Almora- साहित्यकारों की नजरों में अल्मोड़ा- 3

अल्मोड़ा में सुमित्रानन्दन पन्त सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि सुमित्रानन्दन पन्त (20 मई, 1900-28 दिसम्बर, 1977) के जीवन के शुरुआती, कौसानी के बाद के लगभग आठ वर्ष…

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अल्मोड़ा में सुमित्रानन्दन पन्त

सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि सुमित्रानन्दन पन्त (20 मई, 1900-28 दिसम्बर, 1977) के जीवन के शुरुआती, कौसानी के बाद के लगभग आठ वर्ष Almora में व्यतीत हुए ।
अल्मोड़ा शहर में रहते हुए उन्होंने जो महसूस किया और जो कुछ देखा – सुना-पढ़ा-लिखा, उसका उन्होंने स्वयं ही इन शब्दों में वर्णन किया है –


” मेरा जन्म सन 1900 में 20 मई को हुआ, इस प्रकार बीसवीं सदी के साथ ही मैं बड़ा हुआ हूँ। मेरी जन्मभूमि कौसानी का छोटा-सा गाँव है, जो हिमालय के अंचल में बसा हुआ है। गांधी जी ने उसकी तुलना स्विट्जरलैंड से की है। मेरी माँ की मृत्यु मेरे जन्म के छह-सात घंटों के भीतर ही हो गई थी। मैंने प्रकृति की गोद में पल कर ही, प्रारम्भ में, अपनी रचनाओं के लिए कौसानी के सौन्दर्यपूर्ण वातावरण से प्रेरणा ग्रहण की।


कौसानी में चाय का बगीचा था और मेरे पिता वहाँ पहले एकाउन्टेंट और पीछे मैनेजर के पद पर काम करते थे। चौथी कक्षा तक मेरी शिक्षा कौसानी के ही वर्नाकुलर स्कूल में हुई। उसके बाद प्रायः दस साल की उम्र में मुझे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अल्मोड़ा गवर्नमेंट हाईस्कूल में भेज दिया गया, जहाँ हमारा विशाल पैतृक गृह था और मेरे बड़े भाई पढ़ते थे। गाँव से नगर में जाने पर मुझे अनेक लाभ हुए।

वहाँ मेरा मानसिक क्षितिज ही विस्तृत नहीं हुआ, साहित्य के अध्ययन-मनन की ओर भी मेरा अनुराग बढ़ा और मुक्त प्रकृति के गीत गाने वाला वन-विहग छन्द-अलंकार आदि सम्बन्धी काव्य – शास्त्र आदि का ज्ञान प्राप्त कर शास्त्रीय व्यायाम में दक्षता प्राप्त करने लगा।


अल्मोड़ा (Almora) में सार्वजनिक सभाओं में नेताओं के जो भाषण होते उनसे मेरे स्वदेश – प्रेम तथा मातृभाषा के प्रति सम्मान की भावना में वृद्धि हुई। पुस्तकालयों से अच्छी- अच्छी पुस्तकें सुलभ हो सकने के कारण साहित्य के अतिरिक्त सामाजिक तथा ऐतिहासिक जीवन का ज्ञान भी अधिक गम्भीर तथा परिपुष्ट हो सका।


1916 से ’18 तक मेरे दो काव्य – संग्रह ‘कलरव’ तथा ‘नीरव तार’ के नाम से लिखे गए और 1916 में जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था ; मैंने ‘हार’ नामक एक खिलौना उपन्यास भी लिख डाला, जिसका प्रकाशन हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन द्वारा मेरी षष्टि-पूर्ति के अवसर पर हुआ।

इस प्रकार सन ’11 से ’18 तक मेरा छात्र – जीवन मेरी साहित्यिक रुचि के विकास के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ और मैंने इस बीच भारतेन्दु युग से लेकर तत्कालीन द्विवेदी- युग तक के गद्य- पद्य साहित्य का गम्भीर अध्ययन कर डाला। मेरा शब्द – ज्ञान इतना समृद्ध हो गया था कि मेरे सहयोगी मुझे ‘मशीनरी ऑफ वर्ड्स’ कहा करते थे।


शहर में रहने से जो मुख्य बात मेरे मन में पैदा हुई , वह थी व्यक्तित्व के विकास तथा प्रतिष्ठा की महत्ता। नगर का तड़क-भड़क का जीवन देख कर सीधे- सादे ढंग से रहने या अपनी ही भावनाओं के माधुर्य में डूबे रहने से काम नहीं चल सकता था।

शहर के अनेक क्रिया-कलापों को देख कर एवं उनमें सम्मिलित होने का अवसर पा कर दृष्टिकोण स्वतः ही व्यापक होने लगता है। सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव अल्मोड़े में मेरे मन में पहले – पहल श्री स्वामी सत्यदेव जी के विचारों तथा भाषणों का पड़ा , जो सप्ताह में एक – दो बार अवश्य ही सुनने को मिल जाते थे। स्वामी जी के भाषण देश – प्रेम तथा भाषा – प्रेम से ओत – प्रोत रहते थे। वह अन्त में राष्ट्र – प्रेम के अपने भजन भी सुनाया करते थे।


स्वामी जी के प्रयत्नों से नगर में ‘शुद्ध साहित्य समिति’ के नाम से हिन्दी का एक सार्वजनिक पुस्तकालय भी खुल गया जो मेरे हाईस्कूल पास कर लेने के बाद भी कुछ वर्षों तक चलता रहा। पुस्तकालय का संचालन तब बड़े सुचारु रूप से होता था। उसमें उस समय की अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाएँ तथा प्राचीन-नवीन प्रकाशनों में काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, जीवनी आदि सभी प्रकार के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह हो गया था।

कौसानी में मेरे मन में साहित्य – प्रेम के बीज पड़ ही चुके थे , अल्मोड़ा आ कर वे पुष्पित-पल्लवित होने लगे। स्कूल की पुस्तकों से मेरा जी हट कर साहित्य के रस-सरोवर में निमग्न रहने लगा। कहानी , उपन्यास , कविता,आदि सभी प्रकार के ग्रन्थों का मैं अपने कमरे के एकान्त में स्वाद लिया करता था।


अल्मोड़ा (Almora) आने के चार वर्ष बाद, जब मैं आठवीं कक्षा में था, मेरा परिचय गोविन्दवल्लभ पन्त (नाटककार), उनके भतीजे श्यामाचरण दत्त पन्त, जो तब हमारे यहाँ रहने लगे थे, इलाचन्द्र जोशी तथा अन्य साहित्यिक बन्धुओं से धीरे – धीरे बढ़ने लगा और मेरी साहित्यिक आस्था तथा अनुराग में भी वृद्धि होने लगी।


हमारे घर के ऊपर गिरजाघर था, जहाँ रविवार को प्रातःकाल नित्य घण्टा बजा करता था, उसकी शान्त मधुर ध्वनि तब मुझे बहुत आकर्षित करती थी। ‘गिरजे का घण्टा’ शीर्षक रचना में मैंने लिखा था- ‘तुम्हारे स्वर चहकते हुए पक्षियों की तरह मेरे भीतर छिप कर शान्ति का सन्देश दे जाते हैं।’

Almora- सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्मोडा में मनाया गया अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस


उसी का परिवर्तित रूप पीछे ‘घण्टा’ शीर्षक कविता में मिलता है। इस प्रकार मेरे किशोर कवि-जीवन के अनेक सुनहली स्मृतियों में लिपटे प्रारम्भिक वर्ष कौसानी और Almora में प्रकृति की एकान्त छाया में व्यतीत हुए। अल्मोड़े का वर्णन अपनी एक रचना में मैंने इस प्रकार किया है
‘लो, चित्र-शलभ-सी पंख खोल उड़ने को है कुसुमित घाटी,
यह है अल्मोड़े का वसन्त, खिल पड़ी निखिल पर्वत पाटी।’


सन 1918 में मेरे मँझले भाई जब हाईस्कूल पास कर लेने पर क्वीन्स कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने बनारस गए तो मुझे भी उनके साथ के लिए भेज दिया गया। सुदूर क्षितिज में पंख फैलाए हुए पक्षी की तरह Almora की चंचल प्रशांत निसर्ग सुन्दर घाटी को छोड़ कर जाने में मुझे दुःख तो हुआ, पर काशी को देखने का उत्साह भी मेरे मन में कम नहीं था।”

लेखक परिचय— कपिलेश भोज

जन्म-तिथि:15 फरवरी, 1957
जन्म-स्थान:उत्तराखण्ड के Almora जनपद का लखनाड़ी गाँव
शिक्षा:पहली से पाँचवीं तक कैंट प्राइमरी स्कूल, चौबटिया (रानीखेत) से। कक्षा 6 से 12 तक इण्टर कॉलेज, देवलीखेत (अल्मोड़ा) ; नेशनल इण्टर कॉलेज, रानीखेत, और राजकीय इण्टर कॉलेज, नैनीताल से।
बी.ए.और एम. ए. (हिन्दी साहित्य) कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल के डी.एस.बी. कैम्पस से।
पीएच- डी.कुमाऊँ विवि नैनीताल से।
सम्पादन:1980 के दशक में कुछ समय तक गाजियाबाद (उ.प्र.) से प्रकाशित प्रसिद्ध हिन्दी मासिक पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ का और 1990 के दशक में कुछ समय तक नैनीताल से प्रकाशित
त्रैमासिक पत्रिका ‘कारवाँ’ का सम्पादन किया ।
अध्यापन : 1988 से 2011 तक महात्मा गांधी स्मारक इण्टर कॉलेज , चनौदा (अल्मोड़ा) में प्रवक्ता (हिन्दी) के पद पर कार्य किया ।
प्रकाशित कृतियाँ :
यह जो वक्त है ( कविता-संग्रह )
ताकि वसन्त में खिल सकें फूल (कविता – संग्रह)
लोक का चितेरा: ब्रजेन्द्र लाल साह (जीवनी)
जननायक डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट (जीवनी)
सम्प्रति: अल्मोड़ा में रह कर स्वतंत्र लेखन।

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