जानें सुप्रसिद्ध मां नैना देवी मंदिर, नैनीताल का इतिहास

नैनी झील के उत्तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है। १८८० में भूस्खलन से यह मंदिर नष्ट हो गया था, बाद में इसे दुबारा…

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नैनी झील के उत्तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है। १८८० में भूस्खलन से यह मंदिर नष्ट हो गया था, बाद में इसे दुबारा बनाया गया। यहां सती के शक्ति रूप की पूजा की जाती है। मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं। नैनी झील के बारें में माना जाता है कि जब शिव सती की मृत देह को लेकर कैलाश पर्वत जा रहे थे, तब जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। नैनी झील के स्थान पर देवी सती की आँख गिरी थी। इसी से प्रेरित होकर इस मंदिर की स्थापना की गई है। माँ नैना देवी की असीम कृपा हमेशा अपने भक्तों पर रहती है। हर वर्ष माँ नैना देवी का मेला नैनीताल में आयोजित किया जाता है।
पौराणिक नैनादेवी
पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमन्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपना और अपने पति का निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि ‘मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल – स्वरुप यज्ञ के हवन – कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।’ जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी, तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी – देवता शिव के इस रौद्र – रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी-देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध के शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया। परन्तु, सति के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश – भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ – जहाँ पर शरीर के अंग गिरे, वहाँ-वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे, वहीं पर नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अश्रुधार ने यहाँ पर ताल का रूप ले लिया। तब से निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है।
ईष्ट देवी-नंदा देवी
यह भी एक विशिष्ट उदाहरण है कि समस्त गढ़वाल-कुमाऊँ की एकमात्र इष्ट देवी ‘नन्दा’ ही है। इस पर्वतीय अंचल में नंदा की पूजा और अर्चना जिस प्रकार की जाती है वह अन्यत्र देखने में नहीं आती। नैनीताल के ताल की बनावट भी देखें तो वह आँख की आकृति का ‘ताल’ है। इसके पौराणिक महत्व के कारण ही इस ताल की श्रेष्ठता बहुत आँकी जाती है। नैनी (नंदा) देवी की पूजा यहाँ पर पुराण युग से होती रही है।
कुमाऊँ के चन्द राजाओं की इष्ट देवी भी नंदा ही थी, जिनकी वे निरन्तर यहाँ आकर पूजा करते रहते थे। एक जनश्रुति ऐसी भी कही जाती है कि चन्द्रवंशीय राजकुमारी नंदा थी जिसको एक देवी के रूप में पूजी जाने लगी। परन्तु इस कथा में कोई दम नहीं है, क्योंकि समस्त पर्वतीय अंचल में नंदा को ही इष्ट देवी के रूप में स्वीकारा गया है। गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं की भी नंदा देवी इष्ट रही है। गढ़वाल और कुमाऊँ की जनता के द्वारा प्रतिवर्ष नंदा अष्टमी के दिन नंदापार्वती की विशेष पूजा होती है। नंदा के मायके से ससुराल भेजने के लिए भी ‘नन्दा जात’ का आयोजन गढ़वाल-कुमाऊँ की जनता निरन्तर करती रही है। अतः नन्दापार्वती की पूजा – अर्चना के रूप में इस स्थान का महत्व युगों-युगों से आंका गया है। यहाँ के लोग इसी रूप में नन्दा के ‘नैनीताल’ की परिक्रमा करते आ रहे हैं।