नशा नहीं रोजगार दो! आंदोलन के 35 साल, अभी भी वहीं सवाल, चौखुटिया का वह छोटा सा गांव जिसने नशे के मकड़जाल के खिलाफ आवाज उठा इस मुहिम को आंदोलन में परिवर्तित कर दिया

प्रमोद जोशी उत्तरा न्यूज डेस्क अल्मोड़ा। 2 फरवरी 1984 को चौखुटिया के बसभीड़ा से प्रारम्भ हुए आंदोलन की पृष्ठभूमि केवल शराब की बोतल के खिलाफ…

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प्रमोद जोशी उत्तरा न्यूज डेस्क

अल्मोड़ा। 2 फरवरी 1984 को चौखुटिया के बसभीड़ा से प्रारम्भ हुए आंदोलन की पृष्ठभूमि केवल शराब की बोतल के खिलाफ नहीं बल्कि राजनीति की सोच में उतर कर पॉलीसी मैटर बन चुकी व्यवस्था में बदलाव कर उत्तराखंड को नशामुक्त बनाना था।

इस आंदोलन की शुरूआत को 35 साल हो चुके हैं। लेकिन आज भी सवाल अपनी जगह खड़े हैं। राजनीति में शराब एक संस्कार की तरह चिपक गई है। आज बिना शराब की बात किए बिना राजनीति करने की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। इसलिए इस गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष वर्तमान की जरूरत बन गया है।

नशा नहीं रोजगार दो आज से 35 साल पहले उस दौर पर शुरू हुआ जब हमारी यह आजादी जहां एक ओर ठेकेदारों, पूंजीपतियों, उनके दलालों व राजनीतिज्ञों के लिए प्राकृतिक व इंसानी लूट से मालामाल होने के रास्ते खोल रही थी, वहीं दो जून की रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करने वाली महिलाओं व बच्चों के लिए सुरा-शराब एक अभिशाप बन गई।

इसी दौर में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने 23-24 अप्रैल 1983 को अल्मोड़ा में पेशावर स्मृति समारोह पर एक सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन में उत्तराखंड व देश के करीब 400 प्रतिनिधियों ने गंभीरता पूर्वक विचार कर यह तय किया कि इस पर्वतीय भू-भाग की निराशा और हताशा को तोडऩे के लिए एक मजबूत आंदोलन की आवश्यकता है। सम्मेलन में वन-खनन व मादक द्रव्यों को लेकर इस प्रकार के आंदोलन को शुरू करने की संभावना को रेखांकित भी किया गया।


यहां यह दोबारा बताया जा रहा है कि यह वहीं दौर था जब उत्तराखंड के हर क्षेत्र में अंग्रेजी व देसी शराब की खुली बिक्री के साथ आयुर्वेदिक दवाओं के नाम पर बिकने वाली मृत संजीवनी सुरा, बायोटोनिक तथा एलोपैथिक दवा के नाम पर अनेक प्रकार के लिक्विड बाजार में भरे पड़े थे।

एक फरवरी 1984 को लोक वाहिनी के कार्यकर्ताओं ने चौखुटिया बाजार में आबकारी विभाग के अधिकारियों व जवानों को शराब तस्करी की कोशिश में रंगे हाथों पकड़कर संघर्ष की शुरुआत कर दी। दो फरवरी को बसभीड़ा में सभा का आयोजन किया गया, जिसके लिए हाथ से बने पोस्टर चिपकाये गये थे। इस बीच गांव के बच्चों को व्यक्तिगत सफाई से लेकर गांव के रास्तों की सफाई, निर्माण एवं क्रान्तिकारी गीत सिखाये जा रहे थे। दो फरवरी से पहले ही बच्चे, जो ‘शराब पीता है, वो परिवार का दुश्मन है, ‘जो शराब बेचता है वो समाज का दुश्मन है, जो शराब बिकवाता है वो राष्ट्र का दुश्मन है, ‘नशे का प्रतिकार न होगा पर्वत का उद्धार न होगा के नारे लगाने लगे थे।


इससे पहले जनवरी 1984 में आंदोलन मुखर करने के प्रयासों में साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था जागर के साथियों का एक दल नैनीताल से गढ़वाल तक की पदयात्रा कर चुका था। इन नारों का प्रभाव उनके पिताओं पर दिखाई पड़ रहा था। पीडि़त महिलाएं आंदोलन की ओर आकर्षित हो रही थीं। 2 फरवरी 1984 की शाम को बसभीड़ा में नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन की पहली सभा हुई और इस पहली सभा में इस क्षेत्र के तमाम लोगों एवं महिलाओं ने स्वयं को आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया। इस सभा में बसभीड़ा क्षेत्र में जुए एवं शराब पर पूर्ण रोक लगाने की घोषणा की गयी ।

14 फरवरी को बसभीड़ा से चौखुटिया में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के आह्वान पर एक जोरदार प्रदर्शन हुआ। इस प्रदर्शन में शामिल होने के लिए बसभीड़ा क्षेत्र से ढोल-नगाड़ों एवं गननभेदी नारे लगाते हुए सैकड़ों, महिलायें एवं बच्चे चौखुटिया तक गये। प्रदर्शन में ब्लाक स्तर तक के सभी दलों के सक्रिय कार्यकर्ता आंदोलन के साथ जुड़ गये। इसी के साथ युवाओं के दल स्वयं संगठित होकर शराब की तस्करी पर नजर रखने लगे। 20 फरवरी की रात में अशोका लिक्विड के कुछ तस्करों को स्थानीय युवाओं ने पकड़ लिया। देखते-देखते यह खबर चारों ओर फैल गयी। 21 फरवरी की सुबह ही हजारों लोग चौखुटिया में जमा हो गये। इस आंदोलन में पहली बार इन तस्करों के मुंह काले कर उन्हें बाजार में घुमाया गया और 21 फरवरी को ही चौखुटिया में लिक्विड के थोक व्यापारी तस्करों के घरों का जनता ने जोरदार घेराव किया व तलाशी ली। इसके बाद 26 फरवरी को चौखुटिया ब्लाक मुख्यालय पर आयोजित लोक अदालत के मौके पर करीब 20 हजार लोगों ने तत्कालीन जिलाधिकारी नागेश्वर नाथ उपाध्याय के समक्ष जोरदार प्रदर्शन किया, जिसके डर से अशोका लिक्विड के बड़े तस्कर चौखुटिया छोड़कर भाग खड़े हुए।

इसके साथ आंदोलन तेजी से द्वाराहाट, भिक्यिासैंण, ताड़ीखेत, गैरसैंण़, सल्ट, रामनगर समेत सोमेश्वर आदि अन्य हिस्सों में फैल गया। इसके बाद भवाली, रामगढ़, रानीखेत, गरमपानी, नैनीताल, आदि अनेक क्षेत्रों में भी आंदोलन प्रखर होता चला गया। आंदोलन की तेजी के साथ ही प्रशासन का दमन चक्र भी तेज हुआ। 26 मार्च 1984 को सरकार ने आंदोलनकारियों की मांगों पर गौर किये बिना अल्मोड़ा में धारा 144 लगाकर शराब की नीलामी की घोषणा की। जिसके विरोध में धारा 144 तोड़कर अल्मोड़ा में एक जोरदार प्रदर्शन हुआ। प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया गया तथा दर्जनों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इसी दिन गरमपानी (नैनीताल) में शराब का ठेका लेने आये ठेकेदारों को पकड़कर जनता ने नंगा कर उनका मुंह काला कर उनको सामाजिक दंड दिया। जिनके चित्र बाद में अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में तथा अखबारों में छपे।

बाद में लंबे संघर्षों के बाद सरकार ने अल्मोड़ा जिले में आंशिक मद्य निषेध लागू किया और आंदोलनकारियों के विरोध के कारण शराब के ठेकेदारों के स्थान पर उत्तर प्रदेश सरकारी चीनी संघ केा शराब की बिक्री का काम दिया। किंतु मृत संजीवनी सुरा व दवाओं के नाम पर बिकने वाली शराबों के खिलाफ आंदोलनकारियों को लंबे प्रतिरोध में उतरना पड़ा।


यह आंदोलन का ही दबाव था कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आंदोलन की एक प्रमुख मांग ‘दस प्रतिशत से अधिक एल्कोहल की दवाओं पर रोक लगाने की मांग को पूरा करते हुए 12 प्रतिशत से अधिक एल्कोहल की दवाओं को शराब घोषित करना पड़ा।


आंदोलन के बाद जो परिणाम आए वह अति उत्साहजनक और ऐतिहासिक थे। इसके बावजूद भी उत्तराखंड में यदि शराब की नदियां बह रही है तो उसके पीछे शराब की बोतल से अधिक योगदान शराब की राजनीति का है।

1984 में शुरू हुए आंदोलन के साथ ही यह साबित हो गया था कि स्थापित राजनैतिक दल नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन से पैदा हुई ऊष्मा सहन करने की स्थिति में नहीं है। इन स्थितियों में आंदोलन के उत्तरार्ध में एक राजनीतिक दल समर्थक तत्वों ने अल्मोड़ा की बाजार में ‘शराब दो वोट लो, ‘सस्ती शराब जल्दी खोलो जैसे नारे लगाते हुए एक प्रदर्शन किया था। 1 मई 1984 को तत्कालीन सत्ताधारियों द्वारा चौखुटिया में पुलिस से बर्बर लाठीचार्ज करवाया। इस मामले को लेकर मुंसिफ मजिस्ट्रेट के न्यायालय में 14 वर्ष तक मुकदमा चला। इन सबके बावजूद मादक द्रव्यों के खिलाफ आंदोलन अभी जारी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दस वर्ष की आंशिक नशाबंदी के बाद 1994 में मुलायम सिंह यादव ने उत्तराखंड में शराब बंदी समाप्त कर दी। इसके बाद एक बार फिर पिथौरागढ़ जनपद में खेती खान, धुनाघाट, अल्मोड़ा में दनिया, काफलीखान व गढ़वाल मंडल में अनेक क्षेत्रों में आंदोलन मुखर हुए।

नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन का एक मूल मंत्र था कि उत्तराखण्ड में नशे के अभिशाप को मिटाना तब तक संभव नहीं जब तक माफिया नशे के तस्करों और व्यवसायियों के पैसों पर पलने वाली राजनीति का मटियामेट नहीं कर दिया जाता। 2 फरवरी 1984 को अल्मोड़ा जिले के एक छोटे से गांव बसभीड़ा से शुरू हुआ नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन माफिया नौकरशाहों और राजनीति के जनविरोधी गठजोड़ के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध के रूप में सामने आया । यह आंदोलन इस बात को सामने लाने में सफल रहा कि शराब एक सामाजिक बुराई से कहीं अधिक एक राजनीतिक समस्या है। यदि कारगर रोक लगानी है तो शराब की बोतल से अधिक शराब की राजनीति से लड़ना होगा।

इससे पहले भी उत्तराखंड में साठ के दशक में पहली बार शराब विरोधी आंदोलन शुरू हुआ।
इसमें सबसे ज्यादा महिलाओं ने भागीदारी की। नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन एक गांव से शुरू हुआ और पूरे राज्य में फैला।सरकार ने शराबबंदी की जगह एक्साइज ड्यूटी कम कर पड़ोसी प्रदेशों से भी सस्ती शराब की योजना बनाई है।


दुर्भाग्य की बात यह है कि आज छात्र संघ के चुनावों से लेकर दलीय राजनीति के स्तर पर पंचायतों तक में शराब माफिया अपनी पैठ बनाने में लगा है। छात्र राजनीति, पंचायत, निकाय और कोई भी ऐसा चुनाव नहीं है जिसमें शराब का इस्तेमाल नहीं होता हो या यूं कहें कि शराब चुनाव जीतने के गारंटी का पहला टोकन है जो अब जरूरी हो गया है। आज शराब के बगैर ना तो नामकरण संस्कार संभव है और न ही अंतिम संस्कार। शराब हमारे सांस्कृतिक और कार्यशैली में रच बस गई है। नशे के तस्कर एक साजिश के तहत इसमें कामयाब हो रहे है। हम जब तक नशे के तस्करों व्यावसायियों के पैसे पर पलने वाली राजनीति का जब तक हम मटियामेट नहीं करेंगे तब तक नशे के अभिशाप को मिटाना सम्भव नहीं है। आज भी हर साल चौखुटिया के बसभीड़ा में नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन की वर्षगांठ मनाने लोग पहुंचते है। कई आंदोलनकारी साथी अब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं लेकिन एक उम्मीद अभी भी बची है कि देवभूमि कही जाने वाली उत्तराखंड की यह धरती कभी ना कभी नशे के मकड़जाल और साजिश से मुक्त होकर अपने नाम को सार्थक करेगी। आंदोलन की शुरूआत से इसके साथ जुड़े प्रसिद्ध आंदोलनकाररी और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी भी राजनीति के साए में पल बढ़ रही शराब की संस्कृति को राजनैतिक संरक्षण की एक बजह मानते हैं। उन्होंने कहा कि शराब राजनीति व माफियाओं का एक गठजोड़ है जब तक इस गठजोड़ को खत्म नहीं किया जाएगा तब तक उत्तराखंड को नशा मुक्त नहीं किया जा सकता उन्होंने कहा कि शराब की बोतल के बहाने नई पीढ़ी को तबाह कर चुका नशा अब स्मैक और अन्य नशे के माध्यमों से समाज और युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहा है।