रंगो के पर्व (Festival of colors) होली के मायने: होली का उत्सव और जीवन में रंग भरने का उत्साह

Festival of colors

Festival of colors

6 मार्च 2020

फागुन की घड़ियां आई हैं। हर तरफ रंगों की बहार है (Festival of colors)। रंगों की बौछार हो भी क्यों ना। आखिर लाल, गुलाल, हरे रंगों का त्योहार जो हुआ।

हिंदू धर्म में यह त्योहार काफी मायने रखता है। बिन रंग के इस मास की कल्पना नहीं की जा सकती। बिन रंग के हिंदू समाज की बात फीकी-फीकी सी लगती है। होली(Festival of colors) को खुशी मनाने, नाचने-गाने का त्योहार माना गया है। सभी लोग रंगों में रंग कर बैर भाव मिटाकर मिलते हैं।

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इस त्योहार में हिंदू-मुसलमान के बीच का फर्क नहीं होता, बल्कि दोनों में यदि रंग होता है तो वह है अबीर, गुलाल का।

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कुमाऊँ की थात है-‘होली‘। ‘होली‘ कुमाऊँ का मनाया जाने वाला पर्व है, जिसको यहां ‘फाग’ के रूप में भी जाना जाता है। ‘काठक गृह्य सूत्र‘ के एक सूत्र की व्याख्या में टीकाकार देवपाल ने ‘होली के पर्व को एक विशेष कर्म कहा है।‘ इसका उल्लेख ‘कामसूत्र‘ में तथा जैमिनि के अनुसार भी इस पर्व का आरम्भिक शब्द ‘होलाका‘ था। जैमिनि तथा ‘काठक गृह्य सूत्र‘ में भी इस पर्व का उल्लेख होने से स्पष्ट होता है कि होली का पर्व ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से प्रचलित था। ‘कामसूत्र‘ एवं ‘भविष्योत्तर पुराण‘ इस पर्व को वसन्त ऋतु से सम्बद्ध करते हैं। पूर्णिमान्त गणना के अनुसार यह उत्सव वर्ष के अन्त में होता था, किंतु वही परम्परा अभी चली आ रही है। इस उत्सव के अवसर पर उमंग भरे गीत, नृत्य और संगीत बसन्त आगमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक है। होली का पर्व वस्तुतः हर्ष, उल्लास और ऋतु परिवर्तन का ही पर्व है, जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है।

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वात्स्यायन ने भी अपने ग्रंथों में कई जगह ‘मदनोत्सव‘ का उल्लेख किया है। हमारे भारतीय साहित्य में वैदिक युग से ही उत्सवों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं तथा इनसे विदित होता है कि स्त्रियां पर्वों तथा उत्सवों में पुरुषों के साथ मनोविनोद करती हैं। वैदिक वाड़्मय से ज्ञात होता है कि उस समय स्त्रियों की दशा बहुत उच्छी थी तथा वे पर्वों एवं उत्सवों में खुलकर भाग लेती थीं। कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम् बसन्तोत्सव‘, जिसे ‘मदनोत्सव‘ भी कहा गया है, आदि कई उत्सवों को मनाया बताया गया है।

इसके अलावा होली का रामायण से लेकर महाभारत और पुराणों में भी ‘देवोत्सव‘, ‘महोत्सव‘, ‘वृक्षोत्सव‘, ‘बसन्तोत्सव‘, ‘मदनोत्सव‘, ‘जलोत्सव‘ इत्यादि अनेक उत्सवों का उल्लेख मिलता है, जिसमें स्त्रियां इस उत्सव को हर्षोल्लास से मनाई हुई दिखलाई पड़ती हैं। वैसे तो सारे उत्सवों में महिलाओं की भूमिका गौण होती है, लेकिन ‘होलिकोत्सव‘ में तो स्त्रियों की विशेष भूमिका होती हैं। वे बसन्त के आगमन पर उमंग भरे गाने, नृत्य और संगीत के साथ मनोविनोद करती हैं।
बसन्तोत्सव में स्त्रियों के मनोविनोद का वास्तविक चित्रण कालिदास तथा वात्स्यायन के ग्रंथों में भी प्राप्त होता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ‘बसन्तोत्सव‘ को ‘मदनोत्सव‘ का नाम भी दिया गया है।

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‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्‘ के अनुसार ‘मदनोत्सव‘ माघ शुक्लपक्ष की पंचमी को मनाया जाता था। इसमें नृत्य गीतों को प्रधानता दी जाती थी तथा अबीर-गुलाल खेला जाता था। ‘कामसूत्र‘ की जयमंगलटीका ‘सुवसन्तो मदनोत्सवः तत्र नृत्य गीत वाद्य प्रायः क्रीड़ा‘ के अनुसार इस मदनोत्सव को ‘सुवसन्तक‘ भी कहा गया है और इसे नृत्य गीत वाद्य प्रधान उत्सव माना गया है।

प्राचीन काव्य ग्रंथों, आख्यायिकाओं और नाटकों में भी ऋतु सम्बन्धी उत्सव मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। इनमें बसन्तोत्सव को प्रमुख उत्सव माना गया है। वसन्तोत्सव के अन्तर्गत भी सुवसान्तक और मदनोत्सव ये दो प्रकार के उत्सवों को मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। वास्यायन के अनुसार इन उत्सवों को लोग एकत्र होकर मनाते थे।

मदनोत्सव का उल्लेख ‘मत्स्य-पुराण‘ में भी मिलता है, जिसके अनुसार वासुदेव कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियों द्वारा बसन्त ऋतु में मदनोत्सव मनाया जाता था। वे सँज-संवरकर पान गोष्ठियों में भाग लेती थीं।‘ कुट्टनीमतम्‘ के अनुसार मदनोत्सव पर रसिक व युवा गृहणियां ताली पीटती हुई नृत्य-गीतों में भाग लेती थीं और मदमस्त होकर कभी-कभी अभद्र भाषा का भी प्रयोग करती थीं।


‘कामसूत्र‘ में होलिकोत्सव को ‘उदकक्ष्वेदिका‘ या ‘जल फेंकने की क्रिया‘ नाम से पुकारा गया है। इसमें सभी स्त्री-पुरुष एक‘दूसरे पर जल फेंककर उत्सव मनाते थे। यह उत्सव फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जात था। इस उत्सव में युवक और युवतियां एक दूसरे पर कीचड़ भी उछालते थे। देवर-भाभी का हास-परिहास चलता था और आम्र की नई लताएं तानकर विनम्र मार-पीट भी चलती हैं।

होली का पर्व प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। होली का वैभव यहां के लिए ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। महाभारत काल की रचनाओं, पुराण, ग्रंथों, आदि लेखों में विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, किन्नर और कालिदास की कृतियों में किरातों, रघु की दिग्विजया में हूणों, उस्मान की चित्रावली में खसों का उल्लेख हुआ है।

यहां के लोक साहित्य में प्रमुख रूप से प्रकृति पूजा, यक्षपूजा, नागपूजा, देवपूजा, भूमिपूजा इत्यादि के उल्लेख और अवशेष मिलते हैं। हमारे कुमाऊँ में होली के गीतों का गायन विशेष रूप से बसन्त पंचमी के दिन से ही शुरू हो जाता है। विषयवस्तु की दृष्टि से यहां भक्तिप्रधान, श्रृंगार प्रधान और प्रसंगप्रधान होलियां जाती हैं।

भक्ति प्रधान गीत यहां के मंदिरों और घरों में बसन्त पंचमी से ही गाये जाते हैं। यह परम्परा अब कम हो गई है लेकिन फिर भी बडे़, बूढे़, बुजुर्गों, गीतकारों, महिलाओं, रसिक जनों और कई संस्थाओं के इस परम्परा को अभी जीवित रखा है।

गावों के मंदिरों और चबूतरों में रात-रात भीर धूनी जलाकर ढ़ोलक और नगाड़ों के साथ अभी भी देवताओं के गीत कई जगह सुनाई पड़ते हैं। नई पीढ़ी में अब इन स्तुतिपरक गीतों से मोहभंग होता जा रहा है। श्रृृंगार प्रधान होली के गीतों में उन्मुक्त हास-परिहास भी परिलक्षित होता है। इन गीतों में कई जगह अश्लीलता का भी प्रयोग हुआ है।

प्रसंगप्रधान गीतों में राधा, कृष्ण, राम-सीता, शिव-पार्वती, लक्ष्मण, गणेश, मथुरा, अवध इत्यादि प्रसंगों की होलियां गाई जाती हैं। इनके अलावा पति-पत्नी, देवर-भाभी के पारस्परिक प्रेम, फेलों का खिलना, लाख वर्ष तक जीवित रहने की कामना वाले होती के गीतों बसनतोत्सव या होलिकोत्सव के अनुरूप प्रासंगिकता मिलती है।

ये हमारी लोकपरंपरा और लोक साहित्य की अमूल्य निधि हैं। रंगकर्मी त्रिभुवन गिरि का कहना है कि पारंपरिक होली को यदि कहीं देखना है तो हुक्का क्लब की होली का रूख किया जाये। आज देश भर में कई शोधार्थी यहां की होली पर शोध कर रहे हैं, जिसके लिए वह यहां की होली से अपना शोध प्रबंध तैयार करते हैं।

रंगकर्मी राजेन्द्र तिवारी का कहना है कि यहां की होली गायन आज शराब की भेंट चढ़ रहा है, जिन कलाकारों को सरस्वती का वरदान था आज वह मद्यपान से ग्रस्त हैं। कारण यह है कि संस्कृतिकर्मियों की आर्थिक स्थिति तंग होना।‘ होली में श्रृंगार-सौंदर्य, हास, वियोग, यौन संबंध आदि को उजागर करने वाला, वैराग्य की स्थिति को दर्शाने वाला, पे्रम में डूबने वाला वर्णन आता है। होली में सामूहिकता के दर्शन होते हैं।

आज होली ने कई तरह के परिवर्तन देखे हैं। अब होली में रंग तो दिखता है पर वह रंग अबीर-गुलाल का नहीं, बल्कि शराब का दिखता है। शराब की वजह से होली का रंग फीका सा लगता है। आधुनिकता, बाजारवाद, फूहड़ता आदि सभी इन होलियों में दिखने लगा है। संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति की छाप पड़ने लगी है।

लेकिन अभी होली जहां भी बची है, वहां होली सहेजने लायक होती है। होली हमारे समाज को प्रकट करती है, हमारे समाज के दुःख-सुख को प्रकट करती है। वह जीवन में रसों को घोलने का काम करती है।हमारे होली गीत हमारे परिवेश, हमारे समाज, हमारे पर्यावरण, हमारे अंचलों से जुड़े हुए होते हैं।तरह-तरह के प्रसंग इन गीतों में आते हैं। श्रृंगारिक विषय हो या फिर वियोग, ये सभी हमारे इन गीतों में आते हैं। हमारे गीतों में कई तरह के प्रसंग आते हैं, जिनको सुनकर हृदय में रंगों की पिचकारी छिड़कने लगती है।

कुमाऊँ में वैसे तो होली के पर्व को बडे़ ही समरसता के माहौल में मनाया जाता है, लेकिन फिर भी उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में होली की बात कुछ और ही है। अल्मोड़ा नगरी के हर गली, मोहल्लों में होली की बयार फाग ऋतु में बह जाती है। यहां के हुक्का क्लब अल्मोड़ा में गाये जाने वाली होली की तो बात ही निराली है।

तमाम होली गायकों में होने वाली होली बैठकी में होली का रस जमता है। होली गायकों कंठ से निकलती हुई सुरीली ध्वनि और तबले, मंजीरे की संगत पूरे मोहल्ले को रसमय बना देती है। वृद्ध होली गायकों के घरों में होने वाली बैठकी होली की खास बात है कि इस बैठकी होली में नगर भर के होली गायक शिरकत करते हैं।

वैसे होली लोकसंस्कृति का एक अहम् हिस्सा है। बैठकी होली शाम के वक्त घर के भीतर और खड़ी होली सुबह के समय पुरुष और महिलाएं घेरा बनाकर नृत्य करते हुए सार्वजनिक स्थलों का भ्रमण करते हैं। यहां होने वाली बैठकी होली में इन निम्न गीतों को गया जाता है। कन्हैया पर आधारित गीतों में ‘ऐसे रंग ढं़ग कैसे, मचेगी लाज मोरी। कुंवर कन्हैया, काहूं की, ऐसे लड़त मानो‘, ‘रंग सारी गुलाबी चुनरिया, मोहे मारे नजरिया सँवरिया। जाओ री जाओ करो नाहीं बतिया, अभी बाली है मोरी उमरिया। ऐसो ढ़ीठ लंगर नटखट संग को, कब आवेंगे मोरे सँवरिया।‘‘, ‘मोरी भीज गयी तन सारी रे, न मारो मोहन पिचकारी। बेदर्दी मोरी कहूं न माने, अंगिया चुनर रंग ही न माने।‘ ‘चरनन लगन लगाओ, सगरे भाग जगाओ।

जब तप तीरथ, मोहे ध्यान नचाहे‘। ‘‘नथुली में उलझेंगे बाल, सिपहिया काहे जुल्फें बढ़ाये। ये नथुली पांच मोहर की, सैंया गढ़ाय। खींच खाचे मोरी नथुली बिगाड़ी, मुखट की हाल, सिपहिया देखोरी।‘ मैं तो भूल से देखन लागी रे, उधर सारी डार गयो मो पे रंग। रंग की गागर सारी, कान्हा डार गयो मो पे रंग।।‘ ‘सिद्धि को दाता विघ्नविनाशन, होली खेलें गिरिजापति नंदन, शिव शंकर खेलत हैं होली, अंबा के भवन में बिराजे होरी, आज अयोध्या में भई बधाई, शिव मठ पर सोहे लाल ध्वजा, देवी का थान पतरिया नाचे। कान्हा ब्रज को बसैया कान्हा, गड़वा भरन नाहीं देत। महिला बैठकी होली में ‘ब्रज मण्डल देश दिखाओ रसिया‘, ‘मथुरा में खेले एक घड़ी‘, ‘जै बोलो यशोदा नंदन की‘, बलमा घर आये फागुन में…‘, आदि गीत गाये जाते हैं। होली के बाद छलड़ी होती है जिसमें घर घर जाकर आशीष दी जाती है। सभी लोग परिवार का नाम लेकर कहते हैं-आज का बसन्त कैका घरा, उनर पूत परिवार, जीवो लाख सौ बरिसा। बरस दिवाली बरसै जाग, जो नर जीवे खेले फाग, हो हो होलक रे…।‘

इसके अलावा खड़ी होली भी यहां मनाई जाती है। होली गायन में शिव, कृष्ण, राधा, प्रेयसी, पे्रमिका आदि का नामोल्लेख होता है। होली में राग काफी, मल्हार, जैजवंती, फाग आदि रागों पर आधारित गीतों का गायन भी किया जाता है। यहां की बैठकी होली की खास बात यह है कि पूस के प्रथम सप्ताह से फाल्गुन तक होली का गायन होता है। इसमें बाल होली गायक भी बडे़ गायकों के साथ गायकी करते हैं।

प्रियतम अपनी प्रियतमा को जब चुपके से उठाने के लिए शैतानी करता है तो प्रियतमा इस तरह कहती है- ‘प्यारा चित चोर, हमारा पियारा चितचोर/ सोई थी मैं अपने महल में, आयी नींद अपारा/ प्यारा चित चोर, उषा कन्या ने सपने में/ देखा अपना प्राण, पियारा चित चोर…।‘

प्रियतमा अपने प्रिय को हृदय को चोरी करने वाला संबोधित कर उसके द्वारा की गयी छेड़ाखानी तथा उसे अपने सपने में देखने को इस गीत में कहती है।


चूंकि रंगों का उत्सव जिस मास में आता है, उस मास से ही भौरों का गुंजन प्रारम्भ होता है। हमारे ऋतु भी अलग-अलग तरह से बंटे हुए हैं। अलग-अलग ऋतुओं के अलग-अलग मास, अलग-अलग पहचान भी है। कृष्ण और राधा के बीच होने वाले प्रेम संचार, हास-परिहार, छेड़खानी, शैतानी आदि को लेकर होली के गीत गाये जाते हैं। साथ ही होली के गीतों में भंवरे, ऋतुओं का वर्णन भी आता है।

एक गीत में वर्णन इस प्रकार हुआ है-‘खेलत गोपी ग्वाल लाल रे मथुरा से होली आई। चैत मास सरसों फूले हो चैत मास सरसों फूले। भंवरा देह गुंजार लाल रे मथुरा से होली आई। बैसाखे गुलाब खिले हो बैसाखे गुलाब खिले।‘ इस गीत में प्रत्येक मास में जो जो भी पुष्प खिलते हैं, उन सबका वर्णन हुआ है। हर मास की अपनी-अपनी खास बात होती है। इस गीत में भी उन खास बातों को पिरोया गया है।


प्रियतमा का अपने परदेश गये प्रियतम की याद जब रंगीली होली में सताने लग जाती है, तो उस समय प्रियतमा के हृदय में अपने प्रिय से बिछुड़ने की पीड़ गहराने लगती है। उसका कलेजा प्रियतम की याद में जब फटने लग जाता है, जब यह पीड़ असहनीय होने लगती है, तो वह काग पक्षी से अपने प्रिय की खबर लाने के लिए अनुरोध करती है। वह काग पक्षी को संबोधित करते हुए विरहन, निरभाग, पांव पड़कर उससे पिया की खबर लाने के लिए अनुनय-विनय करती है।
हमारे होली गीतों में पक्षियों को संचार माध्यम के रूप से प्रस्तुत किया जाता रहा है। कौव्वा हो या कबूतर, ये सभी पक्षी किसी न किसी रूप में संचार के माध्यम के रूप में आये हैं। एक होली गीत में इस तरह भी आया है-हां रे कागा पिया की खबर मोह ला दीजो। उत ला दीजो तत्काल, कागा पिया की खबर। मोहे ला दीजो हां रे कागा चूंच बना दूंगी सोने की। उत पांव हीरा झलकाय, कागा पिया की खबर, मोहे ला दीजो हां रे कागा पंख बना दूंगी रूपै का….।


गीत में प्रियतमा कौव्वे को कहती है कि पिया की खबर ला दो, तो मैं तुम्हारी चोंच को सोने का, पंख रुपये का, गले में मोतियों की हार बना दूंगी। गोपियां कन्हैया से कुंजन की गलियों में ले जाने का आग्रह करती हुई गीतों में दिखाई पड़ती हैं। वह कहती है-‘डगर मोरी छोड़ा श्याम, ंिबंध जाओगे नैनन में/कन्हैया ंिबंध जाओगे नैनन में। जो तेरे मन में होरी खेलन की, ले चलो कुंजन में।‘ इस गीत में कुंजन ले जाने और होली खेलने के लिए श्याम से अनुरोध करती है। प्रियतमा अपने यौवन पर दृष्टि रखते हुए प्रियतम को नादान कहकर अपनी सासू से इस तरह वार्तलाप करती हुई, उससे कजरा न लाने पर आखे संुदर नहीं लगने की बात को इस तरह कहती है-‘बलमा मेरो नादान सासू, जोवन मेरो मानत नाहीं। स्योंनि में पैरने डंडिया न लावे, डंडिया बिन स्योंनि न सुहाय। अंखिया में पैरने कजरा न लावे, कजरा बिन अंखिया न सुहाय…।‘‘फाग ऋतु में श्रंृगारिक होली भी गायी जाती है। महिला का श्रंृगार, महिला द्वारा अपना श्रंृगार करने का वर्णन भी इन होलियों में इस तरह से आता है-‘कजरा की डिबिया खेल अलबेली/महिना जो लागो फागुन को। स्योंनी तेरी नजर भर देखूं। हंसि-हंसि ओढ़ना खोल, अलबेली महिना जो…।‘

इस तरह होली का अपना ही रंग है। कुमाऊँ की होली में परम्परागत स्थितियों को भी देखा जा सकता है। अपनी बीती पीढ़ियों की गायकी को सीखकर नए होलियार भी ठीक उसी तरह होली का गायन करते हैं। हालांकि इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अब होली के मायने बदल रहे हंै।

कुछ असमाजिक तत्वों, शराब के बढ़ते प्रचलन और एकल परिवार बढ़ने आदि के कारण होली का वह प्राचीन स्वरूप कमजोर होता दिखाई पड़ रहा है। यह चिंता का विषय भी है। इस तरफ दृष्टि डालने की जरूरत भी है।

‘लोक‘ की खुशबू लोक के गीतों में व्याप्त होती है। यह खुशबू लगभग यहाँ हर पर्व, हर त्योहार में दिखाई पड़ती है। ‘होली‘ की यदि बात कहें तो होली सामुहिक पर्व है, जिसमें किसी जाति-धर्म, ऊँच-नीच, छोटे-बडे़ का भेद नहीं होता है। पूर्वाग्रहों को भुलाकर नाचा व गाया जाता है।

चीर बंधन से लेकर होलिका दहन तक इसमें अनेक तरह के रंग देखने को मिलते हैं। ‘होली‘ ऐसा पर्व हैं जो लोगों को लोगों से जोड़ता है। धर्म से धर्म को जोड़ता है। हिंदु-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी धर्म के लोग इस पर्व को मनाकर भारत की एकता की पहचान को बुलंद करते हैं। हर कोई इन होली का आनंद लेता है। शास्त्रीय होली का अपना ही अनूठा आनंद है। सितार, तबला, हारमोनियम, तानपुरा, मंजीरा, ढ़ोलकी की थाप में राग जैजवंती, पीलू, धमार, बागेश्वरी, झिझोटी में गीतों के सात सुर गीत बनकर वातावरण को संस्कृतिमय, होलीमय बना देते हैं।


कूर्मांचल में दो प्रकार की होलियाँ गायी व नाची जाती हैं-‘खड़ी होली‘ व ‘बैठकी होली‘। खड़ी होली खडे़ होकर गायी जाती है और बैठ होली तो बैठकर गायी जाती हैं। हर कोई इन होलियों को गा सकता है, अंग संचालन कर सकता है। इसके लिए किसी गुरू, किसी प्रकार का प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता नहीं होती? अंग संचालन के साथ सुर स्वतः ही ताल, लय, स्वरवद्ध होकर अपनी गति पकड़ लेते हैं।


इन गीतों में काफी भाव छिपे होते हैं। विश्वास, आगे बढ़ने का संकल्प, सच कहने की प्रवृत्ति, जीवन को उल्लास मय बनाने की ज्ञिज्ञासा, दुःख-सुख बांटने, सहयोग, रास रचाने, देवर-भाभी का हास-परिहास, देवी-देवताओं के प्रति आस्था का भाव आदि भाव इनमें सन्निहित होते हैं। कन्हैया व गोपियों से संबंधित गीतों में हास-परिहास, रास आदि मिलता है। भावुक, संवेदनशील पंक्तियां होली गीतों में मिलती हैं। होली का जिक्र आता है तो बरसाने की होली प्रसिद्ध मानी जाती है। ब्रज की गलियों में होलियों की धूम रहती है। एक होली गीत में इस तरह की पंक्तियां हैं,‘ होली खेलो जी राधे सम्भाल के…। जमुना तट श्याम खेले होरी, सखी वंदावन के बीच आज ढफ बाजे हैं। फागुन आयो रे, ऐ होली फागुण आयो रे। मेरी भीजे रेशम चुनरी रे, मैं कैसे खेलूं होरी रे। आज बिरज की होरी रे रसिया, होरी तो होरी बरजोरी रे रसिया….।‘‘ इस तरह राधा से होली को संभालकर खेलने की बात सामने आती है। एक अन्य गीत में कन्हैया से गोपियां सानुरोध करती हैं कि अगर होली खेलने का मन है तो मुझे होली खेलने कुंजन की तरफ ले चलो। वह इस तरह कहती हैं कि, ‘डगर मोरी छोड़ो श्याम, बिंध जाओगे नैनन में। कन्हैया बिंध जाओे नैनन में, जो तेरे मन में होरी खेलन की,ले चलो कुंजन में।‘ सीता और राम को भी होली के गीतों में जगह इस तरह मिली है- ‘सीता व राम युगल चरणां या अंबा के भवन बिराजे होरी।‘ चीर बांधने पर यह गीत अक्सर सुनाई पड़ता है, जिसमें पिया के आने का इंतजार करती हुई महिलायें गाती हैं। एक गीत में-‘‘बांधो कन्हैया ध्वजा चीर, अवै हां रे ननदी सजन पिया कब आयेंगे।‘‘ इसके अलावा ‘‘कैले बांधी चीर हो रघुनंदन राजा‘ गीत भी आज गाया जाता है। होली खेलने या आने से पूर्व काम को सिद्ध करने वाले गणपति का आह्वान, स्मरण भी इन गीतों में मिलता है।

वैसे तो हर काम करने से पूर्व गणपति का ध्यान आवश्यक होता है। होली में भी ‘सिद्धी को द्वारा विघ्न विनाशन, होरी खेले गिरिजा पति नंदन‘ इसके अलावा शिव-पार्वती जी सहित ऐतिहासिक पात्रों, सिद्ध पुरूषों आदि को भी गीतों में जगह मिली है। पद्मश्री शेखर पाठक भी मानते हैं कि,‘ होली गीतों की विषय वस्तु मिथकों-पुराणों से निकल कर श्रंृगार-सौंदर्य तक और यौन सम्बंधों को उजागर करने से वैराग्य भावनाओं की ओर बहने तक फैली है। मनुष्य का अवचेतन इन दिनों ज्यादा उजागर होता है। दूसरी ओर कुछ होलियां तो इस उत्सव के बीच भी आपको उदास और गम्भरी कर सकती हैं, क्योंकि मानव मन की यह भी एक विडम्बना है।‘ (नैनीताल समाचार,15-31 मार्च, 2016) साथ ही इन होलियों में फूहड़ता वाली पंक्तियां भी मिलती हैं। देवर-भाभी के मध्य अश्लील किस्म की पंक्तियां सभ्य समाज के लिए चिंता पैदा करती हैं। चीर बांधने से ही खड़ी होली का आरम्भ होता है।

होली (Festival of colors)में खलल चिंतनीय-


होलिका दहन कर तथा होली आशीष देकर इसकी समाप्ति टीके के माध्यम से होती है। होलका का दहन इस लिए किया जाता था कि असत्य पराजित हो, भगवान पर आस्था रखने वालों की जीत हो, भक्तों पर किसी प्रकार का संकट न आये। इस खुशी में प्रतीक रूप में होलका का दहन किया जाता था और आज भी किया जाता है।

परंतु आज मायने बदल गये हैं। इस तथ्य को भुलाकर दहन तो होता ही है परंतु उसको जानने वाले अक्सर कम ही मिलते हैं। होलका दहन, होली पर्व में आज शराब पीकर कई होल्यार फूहड़ तांडव करते हैं। सड़कों के मध्य नशे में उत्पात मचाते हुए देखे मिलते हैं। अब बदल गया है जमान, बदल गयी है रंगों की होली। आज जो हम होली खेल रहे हैं उसमें होली के रंग तो कम दिखाई पड़ते हैं लेकिन शराब के रंग अधिक। होना तो यह चाहिए था कि इस पर्व में दो सप्ताह पूर्व ही रोक लगा देनी चाहिए।

शराब के ठेकों को बंद किया जाना चाहिए। होली का जो स्वरूप हमें बड़े-बुजुर्गांे माध्यम से सुनने को मिलता है उससे यह समय काफी अलग लगता है। अब होली नहीं हुड़दंग अधिक होता है। कारण ले देके शराब और शराबियों की प्रतिक्रियायें हैं।
बिगड़ता हुआ सौहार्द-गली-मोहल्लों, बाजार की नालियों, सार्वजनिक स्थानों में इन उत्पातियों से मानव समाज तो डरे ही डरे साथ ही पशु भी अचक जाये। कई लोगों की आस्थायें थी कि आलू, रायता, दही आदि से इस पर्व में लोगों को खिलाकर भाईचारा स्थापित करे।

परंतु आज ऐसा नहीं होता। यह भी सच है कि चंदा लेने वालों की सेना ने होली के नाम पर लोगों को ठगा है, जिसको हम अक्सर देखते हैं। होली का जो रंग है वह बेरंग हो रहा है। एकता, सौहार्द, उल्लास, अखण्डता का संदेश देने वाली होली के मायने बदल रहे हैं। जिसको पुनसर््थापित करने की जिम्मेदारी हम सभी की होनी चाहिए।

इस तरह होली में तरह-तरह के रंग हमें दिखाई पड़ते हैं। होल्यार अपने-अपने गांवों की टोलियां बनाकर कई गांवों को लांघ कर हर घर में आशीष प्रदान करते हैं। आधुनिकता की वजह या शराब के कारणों से आज उस पर प्रभाव तो पड़ा है। कई गांवों में होली में लोग शराब के कारण लड़ झगड़ रहे हैं, जिससे होली का रंग फीका हो रहा है। हमें अपनी रंग-रंगीली होली में हो रहे परिवर्तनों की तरफ ध्यान आकर्षित करना होगा।

लेखक: प्रो0 इला साह, संयोजक, समाजशास्त्र, कुवि0वि0नैनीताल व
डाॅ0ललित चंद्र जोशी ‘योगी
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, एस0एस0जे0परिसर,अल्मोड़ा से हैं…..