शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग -4

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और रचनात्मक शिक्षक मंडल के माध्यम से शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 4

महेश चन्द्र पुनेठा 

एक दुर्भाग्य यह भी है कि सृजनशीलता का दायरा एक दम सीमित मान लिया गया है गरीब वर्ग के बच्चे किताबों से बाहर जीवन के विविध क्षेत्रों मेें नया करते रहते हैं। उनके पास अपने आसपास के जीवन की बहुत सारी जानकारियाँ होती हैं। पर मौजूदा व्यवस्था द्वारा न उनके ज्ञान को और न ही उनकी सृजनशीलता को कोई मान्यता प्रदान की जाती है। उनकी सृजनात्मकता को पिछड़ेपन की श्रेणी में रखा जाता है ।


इसके अलावा बच्चों की सृजनशीलता को टी0वी0 मेें प्रसारित होने वाले भूत-प्रेत,जादू-टोना जैसे कपोलकल्पना वाले दकियानूसी ,रूढ़िबद्ध व हिंसात्मक कार्यक्रमों ने कम हानि नहीं पहुँचायी है। इन कार्यक्रमों ने बच्चों के मन-मस्तिष्क को जकड़ दिया है। उनकी सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति को क्षीण कर दिया है। चकाचैंध वाले स्क्रीन में घटने वाली घटनाओं के विपक्ष में सोचने की वे हिम्मत भी नहीं करते। साथ ही टी0वी0 कार्यक्रमों से चिपके रहने के कारण बच्चों के पास स्वतंत्र रूप से सोचने व करने का समय भी नहीं रहता तथा वे अलगाव के शिकार भी हो जाते हैं। वे प्रकृति और अपने साथियों से कट जाते हैं।फलस्वरूप बहुत सारी सृजनशीलता जो सामूहिकता में ही जन्म लेती है, उससे बच्चे वंचित हो जाते हैं।


एक और बात जो बच्चे की सृजनात्मकता को बाधित करती है वह है बच्चे के भीतर पैठा हुआ भय। भय पैदा करने से बच्चे निष्क्रिय हो जाते हैं और शिक्षक की सत्ता से स्वयं को अलग कर लेते हैं। यह भय शिक्षक-अभिभावक की हिंसा का भी हो सकता है और परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने का भी। यह जाँचा-परखा मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बच्चे तभी आसानी से सीख और समझ सकते हैं जब उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक और दबाब मुक्त वातावरण में काम करने दिया जाय। विश्व भर में हुए तमाम नवाचारों में पाया गया कि जब-जब उन्हें उनकी रूचि के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक काम करने दिया गया तो ऐसे बच्चों की सृजनात्मकता आश्चर्यचकित करने वाली रही। बच्चों ने वे-वे काम कर दिखाए जिन्हें हम, बड़ों के लिए भी कठिन मानते हैं। पर दुर्भाग्य है कि बावजूद इसके आज भी शिक्षा,सीखने की प्रक्रिया और बच्चे के प्रति शिक्षक-अभिभावकों की परम्रागत धारणा नहीं बदली। यह माना जाता है कि छड़ी से ही अक्ल का ताला खुलता है।

इस धारणा के चलते शिक्षक-अभिभावक बच्चे की मौलिकता,सक्रियता और रचनात्मकता को नष्ट कर देते हैं। इस तरह अभी भी शिक्षा द्वारा व्यवस्था के लिए उपयोगी पुर्जे तैयार करने का काम ही जारी है। बच्चों को एक उपयोगी संसाधन के रूप देखा जा रहा है। इसी का परिणाम है कि आज हमारे विद्यालयों से वैज्ञानिक चेतना संपन्न एवं संवेदना से लैस इंसान नहीं बल्कि चलते-फिरते रोबोट निकल रहे हैं। हमारे विद्यालय डाक्टर,इंजीनियर,प्रबंधक ,प्रशासनिक अधिकारी आदि तो पैदा कर ले रहे हैं पर वैज्ञानिक ,कलाकार,साहित्यकार या दार्शनिक जैसे सृजनशील व्यक्तित्व पैदा करने में असफल रहे हैं।यह शिक्षा में सृजनशीलता की उपेक्षा का ही परिणाम है। आज बाजारवादी व्यवस्था इस सृजनशीलता को निंरतर कुंद करने में लगी हुई है क्योंकि किसी रूप भी में चिंतनशील व्यक्ति उसके हित में नहीं हैं। उसे तो ऐसे विशुद्ध उपभोक्ता चाहिए जो बिना तर्क किए उसके उत्पादों का प्रयोग करें।


दरअसल शिक्षा में सृजनात्मकता की बात अलग – थलग रूप से नहीं की जा सकती है ।यह जीवन से जुड़ा विषय है ।जब तक जीवन में सृजनशीलता को नहीं बचाया जा सकता तब तक शिक्षा में सृजनशीलता की बात करना उसी तरह से होगा जैसे किसी रोगी का इलाज न कर उसके हाथ-पावों की मालिश करना मात्र।हाॅ ,उसके लिए शुरूआत शिक्षा के क्षेत्र से अवश्य की जा सकती है। इसके लिए हमें शिक्षा के क्षेत्र में अतीत की जो सृजनशीलता है उससे संबंध बनाते हुए उर्जा ग्रहण करनी पड़ेगी।

शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को निर्णय लेने की अधिक स्वतंत्रता तथा कार्य करने की अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध करानी होंगी।शिक्षा के व्यापक अर्थ को ग्रहण करना होगा तथा बच्चे को समझना होगा। बच्चे को अपनी रूचि के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता देनी होगी। उसकी सृजनशीलता को सम्मान के नजर से देखना होगा । यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बच्चे गीली मिट्टी के लौंदे या अनगढ़ पत्थर नहीं हैं कि उन्हें चाक पर चढ़ाकर या मनचाहे पात्रों के रूप में काटा तराशकर मनचाही मूर्तियों के रूप में ढाला जा सके। सबसे बड़ी बात, बच्चे माता-पिता की संपत्ति नहीं हैं कि वे बच्चों के साथ जो चाहें करें और अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन उन्हे बनाएं। बच्चे भी संवेदनशील होते हैं। उनकी भी अपनी विशिष्ट रूचियाँ होती हैं, अपनी इच्छाएं व अपनी कल्पनाएं होती हैं।

दुनिया को देखने-समझने का अपना तरीका होता है।जे0 कृष्णमूर्ति के शब्दों में कहा जाय तो ,’’ एक ऐसा परिवेश निर्मित किया जाय जहाँ भय न हो ,जहाँ छात्रों को बाध्य न किया जाता हो या उन्हंे धमकाया न जाता हो ,उनकी आपस में तुलना न की जाती हो ,ताकि वहाँ स्वतंत्रता बनी रहे। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वहाँ छात्र जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है। इसका तात्पर्य यह है कि विकास करने की समझ बढ़ाने की विचार करने की जीवन को इस तरह से जीने की स्वतंत्रता वहाँ उन्हें मिले जिसमें मन कभी आदत से बँधकर काम नहीं करे। जिसमें परिपूर्ण रूप से सक्रिय रह सके-वह सक्रियता केवल गपशप करने की गतिविधि या पढ़ते रहने की गतिविधि भर न होकर जिज्ञासा की गतिविघि हो ,पता लगाने की प्रक्रिया हो वास्तविक को खोजने और सत्य क्या है? इसे जानने के लिए हो ।तब मन आश्चर्यजनक रूप से सृजनशील हो जाता है।‘‘ यदि हम ऐसा करने में सफल रहे तो निश्चित रूप से बच्चों की सृजनशीलता का विकास कर पांएगे।अंततः एक सृजनशील समाज का निर्माण कर पाएंगे ……………………. जारी