प्रियंका गांधी के राजनीति में उतरने के मायने : पुण्य प्रसून बाजपेयी

पुण्य प्रसून बाजपेयी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाना माना नाम है।प्रसून को टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस…

Priyanka vs Narendra Modi

purnya prasoon bajpeyi

पुण्य प्रसून बाजपेयी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाना माना नाम है।प्रसून को टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका पुरस्कार से नवाजा गया है। यह लेख उनके ब्लॉग से साभार प्रकाशित किया जा रहा है।

कांग्रेस की पहचान नेहरु-गांधी परिवार से जुडी है । बीजेपी की पहचान संघ परिवार से जुडी है। बिना नेहरु-गांधी परिवार के कांग्रेस हो ही नहीं सकती तो कांग्रेस की कमजोरी-ताकत दोनो ही नेहरु-गांधी परिवार में सिमटी है । और बिना संघ परिवार के बीजेपी का अस्त्तिव ही नहीं है तो वैचारिक तौर पर संघ की सोच हो या हिन्दुत्व की छतरी तले बीजेपी के राजनीतिक भविष्य को आक्सीजन देने का काम यह संघ परिवार पर ही टिका है ।

कांग्रेस अभी तक नेहरु गांधी परिवार के करिश्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता पर काबिज रही है चाहे वह नेहरु का काल हो या इंदिरा गांधी का या फिर राजीव गांधी या परदे के पीछे सोनिया गांधी की सियासत का । और इस दौर में जनसंघ से जनता पार्टी होते हुये बीजेपी में उभरी स्वयंसेवको की टोली की ये पहचान रही कि वह काग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध के आसरे धीरे धीरे आगे बढती रही । और सत्ता के जरीये कांग्रेस विरोध के दायरे को बढाती भी रही और कांग्रेस विरोध के आसरे अपनी सत्ता गढ़ती भी रही । लेकिन सौ बरस की उम्र पार कर चुकी कांग्रेस में ये पहला मौका है कि नेहरु गांधी परिवार की पांचवी पीढी के दो सदस्य कांग्रेस को संभालने के लिये एक साथ चलने को तैयार है । और दूसरी तरफ 2025 में सौ बरस की होने जा रहे संघ परिवार से निकले स्वयसेवको का सत्ताकरण ही कुछ इस तरह हुआ कि वह संघ परिवार को ही कमजोर कर सत्ता की ताकत तले संघ परिवार को ले आये । तो ये वाकई दिलचस्प हो चला है कि एक तरफ करिश्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता की चौखट पर पहुंचने वाली कांग्रेस में धीरे धीरे राहुल गांधी ने चुनावी जीत के आसरे खुद को करिश्माई तौर पर स्थापित करने की दिशा में कदम बढाये है तो प्रियकां गांधी की राजनीतिक झलकियो ने ही उन्हे पहले से करिश्माई मान लिया है । तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने पूंर्व के स्वयसेवको की लीक छोड 2014 में खुद को करिश्माई तौर पर स्थापित तो किया लेकिन इसी स्थापना को अपनी ताकत मान कर संघ परिवार की सोच तक को खारिज कर दिया । या कहे मोदी सत्ता के दौर में संघ परिवार के मुद्दे भी सरोकार खो कर मोदी के करिश्माई नेतृत्व में ही हिन्दुत्व से लेकर स्वदेशी और भारतीयकरण से लेकर स्वयसेवक होने के पीछे के संघर्ष को ही खत्म कर बैठे । तो नेहरु-गांधी परिवार और संघ परिवार की इसी बिसात पर 2019 का आम चुनाव होना है । तो पांसे कैसे और किस तरह फेंके जायेगें ये वाकई रोचक है । और सवाल कई है ।
मसलन, क्या मोदी का करिश्माई नेतृत्व बीजेपी-संघ परिवार की सत्ता को बरकरार रख पायेगा । क्या राहुल गांधी के साथ खडी प्रियंका का करिश्मा मोदी सत्ता की जड़े हिला देगा । क्या मोदी-शाह में सिमट चुकी बीजेपी के पास कोई नेता ही नहीं है जो काग्रेस के करिश्माई नेतृत्व को चुनाव मैदान में पटखनी दे दें । या फिर बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दें फिर खडा हो सके । क्या राहुल प्रियंका की जोडी अब मोदी विरोध के गठबंधन के सामने ही चुनौती बन रह है । यानी एक वक्त के बाद क्षत्रपो के सामने संकट होगा कि वह बीजेपी विरोध के साथ कांग्रेस विरोध की दिशा में भी बढ़ जाये । जाहिर है ये सारे सवाल है । लेकिन इन सवालों के आसरे ही चुनावी राजनीति के परखे तो तीन सच सामने उभरगें । पहला प्रियंका के जरिये महिलाये और युवाओ का वोट सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती से भी खिसकेगा । दूसरा यूपी में चेहरा खोज रही काग्रेस को प्रियंका का एक ऐसा चेहरा मिल चुका है जो लोकसभा चुनाव के बाद आखिलेश-मायावती के उस सौदबाजी में सेंध लगाने के लिये काफी है कि राज्य कौन संभाले और केन्द्र कौन संभाले [ अगर लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पीएम उम्मीदवार के तौर पर उभरती है ] । क्योकि कांग्रेस ने अभी प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौपी है । अगला कदम रायबरेली से चुनाव मैदान में उतारना होगा । और फिर 2022 में यूपी विधानसभा के वक्त प्रिंयका गांधी को ही सीएम उम्मीदवार पद के लिये उतरना । तीसरा क्षत्रपो को अब समझ में आने लगा है कि गठबंधन का मतलब तभी है जब उसमें कांग्रेस शामिल हो । यानी सिर्फ क्षत्रपो का मिलना गठबंधन तो है लेकिन वह सिर्फ सत्ता के लिये सौदेबाजी का दायरा बढना है । और इन तीन हालातो के दौर को और किसी ने नहीं बल्कि मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने ही पैदा किया है । और मोदी के करिश्माई नेतृत्व के पीछे संघ परिवार को ही कमजोर करना रहा । क्योकि संघ परिवार का हर वह संगठन जो कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिये संघर्ष करते हुये बीजेपी का रास्ता अभी तक बनाता रहा उसे ही मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने खत्म कर दिया । विहिप के पास प्रवीण तोगडिया नहीं है तो विहिप को प्रवीण तोगडिया के हर कदम से लडना पडा रहा है । किसान संघ के सक्षम नेतृत्व को कैसे मोदी सत्ता के काल में खत्म किया गया ये मध्यप्रदेश में कक्काजी के जरिये उभरा । फिर भारतीय मजदूर संघ हो या स्वदेशी जागरण मंच या फिर आदिवासी कल्याण संघ , हर संगठन को कमजोर किया गया । या कहे संघ के हर संगठन का काम ही जब नेतृत्व मोदी के लिये ताली बजाना हो गया तो फिर वह नीतिया भी बेमानी हो गई जो किसान को खुदखुशी की तरफ धकेल रही थी । युवाओ को बेरोजगारी की तरफ । उत्पादन ठप पडा है तो उद्योगपतियो के पास काम नहीं । व्यापारियो के सामने जीएसटी से लेकर विदेशी निवेश और ई-मार्केटिंग का खतरा है। मजदूर को नोटबंदी ने तबाह कर दिया। यानी संकट काल स्वयंसेवक की सत्ता के वक्त संघ की सोच के विपरीत है।
तो आखिरी सवाल यही हो चला है कि कांग्रेस की राजनीति ने संघ या पुरानी बीजेपी की कार्यशैली को अपना लिया है । और मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने काग्रेस के करिश्माई सोच को अपना लिया है ।