठोर बना देती हैं। क्रूरता के साथ स्नेह का सहअस्तित्व नहीं हो सकता है।’’

दरअसल जब हम किसी भी कारण से बच्चे के साथ डाँट-डपट या उसकी पिटाई करते हैं तो केवल उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं कर रहे होते हैं बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से एक गलत संदेश भी दे देते हैं कि यदि कोई गलती करता है तो उसके साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए। जबकि यह व्यवहार पूरी तरह अलोकतांत्रिक है। फलस्वरूप बच्चा भी इसी तरह का व्यवहार न केवल दूसरों के साथ करने लगता है बल्कि उसको जस्टीफाई भी करता है। इसलिए बच्चों के साथ इस तरह का व्यवहार बहुत खतरनाक है। जो न केवल बच्चे को नुकसान पहुँचाता है बल्कि एक अलोकतांत्रिक व्यवहार को समाज में स्थापित करता है।

प्रेम और आजादी प्रदान कर हम बच्चे को अपराध करने से रोक कर सकते हैं। बचपन में बच्चे के साथ किया जाने वाला व्यवहार उसके भविष्य को तय करता है। बच्चे की गलत परिवरिश बच्चे को बरबाद कर सकती है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि यदि बच्चे के ऊपर किसी प्रकार का भय या नियंत्रण नहीं होगा तो बच्चा बिगड़ जाएगा। जबकि वास्तविकता यह है कि भय बच्चे को बिगाड़ देता है। उसके भीतर कुंठा, दब्बूपन, नैराश्य और अन्य विकृतियाँ पैदा कर देता है। बच्चों को अनुशासित करने का यह तरीका बड़ों के लिए जितना आसान है, बच्चे के भविष्य के लिए उतना ही खतरनाक। बड़े अपने काम को सरल करने के लिए भय का सहारा लेते हैं और भूल जाते हैं कि इससे बच्चे और अंततः समाज को कितना नुकसान पहुँचा रहे हैं। अति अनुशासन मानवता के भविष्य के लिए घातक है। बच्चा मनोरोगी हो जाता है।

अकेलापन और उपेक्षा भी बच्चों में तनाव, कुंठा और संवादहीनता पैदा कर उन्हें आपराधिकता की ओर धकेलती है। अकेलापन बच्चों के अंदर गुस्सा पैदा करता है और उन्हें क्रूर बनाता है। बच्चे को दुनिया शुष्क और फीकी प्रतीत होती है। उसका स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होने लगता है। ऐसे बच्चों में नशा करने की आदत और यौन विकृतियों की संभावना बढ़ जाती है। या फिर वे आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने लगते हैं। यौन विकृतियाँ बच्चों को यौन अपराधों के लिए भी प्रेरित करती हैं। पहली नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट बताती है कि नाबालिग किशोरों द्वारा अंजाम दी जाने वाली बलात्कार की घटनाओं में 188 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके पीछे कहीं ना कहीं उक्त कारण ही जिम्मेदार हैं।
बच्चों की आपस में तुलना करना भी उन्हें क्रूर बना देता है। जब हम किसी एक बच्चे की तुलना दूसरे से करते हैं तो ऐसा करते हुए बच्चे के भीतर हम दो तरह की ग्रंथियाँ पैदा कर देते हैं-पहला,उसके भीतर हीनता का भाव और दूसरा, दूसरे बच्चे के प्रति ईर्ष्या का भाव। संतुलित व्यक्तित्व के लिए ये दोनों भाव ही घातक हैं।

यदि सुंदर अपराधमुक्त समाज बनाना है तो हमें प्रत्येक बच्चे को सुंदर और गरिमामयी बचपन देना होगा। उसे घृणा, सजा और दमन से बचाना होगा। उसे उपेक्षा और एकाकीपन से बचाना होगा। बड़ों को अपने व्यवहार को संतुलित बनाना होगा। अपने छोटे-छोटे स्वार्थों की पूर्ति के लिए मानवीय मूल्यों की उपेक्षा नहीं करनी होगी।

कुछ लोग यह मानते हैं कि नैतिक शिक्षा या उपदेश देकर बच्चे को आपराधिक प्रवृत्तियों से बचाया जा सकता है। पर ऐसा नहीं है। शायद ही कोई परिवार या स्कूल ऐसा होता होगा जहाँ नैतिक प्रवचन बच्चों को न दिए जाते हों। हमारे समाज में हर बड़ा बच्चों को उपदेश देने में कहाँ पीछे रहता है। पर कितना असर है उसका, दिखाई दे रहा है। दरअसल हम यह भूल जाते हैं कि-जहाँ शब्द नहीं पहुँचते वहाँ कर्म पहुँचता है। बच्चा शब्दों को नहीं, कर्म को देखता है। अपने माता-पिता-शिक्षक और आसपास के वातावरण को देख बच्चा स्वयं मूल्यों को आत्मसात करता है। बच्चे को दिए जाने वाले उपदेशों की अपेक्षा उसके साथ किए जाने वाला व्यवहार और उसका परिवेश उसके व्यक्तित्व निर्माण में अधिक कारगर भूमिका का निर्वहन करता है। इसमें परिवार की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यह माना जाता है कि बच्चा प्रारंभिक वर्षों में सबसे अधिक सीखता है। जैसा कि अपने एक निबंध ’शिक्षा का नया आदर्श’ में प्रेमचंद भी लिखते हैं,’’शिशु के पहले पाँच-छः साल मनुष्य को जैसा बना देते हैं, वैसा ही वह बन जाता है।….इसी उम्र में बच्चे हमारे अज्ञान के कारण झूठ बोलना, झूठे बहाने करना और चोरी करना सीखते हैं। इसी उम्र में आलस्य की और आरोग्य के विरुद्ध आचरण करने की आदत पड़ती है। इसी उम्र में वे जिद्दी ,स्वार्थी और कायर होते हैं।’’

बच्चों को अच्छी परिवरिश वे ही माता-पिता दे सकते हैं, जो खुद कुंठाओं और तनावों से मुक्त हों। अब यहाँ एक यक्ष प्रश्न है कि ऐसे माता-पिता जो गरीबी-शोषण-उत्पीड़न में जीवन जी रहे हैं, जिनका जीवन अस्थिर-अनिश्चित-असुरक्षित और तमाम भय-आशंकाओं से भरा हो, उनसे कैसे आशा की जा सकती है कि वे अपने बच्चे को स्वस्थ ,सुंदर एवं भयमुक्त बचपन दे पाएंगे ? इस पर भी विचार किया ही जाना चाहिए तभी एक सुंदर समाज की कल्पना कर सकते हैं।

 

जारी ……………………………