शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग – 2

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, पुनेठा मूल रूप से शिक्षक…

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका एक कविता संग्रह आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”भय अतल में ” नाम से प्रकाशित हुआ है। पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 2

महेश चन्द्र पुनेठा 

यह माना जाता है कि इंसान बुनियादी तौर पर सृजनशील होता है,पर आज अधिकांश शिक्षकों के लिए शिक्षण सृजनात्मकता का माध्यम न होकर विशुद्ध रूप से व्यवसाय बन गया है। जो थोड़े बहुत शिक्षक सृजनशीलता में विश्वास रखते हुए कुछ नया भी करना चाहते हैं तो व्यवस्थागत खामियों के चलते वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। सृजनशीलता के लिए उन्हें न उचित प्रोत्साहन है और न ही अवकाश। काम के बोझ से उन्हें इतना अधिक दबा दिया गया है कि उनके पास सोचने-विचारने का समय ही नहीं रहता। यह बोझ उनकी क्षमता से अधिक शैक्षणिक कार्यों का भी हो सकता है या फिर गैर शैक्षणिक कार्यों का भी।

मुझे एक बात अक्सर कचोटती है कि शिक्षा में बच्चे के मनोविज्ञान की तो बहुत अधिक की चर्चा की जाती है, भले ही यह चर्चा सैंद्धांतिक स्तर पर ही हो पर शिक्षक के मनोविज्ञान की कभी कोई बात नहीं होती। इस बात का कभी ध्यान नहीं रखा जाता है कि शिक्षण एक कला है और शिक्षक एक कलाकार जिसे अपनी कला के बेहतर प्रयोग के लिए अनुकूल वातावरण की आवश्यकता होती ताकि वह अपनी कला में डूबकर नित नए प्रयोग कर सके तथा सुदंरतम कलाकृत्तियों को आकार दे सके। पूरी निष्ठा व समर्पण के साथ अपने कार्य का निष्पादन कर सके। शिक्षकों की सृजनशीलता के संदर्भ में एक पहलू और है कि उन्हें अकादमिक सहयोग एवं मार्गदर्शन देने वाली संस्थाओं तक का वातावरण सृजनशील नहीं है।सेवापूर्ण प्रशिक्षण हो या सेवारत प्रशिक्षण यह इतना ठस,परम्परागत एवं रूढ़िबद्ध है कि उसे प्राप्त करने के बाद न शिक्षक संवेदनशील हो पाता है और न ही नवाचारी।

इन संस्थाओं में क्षमताओं का जबरदस्त अभाव है । आज भी ये संस्थाएं उपनिवेशकालीन शिक्षण सिद्धांतों के मकड़जाल में फँसी हुई हैं, जिनका उद्देश्य गुलाम मानसिकता का निर्माण करना रहा। इन संस्थाओं मेें बहुत सारे ऐसे लोग कार्यरत हैं जिनको न शिक्षा की कोई समझ और न ही नया करने की रूचि। जैसा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 भी स्वीकार करती है ,’’ शिक्षक शिक्षा कार्यक्रमों में तंत्र की जरूरतों को ध्यान में रखकर कार्यक्रम बनाए जाते हैं ,जिसमें शिक्षा को महज सूचना का संचरण माना जाता है।

वर्तमान कार्यक्रमों में अध्ययन-अध्यापन पाठ्यचर्या की संरचना और स्कूल और समाजों के संबंधों की कोई जगह नहीं। हालिया नवचारी शैक्षणिक प्रयोगों से भी इसका कम वास्ता है। शिक्षक शिक्षण के अनुभवों से पता चलता है कि उसमें ज्ञान को प्रदत्त की तरह पाठ्यचर्या में बाँधकर दिया जाता है और उसमें प्रश्न करने की जगह नहीं होती।‘‘जब शिक्षक की सृजनात्मकता के समक्ष इतनी चुनौतियाॅ हैं तब बच्चों में सृजनशीलता के विकास की बात किसी कल्पना से कम नहीं लगती है। क्योंकि बच्चे की सृजनशीलता के विकास में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है।


इसी तरह अभिभावकों की महत्वाकांक्षा ने भी बच्चों की सृजनात्मकता को कम हानि नहीं पहॅुचाई है। आज बच्चा जबरदस्त तनाव में जीता है उसके लिए परीक्षा में अधिकाधिक अंक लाना ही पढ़ाई का परम लक्ष्य बन गया है। शिक्षण का उद्देश्य भी यही हो गया है कि कैसे बच्चा अधिक से अधिक अंक प्राप्त करे ? इसके लिए बच्चे को भले कितनी ही बोरियत व तनाव से गुजरना पड़े किसी को कोई परवाह नहीं। बच्चा विषय वस्तु को कितना समझा है और अपने व्यवहारिक जीवन में वह सीखे हुए ज्ञान का कितना अनुप्रयोग कर पाता है, इस बात को कोई महत्व नहीं दिया जाता है।

देखा जाता है कि बच्चे ने कितनी अधिक सूचनाओं और तथ्यों को रटा है।बच्चे के उपर बस्ते का बोझ इतना बढ़ गया है कि वह अपनी पाठ्य वस्तु से बाहर कुछ सोच ही नहीं सकता। उसके पर स्कूल में शिक्षक का तो घर में माता-पिता का डंडा तैनात रहता है। बच्चे के अंदर घोर प्रतिस्पर्धा का बुखार पैदा किया जा रहा है। उसे सिखाया जा रहा है उसे ही सबसे आगे होना है। अगर सबसे आगे आएगा तो वह पुरस्कृत होगा।अगर द्वितीय आएगा तो अपमानित हो्रगा।सफल होगा तो शिक्षक आदर करेंगे ,घर में आदर मिलेगा और असफल होगा तो अपमानित होगा ।

सबसे आगे निकलने का यह ज्वर इतना तीव्र होता है कि उसके पास कुछ नया सोचने एवं करने के लिए समय ही नहीं रहता है। वह शिक्षक द्वार बताये गये ज्ञान को अंतिम सत्य की तरह ग्रहण करता है। शिक्षक द्वारा दिए गये ज्ञान पर प्रश्न खड़ा करना तो जैसे घोर अनुशासन हीनता हो। जब बच्चे को प्रश्न करने की स्वतंत्रता नहीं होती है तो शर्तिया है उसकी जिज्ञासा की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। जहाॅ बच्चे में जिज्ञासा समाप्त हुई तो समझो उसकी सोचने-समझने की प्रक्रिया बाधित हो गई। यह अंततः बच्चे को लकीर का फकीर बना देती है-एक बने-बनाए हुए दायरे में सोचने और चलने वाला। ऐसे में दबाब और तनाव के चलते बच्चे स्वयं और दूसरों के प्रति हिंसक भी होते जाते हैं। किताबें और किताबों की बात करने वाला उन्हें अपने शत्रु की तरह प्रतीत होने लगता है। इसी कारण हत्या और आत्महत्या की खबरें आए दिनों अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं।