सरकार :- सब पढ़ गए, आगे बढ़ गए

वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रशेखर जोशी की वाँल से साभार :- दुर्गम में नौकरी की चिंता खत्म, कोटिकरण पर माथापच्ची की जुर्रत नहीं, बच्चों की पढ़ाई पूरी,…

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वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रशेखर जोशी की वाँल से साभार :-

दुर्गम में नौकरी की चिंता खत्म, कोटिकरण पर माथापच्ची की जुर्रत नहीं, बच्चों की पढ़ाई पूरी, बड़े घरों से गायब। बंजर मकानों में जंगली जानवरों का डेरा। गोठों में नेपाली मजदूर।

ये उत्तराखंड है जनाब। भीम नगरी, पर्यटन नगरी, सरोवरों की नगरी भीमताल से करीब 25 किलोमीटर दूर से शुरू होते हैं लमगड़ा ब्लाक के पैदल गांव। सुंदर पहाडिय़ों और घने जंगलों से घिरा यह इलाका सैलानियों को खूब भाता है। यहां का मौसम बेहद सुहाना है। गर्मियों में ठंडी हवाएं, जाड़ों में चटक धूप, बारिश से धरती तर और बसंत में जंगल फूलों से महकते हैं। कार सवार शहरी इन इलाकों में तफरीह करने आया करते हैं।

वैसे यह इलाका बेहद उपजाऊ भी है। इसे फलपट्टी भी कहते हैं। इन गांवों में मौसमी फलों के अलावा सेब, संतरा प्रजाति के फल बहुतायत में होते हैं। खेतों की काली मिट्टी आलू के लिए बेहद माफिक है। हर मौसम में हरी सब्जी पैदा होती है। गोभी की तीन प्रजातियां अलग-अलग मौसम में उगती हैं। मिर्च यहां की बहुत तेज, जंगलों के फल और सब्जियां बेहद पौष्टिक और स्वादिष्ट होती हैं। सीढ़ीनुमा खेतों में गेहूं भी होता है। नदी-गधेरों के किनारे नमी वाले खेतों में धान की पैदावार अच्छी होती है।

यहां रहने वाले बहुत मेहनती होते हैं। मीलों पैदल चलकर बाजार पहुंचते हैं। सिर और पीठ पर एक कुंतल तक सामान ढोते हैं। स्वभाव से सीधे और प्रेमी ग्रामीण हर व्यक्ति की आवभगत करते हैं। इन गांवों में रहकर नेपाल के मजदूर आसपास के कस्बों में मेहनत-मजदूरी करते हैं। इनके साथ परिवार का जैसा व्यवहार किया जाता है। खाली घरों को आबाद करने के लिए मजदूरों को मुफ्त में मकान का निचला तल या गौशाला का गोठ दिया जाता है। नेपाली लोग भी यहां के ग्रामीणों के स्वभाव से मेल खाते हैं और बेहद मेल-मिलाप से रहते हैं।

सारी खूबियों के बाद भी हालात बेहद नाजुक हैं। सड़क न होने से यह इलाका दुर्गम में आता है। यहां बिजली की उचित व्यवस्था नहीं है। अस्पताल कोसों दूर है। खेतों की उपज बाजार तक पहुंचाने के लिए 10 से 15 किलोमीटर पैदल जाना होता है। कुछ गांवों के पास तक सड़क खोदी गई है, लेकिन इनमें वाहनों का चलना असंभव है। घोड़ों से सामान की ढुलाई बेहद महंगी है। रेट लगभग सौ रुपए प्रति कुंतल तक है। दूर मंडी पहुंचने एक कुंतल माल का किराया डेढ़ सौ रुपए तक चुकाना पड़ता है। आढ़ती माल में सौ खोट निकालते हैं और बेहद कम दामों पर उधार कर लेते हैं। जेब में आई कुल रकम माल के भाड़े के बराबर भी नहीं मिल पाती।

..पुराने समय के सिंचाई के साधन खत्म हो चुके हैं। सालों से नई योजनाएं नहीं बनाई गईं। अब खेत बंजर पड़ चुके हैं। गांवों में कमाने-खाने का कोई साधन नहीं बचा। जिनकी नौकरी लग गई वह शहरों में बस गए। अब गांवों की आबादी बेहद कम हो गई है। प्राथमिक स्कूल गुठौली में 10 साल पहले तक करीब सौ बच्चे पढ़ते थे। जब से यह स्कूल बना दुबारा इसकी मरम्मत नहीं हुई। भवन की हालत खस्ता होती गई तो लोगों ने अपने बच्चे दूर स्कूल में भेजने शुरू कर दिए। यहां तक आने-जाने के साधन नहीं हैं। सरकारी कर्मचारी केवल शिक्षक ही होते हैं, उनके परिवार के लिए शिक्षा, अस्पताल और रहने की भारी समस्या है। सरकार ने इन हालतों में सुधार नहीं किया और कम छात्रों का हवाला देकर स्कूल बंद कर दिया। इन दुर्गम स्कूलों में कोई नौकरी करना भी नहीं चाहता। तबादलों के लिए कर्मचारी और सरकार के बीच रोज ठनी रहती है लेकिन, इन हालातों को सुधारने के लिए कोई आवाज नहीं उठती। पहाड़ों में ऐसे ही सैकड़ों स्कूल बंद हो गए हैं, दर्जनों बंद होने के कगार पर हैं।

…इस छवि पर सरकार को शर्म नहीं गर्व है…

(वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रशेखर जोशी के फेसबुक वाँल से साभार)